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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आर्यसमाज
प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात के भूतपूर्व मोरवी राज्य के एक गाँव में सन् 1824 ई० में हुआ था। इनका प्रारंभिक नाम मूलशङ्कर तथा पिता का नाम अम्बाशङ्कर था। ये बाल्यकाल में शङ्कर के भक्त थे। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं, (1824--1845) घर का जीवन, (1845-1863) भ्रमण तथा अध्ययन एवं (1863-1883) प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा।
इनके प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं : 1. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा), 2. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दुःखी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय और 3. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात् 18 वर्ष तक इन्होंने संन्यासी का जीवन बिताया। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमतः वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य' पड़ा। पश्चात् ये संन्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई। फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिग्रा। दयानन्द सरस्वती के, मध्य जीवन काल में जिस महापुरुष ने सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव डाला, वे थे मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान् थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी “मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओ और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।” संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं। इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था औऱ इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूना, उत्तर में कलकता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्यकार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात् ये गङ्गातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुनः जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।
10 अप्रैल सन् 1875 में बम्बई में इन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। 1877 में दिल्ली दरबार के अवसर पर दिल्ली जाकर पंजाब के कुछ भद्रजनों से भी मिले, जिन्होंने इन्हें पंजाब आने का निमन्त्रण दिया। यह उनकी पंजाब की पहली यात्रा थी, जहाँ इनका मत भविष्य में खूब फूला-फला। 1878-1881 के मध्य आर्यसमाज एवं थियोसॉफिकल सोसाइटी का बड़ा ही सुन्दर भाईचारा रहा। किन्तु शीघ्र ही दोनों में ईश्वर के व्यक्तित्व के ऊपर मतभेद हो गया।
स्वामी दयानन्द भारत के अन्य धार्मिक चिन्तकों, जैसे देवेन्द्रनाथ ठाकुर, केशवचन्द्र सेन (ब्रह्मसमाज), मैडम ब्लौवाट्स्की एवं कर्नल आलकॉट (थियोसॉफिकल सोसाइटी), भोलानाथ साराभाई (प्रार्थनासमाज), सर सैयद (रिफार्म्ड इस्लाम) एवं डॉ० टी० जे० स्काट तथा रे० जे० ग्रे (ईसाई प्रतिनिधि) से भी मिले। जीवन के अन्तिम दिनों में स्वामीजी राजस्थान में थे। आपने महाराज जोधपुर तथा अन्य राजाओं पर अच्छा प्रभाव डाला। कुछ दिनों बाद स्वामीजी बीमार पड़े एवं 30 अक्तूबर सन् 1883 में अजमेर में इनकी इहलीला समाप्त हुई। कहा जाता है कि रसोइए ने इनको विष दे दिया।
आर्य समाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं---
1. सभी सत्य ज्ञान का प्रारम्भिक कारण ईश्वर है।
2. ईश्वर ही सर्वस्व सत्य है, सर्वज्ञान है, सर्व सौन्दर्य है, अशरीरी है, सर्व शक्तिमान् है, न्यायकारी है, दयालु है, अजन्मा है, अनन्त है, अपरिवर्तनशील है, अनादि है, अतुलनीय है, सबका पालनकर्त्ता एवं सबका स्वामी है, सर्वव्याप्त है, सर्वज्ञा है, अजर व अमर है, भयरित है, पवित्र है एवं सृष्टि का कारण है। केवल उसी की पूजा होनी चाहिए।
