पुराणों के अनुसार वैवश्वत मनु का पुत्र और सूर्य वंश (इक्ष्वाकुवंश) का प्रवर्तक। इसकी राजधानी अयोध्या और सौ पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि अयोध्या का राजा हुआ, दूसरे पुत्र निमि ने विदेह (मिथिला) में एक राजवंश प्रचलित किया। अन्य पुत्रों ने अन्यत्र उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किये।
इज्या
यज्ञकर्म अथवा यजन का एक पर्याय। दे० 'यज्ञ' 'सोहमिज्याविशुद्धात्मा प्रजालोपनिमीलतः।' (रधु० 1.68)
[मैं इज्या (यज्ञ) से विशुद्ध चित्तवाला और प्रजालोप (संतानहीनता) से निमीलित (कुम्हलाया हुआ) हूँ।] इसके अन्य पूजा, संगम, गौ, कुट्टनी आदि हैं।
इडा
श्रुतिः प्रीतिरिडा कान्तिः शान्तिः पुष्टिः क्रिया तथा।
(2) यौगिक साधना की आधार एक नाड़ी। हठयोग या स्वरोदय के अभ्यासार्थ नासिका के वाम या चन्द्र स्वर के नाम से इस नाड़ी का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। षट्चक्रभेद नामक ग्रन्थ (श्लोक 2) में इसका निम्नांकित संकेत है :
मेरोर्बाह्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्लै। मध्ये नाडी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा।। उपर्युक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार किया गया है :
[मेरुदण्ड के बाह्य प्रदेश में वाम और दक्षिण पार्श्व में चन्द्र-सूर्यात्मक (इडा तथा पिङ्गला) नाडियों के बीच में सुषुम्ना नाडी वर्तमान है।]
ज्ञानसङ्कलनीतन्त्र (खणअड में इडा का और भी वर्णन पाया जाता है :
इडा नाम सैव गङ्गा यमुना पिङ्गला स्मृता। गङ्गायमुनयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती।। एतासां सङ्गमो यत्र त्रिवेणी सा प्रकीर्तिता। तत्र स्नातः सदा योगी सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
[इडा नामक नाडी ही गङ्गा है। पिङ्गला को यमुना कहा गया है। गङ्गा-यमुना के बीच में सुषुम्ना नाड़ी सरस्वती है। इन तीनों का जहाँ सङ्गम (भ्रूमध्य में) होता है वही त्रिवेणी प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान (ध्यान) करनेवाला योगी सदा के लिए सब पापों से मुक्त हो जाता है।]
इडा नाडी सकाम कर्म के अनुष्ठान की सहायिका है। इडा और पिङ्गला के बीच में वर्तमान सुषुम्ना नाडी ब्रह्मनाडी है। इस नाडी में यह सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है। उत्तरगीता (अध्याय 2) में इसका निम्नलिखित वर्णन है :
इन नाडियों के शोधन के बिना योगी को आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं होती।
इतिहास
छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है कि इतिहासपुराण पाँचवाँ वेद है। इससे इतिहास एवं पुराण की धार्मिक महत्ता स्पष्ट होती है। अधिकांश विद्वान् इतिहास से रामायण और महाभारत समझते हैं और पुराण से अठारह वा उससे अधिक पुराण ग्रन्थ और उपपुराण समझे जाते हैं। अनेक विद्वान् इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती का कहना है कि इस स्थल पर इतिहास-पुराण का तात्पर्य ब्रह्मण भाग में उल्लिखित कथाओं से है।
अठारह विद्याओं की गिनती में इतिहास का नाम कहीं नहीं आया है। इन अठारह विद्याओं की सूची में पुराण के अतिरिक्त और कोई विद्या ऐसी नहीं है जिसमें इतिहास का अन्तर्भाव हो सके। इसीलिए प्रायश्चित्ततत्त्वाकार ने इतिहास को पुराण के अन्तर्गत समझकर उसका नाम अलग नहीं गिनाया। ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्य में सायणाचार्य ने लिखा है कि वेद के अन्तर्गत देवासुर युद्धादि का वर्णन इतिहास कहलाता है और "यह असत् था और कुछ न था" इत्यादि जगत् की प्रथमावस्था से लेकर सृष्टि क्रिया का वर्णन पुराण कहलाता है। बृहदारण्यक के भाष्य में शङ्कराचार्य ने भी लिखा है कि उर्वशी-पुरूरवा आदि संवाद स्वरूप ब्राह्मणभाग को इतिहास कहते हैं और "पहले असत् ही था" इत्यादि सृष्टि-प्रकरण को पुराण कहते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि सर्गादि का वर्णन पुराण कहलाता था और लौकिक कथाएँ इतिहास कही जाती थीं।
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इदावत्सर
वाजसनेयी संहिता (27.45) के अनुसार एक विशेष संवत्सर है :
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अनुसार इस संवत्सर में अन्न और वस्त्र का दान पुण्यकारक होता है।
