वर्ष की समाप्ति के पश्चात् प्रथम तिथि को व्रतारम्भ होता है। यह एक वर्षपर्यन्त चलता है। प्रत्येक प्रतिपदा को सूर्य की छपी हुई प्रतिमा का पूजन विहित है। दान पूर्व व्रत के समान है। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.341--42; व्रतराज, 53।
आरोग्यव्रत
(1) इस व्रत का अनुष्ठान भाद्रपद शुक्ल पक्ष के पश्चात् आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर शरद्पूर्णिमा तक होता है। दिन में कमल तथा जाति-जाति के पुष्पों से अनिरुद्ध की पूजा, हवन आदि होता है। व्रत की समाप्ति से पूर्व तीन दिन का उपवास विहित है। इससे स्वास्थ, सौन्दर्य तथा समृद्धि की उपलब्धि होती है। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.205, 1-7।
(2) यह दशमीव्रत है। नवमी को उपवास तथा दशमी को लक्ष्मी और हरि का पूजन होना चाहिए। हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.936-965।
आरोग्यसप्तमी
इस व्रत में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी से प्रत्येक सप्तमी को एक वर्ष तक उपवास, सूर्य के पूजन आदि का विधान है। दे० वाराह पुराण, 62.1-5।
आर्चिक
सामवेदीय मन्त्रों को स्तुतियों का संग्रह, जो उद्गाता को कण्ठस्थ करना पड़ता था। सोमयज्ञ के विविध अवसरों पर कौन मन्त्र किस स्वर में और किस क्रम में गाया जायगा, आदि की शिक्षा आचार्य अपने शिष्यों को देते थे। 'कौथुमी शाखा' में उद्गाता को 585 गान सिखाये जाते थे। इस पूरे संग्रह को आर्चिक कहते हैं। इसमें दो प्रकार के गान होते हैं-- पहला 'ग्रामगेय गान' तथा दूसरा 'आरण्य गान'। पहला बस्तियों में गाया जाता था, किन्तु दूसरा इतना पवित्र माना जाता था कि उसके लिए केवल वनस्थली का एकान्त ही उपयुक्त समझा जाता था।
आर्चिक
(2) सामवेद में आये हुए ऋग्वेद के मन्त्र 'आर्चिक' कहे जाते हैं और यजुर्वेद के मन्त्र (गद्यात्मक) 'स्तोम' कहलाते हैं। सामवेदीय आर्चिक ग्रन्थ अध्य़ापक भेद, देश भेद, कालक्रम भेद, पाठक्रम भेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब शाखाओं में मन्त्र एक से ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्न भिन्न हैं। आर्चिक ग्रन्थ तीन हैं-- छन्द, आरण्यक और उतरा। उत्तरार्चिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इन सूक्तों का 'त्रिक्' नाम है। इसी के समान भावापन्न दो-दो ऋचाओं की समष्टि का नाम 'प्रगाथ' है। चाहे त्रिक् हो या प्रगाथ, इनमें से प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द आर्चिक में से लिया गया है। इसी छन्द-आर्चिक से एक ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं को मिलाकर त्रिक् बनता है। इसी प्रकार प्रगाथ भी है। इन्हीं कारणों से इनमें जो पहली ऋचाएँ हैं वे सब 'योनि-ऋक्' कहलाती हैं और आर्चिक योनि-ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
योनि-ऋक् के पश्चात् उसी के बराबर की दो या एक ऋचा जिसके उत्तर दल में मिले उसी का नाम उत्तरार्चिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तरा है।
एक ही अध्याय का बना हुआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन करने के योग्य हो 'आरण्यक' कहलाता है। सब वेदों में एक-एक आरण्यक है। योनि, उत्तरा और आरण्यक इन्हीं तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आर्चिक अर्थात् ऋक्-समूह है। छन्द ग्रंथों में जितने साम हैं उनके गाने वाले 'छन्दोग' कहलाते हैं।
आर्त भक्ति
श्रीमद्भगवद्गीता (7.16) में भक्तों के चार प्रकार बतलाये गये हैं :
1. अर्थार्थी (अर्थ अथवा लाभ की आशा से भजन करने वाला)
(2) आर्त (दुःख निवारण के लिए भजन करने वाला)
(3) जिज्ञासु (भगवान् के स्वरूप को जानने के लिए भजन करने वाला)