3. वेद ही सच्चे ज्ञानग्रन्थ हैं तथा प्रत्येक आर्य का सबसे पुनीत कर्त्तव्य है उन्हें पढ़ना या सुनना एवं उनकी शिक्षा दूसरों को देना।
4. प्रत्येक प्राणी को सत्य को ग्रहण करने एवं असत्य के त्याग के लिए सर्वदा तत्पर रहना चाहिए।
5. प्रत्येक काम नेकीपूर्ण होना चाहिए तथा उचित एवं अनुचित के चिन्तन के बाद ही उसे करना चाहिए।
6. आर्यसमाज का प्रथामिक कर्त्तव्य है मनुष्य मात्र की शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति द्वारा विश्वकल्याण करना।
7. हर एक के प्रति न्याय, प्रेम एवं उसकी योग्यता के अनुसार व्यवहार करना चाहिए।
8. अन्धकार को दूर कर ज्ञान ज्योति को फैलाना चाहिए।
9. किसी को भी केवल अपनी ही भलाई से सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए अपितु अपनी उन्नति का सम्बन्ध दूसरों की उन्नति से जोड़ना चाहिए।
10. साधारण समाजोन्नति या समाज कल्याण के सम्बन्ध में मनुष्य को अपना मतान्तर त्यागना तथा अपनी व्यक्तिगत बातों को भी छोड़ देना चाहिए। किन्तु व्यक्तिगत विश्वासों में मनुष्य को स्वतन्त्रता बरतनी चाहिए।
ऊपर के दस सिद्धान्तों में से प्रथम तीन जो ईश्वर के अस्तित्व, स्वभाव तथा वैदिक साहित्य के सिद्धान्त को दर्शाते हैं, धार्मिक सिद्धान्त हैं। अन्तिम सात नैतिक सिद्धांत हैं। आर्य समाज का धर्मविज्ञान वेद के ऊपर अवलम्बित है। स्वामीजी वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे और धर्म के सम्बन्ध में अन्तिम प्रमाण।
आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द ने देखा कि देश में अपने ही विभिन्न मतों व सम्प्रदायों के अतिरिक्त विदेशी इस्लाम एवं ईसाई धर्म भी जड़ पकड़ रहे हैं। दयानन्द के समाने यह समस्या थी कि कैसे भारतीय धर्म का सुधार किया जाय। किस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन का तथा पश्चिम एवं पूर्व के धर्म व विचारों का समन्वय किया जाय, जिसमें भारतीय गौरव फिर स्थापित हो सके। इसका समाधान स्वामी दयानन्द ने 'वेद' के सिद्धान्तों में खोज निकाला, जो ईश्वर के शब्द हैं।
स्वामी दयानन्द के वैदिक सिद्धान्त को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है --`वेद` शब्द का अर्थ ज्ञान है। यह ईश्वर का ज्ञान है इसलिए पवित्र एवं पूर्ण है। ईश्वर का सिद्धान्त दो प्रकार से व्यक्त किया गया है--1. चार वेदों के रूप में, जो चार ऋषियों (अग्नि, वायु, सूर्य एवं अङ्गिरा) को सृष्टि के आरम्भ में अवगत हुए। 2. प्रकृति या विश्व के रूप में, जो वेदविहित सिद्धान्तों के अनुसार उत्पन्न हुआ। वैदिक साहित्य-ग्रन्थ एवं प्रकृति-ग्रन्थ से यहाँ साम्य प्रकट होता है। स्वामी दयानन्द कहते हैं, `मैं वेदों को स्वतः प्रमाणित सत्य मानता हूँ। ये संशयरहित हैं एवं दूसरे किसी अधिकारी ग्रन्थ पर निर्भर नहीं रहते। ये प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो ईश्वर का साम्राज्य है।
वैदिक साहित्य के आर्य सिद्धान्त को यहाँ संक्षेप में दिया जाता है--1. वेद ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं जैसा कि प्रकृति के उनके सम्बन्ध से प्रमाणित है। 2. वेद ही केवल ईश्वर द्वारा व्यक्त किये गये हैं क्योंकि दूसरे ग्रन्थ प्रकृति के साथ यह सम्बन्ध नहीं दर्शाते। 3. वे विज्ञान प्रकृति एवं मनुष्य के सभी धर्मों के मूल स्रोत हैं। आर्यसमाज के कर्तव्यों में से सिद्धान्ततः दो महत्वपूर्ण हैं : 1. भारत को (भूले हुए) वैदिक पथ पर पुनः चलाना और 2. वैदिक शिक्षाओं को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना।
स्वामी दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों को व्यावहारिकता देने अपने धर्म को फैलाने तथा भारत व विश्व को जाग्रत करने के लिए जिस संस्था की स्थापना की उसे 'आर्य समाज' कहते हैं। 'आर्य' का अर्थ है भद्र एवं 'समाज' का अर्थ है सभा। अतः आर्यसमाज का अर्थ 'भद्रजनों का समाज' या 'भद्रसभा'। आर्य प्राचीन भारत का देशप्रेमपूर्ण एवं धार्मिक नाम है जो भद्र पुरुषों के लिए प्रयोग में आता था। स्वामीजी ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए यह नाम चुना। यह धार्मिक से भी अधिक सामाजिक एवं राजनीतिक महत्त्व रखता है। इस प्रकार यह अन्य धार्मिक एवं सुधारवादी संस्थाओं से भिन्नता रखता है, जैसे--ब्रह्मसमाज (ईश्वर का समाज), प्रार्थना-समाज आदि।
स्वामी दयानन्द की मृत्यु से अब तक की घटनाओं में समाज का दो दलों में बँटना एक मुख्य परिवर्तन है। इस विभाजन के दो कारण थे: (क) भोजन में मांस के उपयोग पर मतभेद और (ख) उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में उचित नीति सम्बन्धी मतभेद। पहले कारण से उत्पन्न हुए दो वर्ग 'मांसभक्षी दल' एवं 'शाकाहारी दल' कहलाते हैं तथा दूसरे कारण से उत्पन्न दो दल 'कॉलेज पार्टी' एवं 'महात्मा पार्टी' (प्राचीन पद्धति पर चलने वाले) कहलाते हैं। ये मतभेद एक और भी गहरा मतभेद उपस्थित करते हैं जिसका सम्बन्ध स्वामी दयानन्द की शिक्षाओं की मान्यता के परिणाम से है। इस दृष्टि से कॉलेज पार्टी अधिक आधुनिक और उदार है, जबकि महात्मा पार्टी का दृष्टिकोण अधिक प्राचीनतावादी है। कॉलेज पार्टी ने लाहौर में एक महाविद्यालय 'दयानन्द ऐंग्लोवेदिक कॉलेज' की स्थापना की, जबकि महात्मा पार्टी ने हरिद्वार में 'गुरुकुल' स्थापित किया, जिसमें प्राचीन सिद्धान्तों तथा आदर्शों पर विशेष बल दिया जाता रहा है।
संघटन की दृष्टि से इसमें तीन प्रकार के समाज हैं-- 1. स्थानीय समाज, 2. प्रान्तीय समाज और 3. सार्वदेशिक समाज। स्थानीय समाज की सदस्यता के लिए निम्नलिखित नियमावली हैं-- 1.आर्य समाज के दस नियमों में विश्वास, 2. वेद की स्वामी दयानन्द द्वारा की हुई व्याख्यादि में विश्वास, 3. सदस्य की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए, 4. द्विजों के लिए विशेष दीक्षा संस्कार की आवश्यकता नहीं है किन्तु ईसाई तथा मुसलमानों के लिए एक शुद्धि संस्कार की व्यवस्था है। स्थानीय सदस्य दो प्रकार के हैं-- प्रथम, जिन्हें मत देने का अधिकार नहीं, अर्थात् सदस्य; द्वितीय, जिन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त है, जो स्थायी सदस्य होते हैं। अस्थायित्व काल एक वर्ष का होता है। सहानुभूति दर्शाने वालों की भी एक अलग श्रेणी है।
स्थानीय समाज के निम्नांकित पदाधिकारी होते हैं-- सभापति, उपसभापति, मंत्री, कोशाध्यक्ष और पुस्तकालयाध्यक्ष। ये सभी स्थायी सदस्यों द्वारा उनमें से ही चुने जाते हैं। प्रान्तीय समाज के पदाधिकारी इन्हीं समाजों के प्रतिनिधि एवं भेजे हुए सदस्य होते हैं। स्थानीय समाज के प्रत्येक बीस सदस्य के पीछे एक सदस्य को प्रान्तीय समाज में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। इस प्रकार इसका गठन प्रतिनिधिमूलक है।
पूजा पद्धति--साप्ताहिक धार्मिक सत्संग प्रत्येक रविवार को प्रातः होता है, क्योंकि सरकारी कर्मचारी इस दिन छुट्टी पर होते हैं। यह सतसंग तीन या चार घण्टे का होता है। भाषण करने वाले के ठीक सामने पूजास्थान में वैदिक अग्निकुण्ड रहता है। धार्मिक पूजा हवन के साथ प्रारम्भ होती है। साथ ही वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है। पश्चात् प्रार्थना होती है। फिर दयानन्द-साहित्य का प्रवचन होता है, जिसका अन्त समाजगान से होता है। इसमें स्थायी पुरोहित या आचार्य नहीं होता। योग्य सदस्य अपने क्रम से प्रधान वक्ता या पूजा-संचालक का स्थान ग्रहण करते हैं।