(4) ज्ञानी (भगवान् के स्वरूप को जानकर उनका चिन्तन करने वाला)।
यद्यपि आर्त भक्ति का स्थान अन्य प्रकार की भक्ति से निचली श्रेणी का है, तथापि आर्त भक्त को भी भगवान् सुकृती कहते हैं। आर्त होकर भी भगवान् की ओर उन्मुख होना श्रेयस्कर है। भक्तिशास्त्र के सिद्धांतग्रन्थों में भक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है।---(1) परा भक्ति (जिसका उद्देश्य केवल भक्ति है और उसके बदले में कुछ नहीं चाहिए, और (2) अपरा भक्ति (साधनरूप भक्ति)। आर्त भक्ति अपरा भक्ति का ही एक उप प्रकार है।
आर्द्रादर्शन अथवा आर्द्राभिषेक
यह व्रत मार्गशीर्ष पूर्णिमा को होता है। दक्षिण भारत में नटराज (नृत्यमुद्रा में भगवान् शिव) के दर्शनार्थ जनसमूह चिदम्बरम् में उमड़ पड़ता है। दक्षिण भारत का यह एक महान् व्रत है।
आर्द्रानन्दकरी तृतीया
हस्त एवं मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ अभिजित् नक्षत्रों के दिन वाली शुक्ल पक्ष की तृतीया। वर्ष को तीन भागों में विभाजित कर एक वर्ष तक इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इस व्रत में शिव तथा भवानी का पूजन होता है। भवानी के चरणों से प्रारम्भ कर मुकुट तक शरीर के प्रत्येक अवयव को नमस्कार किया जाता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.471-474।
आर्य
आर्यावर्त का निवासी, सभ्य, श्रेष्ठ, सम्मान्य। वैदिक साहित्य में उच्च वर्गों के लिए व्यवहृत साधारण उपाधि। कहीं-कहीं 'आर्य' (अथवा 'अर्य') वैश्यों के लिए ही सुरक्षित समझा गया है (अथर्व 19.32, 8 तथा 62,1)। आर्य शब्द से मिश्रित उपाधियाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की भी हुआ करती थीं। किन्तु 'शूद्रार्यौं' यौगिक शब्द का अर्थ अस्पष्ट है। आरम्भ में इसका अर्थ सम्भवतः शूद्र एवं आर्य था, क्योंकि महाव्रत उत्सव में तैत्तिरीय ब्राह्मण में ब्राह्मण एवं शूद्र के बीच (कृत्रिम) युद्ध करने को कहा गया है, यद्यपि सूत्र इसे वैश्य (अर्य) एवं शूद्र का युद्ध बतलाता है। कतिपय विद्वानों के मत में यह युद्ध और विरोध प्रजातीय न होकर सांस्कृतिक था। वस्तुतः यह ठीक भी जान पड़ता हैं, क्योंकि शूद्र तथा दास बृहत समाज के अभिन्न अङ्ग थे।
आर्य' शब्द (स्त्रीलिंग आर्या) आर्य जातियों के विशेषण, नाम, वर्ण, निवास के रूप में प्रयुक्त हुआ है। यह श्रेष्ठता सूचक भी माना गया है :
योऽहमार्येणं परवान् भ्रात्रा ज्येष्ठेन भामिनि।' (रामायण, द्वितीय काण्ड)
इस प्रकार महर्षि बाल्मीकि ने आर्य शब्द को श्रेष्ठ या सम्मान्य के अर्थ में ही प्रयुक्त किया है। स्मृति में आर्य का निम्नलिखित लक्षण किया गया है :
कर्त्तव्यमाचरन्, काममकर्तव्यमनाचरन्। तिष्ठति प्राकृताचारे स तु आर्य्य इति स्मृतः।।
वर्णाश्रमानुकूल कर्त्तव्य में लीन, अकर्त्तव्य से विमुख आचारवान् पुरुष ही आर्य है। अतः यह सिद्ध है कि जो व्यक्ति या समुदाय सदाचारसम्पन्न, सकल विषयों में अध्यात्म लक्ष्य युक्त, दोषरहित और धर्मपरायण है, वही आर्य कहलाता है।
आर्यभट
गुप्तकाल के प्रमुख ज्योतिर्विद। ये गणित और खगोल ज्योतिष के आचार्य माने जाते हैं। इनके बाद के ज्योतिर्विदों में वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, द्वितीय आर्यभट, भास्कराचार्य, कमलाकर जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थकार हुए हैं। इनका जन्मकाल सन् 476 ई० और निवासस्थान पाटलिपुत्र (पटना) कहा जाता है। गणित ज्योतिष का 'आर्य सिद्धांत' इन्हीं का प्रचलित किया हुआ है, जिसके अनुसार भारत में इन्होंने ही सर्वप्रथम पृथ्वी को चल सिद्ध किया इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'आर्यभटीय' है।