कार्यप्रणाली-- आर्य समाज दूसरे प्रचारवादी धर्मों के समान भाषण, शिक्षा, समाचार पत्र आदि की सहायता से अपना मत-प्रचार करता है। दो प्रकार के शिक्षक हैं, प्रथम वेतनभोगी और द्वितीय, अवैतनिक। अवैतनिक में स्थानीय वकील, अध्यापक, व्यापारी, डाक्टर आदि लोग होते हैं, जबकि वेतनभोगी सम्पूर्ण समय देने वाले शास्त्रज्ञ और विद्वान् प्रचारक होते हैं। पहला दल शिक्षा पर जोर देता है; दूसरा दल उपदेश और संस्कार पर बल देता है। आर्यसमाज का प्रत्येक संगठन कुछ हाईस्कूल, गुरुकुल, अनाथालय आदि की व्यवस्था करता है।
यह मुख्यतः उत्तर भारतीय धार्मिक आन्दोलन है यद्यपि इसके कुछ केन्द्र दक्षिण भारत में भी हैं। बरमा तथा पूर्वी अर्फीका, मारीशस, फीजी आदि में भी इसकी शाखाएँ हैं जो वहाँ बसे हुए भारतीयों के बीच कार्य करती हैं। आर्य समाज का केन्द्र एवं धार्मिक राजधानी लाहौर में थी, यद्यपि अजमेर में स्वामी दयानन्द की निर्वाणस्थली एवं वैदिक--यन्त्रालय (प्रेस) होने से वह लाहौर का प्रतिद्वन्द्वी था। लाहौर के पाकिस्तान में चले जाने के पश्चात् आर्यसमाज का मुख्य केन्द्र आजकल दिल्ली है।
जहाँ तक इसके भविष्य का प्रश्न है, कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता। यह उत्तर भारत की सबसे मूल सुधारवादी एवं लोकप्रिय संस्था है। स्त्रीशिक्षा, हरिजनसेवा, अश्पृश्यता-निवारण एवं दूसरे सुधारों में यह प्रगतिशील है। वेदों को सभी धर्म का मूल आधार एवं विश्व के विज्ञान का स्रोत बताते हुए, यह देशभक्ति की भी स्थापना, करता है। इसके सदस्यों में से अनेक ऐसे हैं जो वास्तविक देशहितैषी एवं देशप्रेमी हैं। शिक्षा तथा सामाजिक देशहितैषी एवं देशप्रेमी हैं। शिक्षा तथा सामाजिक सुधार द्वारा यह भारत का खोया हुआ पूर्व-गौरव लाना चाहता है।

आर्यावर्त
इसका शाब्दिक अर्थ है 'आर्या आवर्तन्तेऽत्र' = आर्य जहाँ सम्यक् प्रकार से बसते हैं। इसका दूसरा अर्थ है 'पुण्यभूमि'। मनुस्मृति (2.22) में आर्यावर्त की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है :
आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्। तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः।।
[पूर्व में समुद्र तक और पश्चिम में समुद्र तक, (उत्तर दक्षिण में हिमालय, विन्ध्याचल) दोनों पर्वतों के बीच अन्तराल (प्रदेश) को विद्वान् आर्यावर्त कहते हैं।] मेधातिथि मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक का भाष्य करते हुए लिखते हैं :
आर्या आवर्तन्ते तत्र पुनः पुनरुद्भवन्ति। आक्रम्याक्रम्यापि न चिरं ततत्र म्लेच्छाः स्थातारो भवन्ति।
[आर्य वहाँ बसते हैं, पुनःपुनः उन्नति को प्राप्त होते हैं। कई बार आक्रमण करके भी म्लेच्छ (विदेशी) स्थिर रूप से वहाँ नहीं बस पाते।]
आजकल यह समझा जाता है कि इसके उत्तर में हिमालय श्रृंखला, दक्षिण में विन्ध्यमेखला, पूर्व में पूर्वसागर (वंग आखात) और पश्चिम में पश्चिम पयोधि (अरब सागर) है। उत्तर भारत के प्रायः सभी जनपद इसमें सम्मिलित हैं। परन्तु कुछ विद्वानों के विचार में हिमालय का अर्थ है पूरी हिमालय श्रृंङ्खला, जो प्रशान्त महासागर से भूमध्य महासागर तक फैली हुई है और जिसके दक्षिण में सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के प्रदेश सम्मिलित थे। इन प्रदेशों में सामी और किरात प्रजाति बाद में आकर बस गयी।

आर्षानुक्रमणी
शौनक ऋषि प्रणीत एक वैदिक अनुक्रमणी ग्रन्थ। ऋग्वेद के समस्त सूक्त संख्या में 1028 हैं। इनमें से 'बालखिल्य' नामक 11 सूक्तों पर सायणाचार्य का भाष्य है। शौनक ऋषि की आर्षानुक्रमणी में उनका उल्लेख पाया जाता है।

आर्षेय ब्रह्माण
सामवेद की जैमिनीय संहिता का एक ब्राह्मण। सायणाचार्य ने इसका भी भाष्य किया है। इस ग्रन्थ में ऋषि सम्बन्धी उपदेश हैं, अर्थात् सामों के ऋषि, छन्द, देवता इत्यादि पर व्याख्या और विचार है। साथ ही कई धार्मिक तथा पौराणिक कथाएँ पायी जाती हैं। संस्कृत के कथा-साहित्य की प्राचीन परम्परा इसमें सुरक्षित है।

आलेख्यसर्पपञ्चमी (नागपञ्चमी)
उत्तर भारत में श्रावण शुक्ल पञ्चमी को तथा दक्षिण भारत में (अमान्त गणना के अनुसार) भाद्र शुक्ल पंचमी को यह व्रत होता है। रंगीन चूर्णों से किसी स्थान पर नागों की आकृतियाँ बनाकर उनका पूजन करना चाहिए। परिणामस्वरूप नागों के भय से मुक्ति होती है। दे० भविष्यत् पुराण (ब्राह्म पर्व, 37.1-3)।

आवसथ
इसका ठीक अर्थ अतिथि-स्वागतशाला अथवा स्थान है (अथर्व० 9.6,5)। इसका सम्बन्ध विशेष रूप से ब्राह्मण एवं दूसरों से था, जो भोज तथा यज्ञों के अवसर पर आते थे। यह प्रायः आधुनिक धर्मशाला अथवा यात्रीनिवास के समान था। इसका प्रयोग निवासस्थान के साधारण अर्थ में भी होता जान पड़ता है (ऐ० उप० 3.12)।

आशादशमी व्रत
किसी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को प्रारम्भ कर छः मास, एक वर्ष अथवा दो वर्ष तक गृह के प्राङ्गण में दस कोष्ठक खींचकर उनमें भगवान् का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती की समस्त आशाओं तथा कामनाओं की पूर्ति होती है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड 1. 977-981; व्रतराज 356--7।

आशादित्य व्रत
आश्विन मास के रविवार को व्रत का अनुष्ठन प्रारम्भ कर एक वर्षपर्यन्त सूर्य का उसके बारह विभिन्न नामों से पूजन होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 533-37।

आश्मरथ्य आचार्य
वेदान्त के व्याख्याता प्राचीन आचार्य। वेदान्तसूत्र (1। 2। 21; 1। 4। 20) में जो इनके मत का उल्लेख आया है उससे आचार्य शङ्कर तथा भामतीकार वाचस्पति मिश्र ने इन्हें विशिष्टाद्वैतवादी सिद्ध किया है। अतः ये वेदव्यास और जैमिनि से पहले हुए थे। इनका मत है कि परमेश्वर अनन्त होने पर भी उपासक के ऊपर अनुग्रह करने के लिए प्रादेशमात्र स्थान में आविर्भूत होते हैं और विज्ञानात्मा एवं परमात्मा में परस्पर भेदाभेद-सम्बन्ध है। कहा जाता है कि आश्मरथ्य के इस भेदाभेद की ही आगे चलकर यादवप्रकाश के द्वारा पुष्टि हुई है। इसके अनुसार आत्मा न तो एकान्ततः ब्रह्म से भिन्न है और न अभिन्न है। स्वामी निम्बार्काचार्य तथा भास्कराचार्य द्वारा प्रस्तुत वेदान्तसूत्र के भाष्य में भी आश्मरथ्य के भेदाभेदवाद का पोषण हुआ है।

आश्रम
जिन दो संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगठन हुआ है वे हैं वर्ण और आश्रम। वर्ण का आधार मनुष्य की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जिसके अनुसार वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्त्तव्यों का चुनाव करता है। आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिगत जीवन का संस्कार करना है। मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है; क्रमशः संस्कार से वह प्रबुद्ध और संस्कृत बन जाता है। सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकास-क्रमों में बाँटा जा सकता है-- (1) बाल्य और किशोरावस्था, (2) यौवन, (3) प्रौढ़ावस्था और (4) वृद्धावस्था। इन्हीं के अनुरूप चार आश्रमों की कल्पना की गयी थी, जो (1) ब्रह्मचर्य, (2) गार्हस्थ्य (3) वानप्रस्थ और संन्यास कहलाते हैं। आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं कहीं अन्तर पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2.9.21, 1) के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य), मौन और वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतमधर्मसूत्र (3.2) में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र (7.1-2) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक का उल्लेख करता है।
आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी था-- ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यतः धर्म अर्थात् संयम-नियम से, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध उपराम और मोक्ष की तैयारी से और संन्यास का सम्बन्ध मोक्ष से था। इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है।
जीवन की इस प्रक्रिया के लिए `आश्रम` शब्द का चुनाव बहुत ही उपयुक्त था। यह शब्द `श्रम्` धातु से बना है, जिसका अर्थ है `श्रम करना, अथवा पौरुष दिखलाना` (अमरकोश, भानुजी दीक्षित)। सामान्यतः इसके तीन अर्थ प्रचलित हैं--(1) वह स्थिति अथवा स्थान जिसमें श्रम किया जाता है, (2) स्वयं श्रम अथदा तपस्या और (3) विश्रामस्थान।
वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएँ हैं जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान करता है।
मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना चाहिए (शतायुर्वै पुरुषः) अतएव चार आश्रमों का विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए। प्रत्येक मुष्य के जीवन में चार अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे औऱ आज भी हैं जो नियमतः इनका पालन करना आवश्यक नहीं समझते। इनके मत को `बाध` कहा गया है। कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं अर्थात उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में हेरफेर हो सकता है। परन्तु सन्तुलित विचारधारा आश्रमों के समुच्च्य में विश्वास करती आयी है। इसके अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वियीय चतुर्थांश में गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतुर्थांश में संन्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव में सामाजिक जीवन का सन्तुलन भंग होकर मिथ्याचार अथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है।
विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रमधर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है। संक्षेप में मनुस्मृति से आश्रमों के कर्त्तव्य नीचे दिये जा रहे हैं--ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए (मनुस्मृति, 4.1)। दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसान चाहिए; सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए (मनुस्मृति, 5.169)। वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में जीवन विताना चाहिए (मनुस्मृति 6.1-2)। वानप्रस्थ समाप्त करके संन्यास आश्रम में प्रवेश करना होना है। इनमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णतः त्याग और परिव्रजन (अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना) विहित है (मनु०--6.33)। दे० पृथक्, पृथक् विभिन्न आश्रम।
वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्त्तव्‍यों का समाहार करते हैं। परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों का विधान करता है वहाँ आश्रम उसके व्यक्तिगत कर्तव्यों का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास-सरणियों का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है, उसको प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार संघटन करना चाहिए और किन किन साधनों का उपयोग करना चाहिये। वास्तव में जीवन की यह अनुपम और उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पायी जाती है। प्रसिद्ध विद्वान् डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है :
हम यह कह नहीं सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार करने में स्वतन्त्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है जो इस विचार की महत्ता की समता कर सके। (दे० 'आश्रम' शब्द, 'इनसाइक्लोपीडिया, रेलिजन और ईथिक्स' में।)


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