ज्योतिष की गणना में 'पंचवर्षात्मक युग' मान्यता के अनुसार वर्ष का एक प्रकार इदावत्सर है।
इन्दु
चन्द्रमा। इसकी व्युत्पत्ति है: 'उनत्ति अमृतधारया भुवं क्लिन्नां करोति इति' [अमृत की धारा से पृथ्वी को भिगोता है, इसलिए 'इन्दु' कहलाता है।]
इन्दुव्रत
साठ संवत्सरव्रतों में से अट्ठावनवाँ व्रत। व्रती को किसी सपत्नीक सद्गृहस्थ का सम्मान करना चाहिए तथा वर्ष के अन्त में उसे गौ का दान करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रकाण्ड; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.883।
इन्द्र
ऋग्वेद के प्रायः 250 सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है तथा 50 सूक्त ऐसे हैं जिनमें दूसरे देवों के साथ इन्द्र का वर्णन है। इस प्रकार लगभग ऋग्वेद के चतुर्थांश में इन्द्र का वर्णन पाया जाता है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्द्र वैदिक युग का सर्वप्रिय देवता था। इन्द्र शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ अस्पष्ट है। अधिकांश विद्वानों की सम्मति में इन्द्र झंझावात का देवता है जो बादलों में गर्जन एवं बिजली की चमक उत्पन्न करता है। किन्तु हिलब्रैण्ट के मत से इन्द्र सूर्य देवता है। वैदिक भारतीयों ने इन्द्र को एक प्रबल भौतिक शक्ति माना जो उनकी सैनिक विजय एवं साम्राज्यवादी विचारों का प्रतीक है। प्रकृति का कोई भी उपादान इतना शक्तिशाली नहीं जितना विद्युत्प्रहार। इन्द्र को अग्नि का जुड़वाँ भाई (ऋ. 6.59.2) कहा गया है जिससे विद्युतीय अग्नि एवं यज्ञवेदीय अग्नि का सामीप्य प्रकट होता है।
इन्द्र की चरितावली में वृत्रवध का बड़ा महत्त्व है। (अधिकांश वैदिक विद्वानों का मत है कि वृत्र सूखा (अनावृष्टि) का दानव है और उन बादलों का प्रतीक है जो आकाश में छाये रहने पर भी एक बूँद जल नहीं बरसाते। इन्द्र अपने वज्र प्रहार से वृत्ररूपी दानव का वध कर जल को मुक्त करता है और फिर पृथ्वी पर वर्षा होती है। ओल्डेनवर्ग एवं हिलब्रैण्ट ने वृत्र-वध का दूसरा अर्थ प्रस्तुत किया है। उनका मत है कि पार्थिव पर्वतों से जल की मुक्ति इन्द्र द्वारा हुई है। हिलब्रैण्ट ने सूर्यरूपी इन्द्र का वर्णन करते हुए का है : वृत्र शीत (सर्दी) एवं हिम का प्रतीक है, जिससे मुक्त केवल सूर्य ही दिला सकता है। ये दोनों ही कल्पनाएँ इन्द्र के दो रूपों को प्रकट करती हैं, जिनका प्रदर्शन मैदानों के झंझावात और हिमाच्छादित पर्वतों पर तपते हुए सूर्य के रूप में होता है। वृत्र से युद्ध करने की तैयारी के विवरण से प्रकट होता है कि देवों ने इन्द्र को अपना नायक बनाया तथा उसे शक्तिशाली बनाने के लिए प्रभूत भोजन-पान आदि की व्यवस्था हुई। इन्द्र प्रभूत सोमपान करता है। इन्द्र का अस्त्र वज्र है जो विद्युत्प्रहार का ही एक काल्पनिक नाम है।
ऋग्वेद में इन्द्र को जहाँ अनावृष्टि के दानव वृत्र का वध करने वाला कहा गया है, वहीं उसे रात्रि के अन्धकार रूपी दानव का वध करनेवाला एवं प्रकाश का जन्म देने वाला भी कहा गया है। ऋग्वेद के तीसरे मणडल के वर्णनानुसार विश्वामित्र के प्रार्थना करने पर इन्द्र ने विपाशा (व्यास) तथा शतद्रु (सतलज) नदियों के अथाह जल को सुखा दिया, जिससे भरतों की सेना आसानी से इन नदियों को पार कर गयी।
इन्द्र और वृत्र के आकाशीय युद्ध की चर्चा हो चुकी है। इन्द्र के इस युद्ध कौशल के कारण आर्यों ने पृथ्वी के दानवों से युद्ध करने के लिए भी इन्द्र को सैनिक नेता मान लिया। इन्द्र के पराक्रम का वर्णन करने के लिए शब्दों की शक्ति अपर्याप्त है। वह शक्ति का स्वामी है, उसकी एक सौ शक्तियाँ हैं। चालीस या इससे भी अधिक उसके शक्तिसूचक नाम हैं तथा लगभग उतने ही युद्धों का विजेता उसे कहा गया है। वह अपने उन मित्रों एवं भक्तों को भी वैसी विजय एवं शक्ति देता है, जो उस को सोमरस अर्पण करते हैं।
नौ सूक्तों में इन्द्र एवं वरुण का संयुक्त वर्णन है। दोनों एकता धारण कर सोम का पान करते हैं, वृत्र पर विजय प्राप्त करते हैं, जल की नहरें खोदते हैं और सूर्य का आकाश में नियमित परिचालन करते हैं। युद्ध में सहायता, विजय प्रदान करना, धन एवं उन्नति देना, दुष्टों के विरुद्ध अपना शक्तिशाली वज्र भेजना तथा रज्जुरहित बन्धन से बाँधना आदि कार्यों में दोनों में समानता है। किन्तु यह समानता उनके सृष्टिविषयक गुणों में क्यों न हो, उनमें मौलिक छः अन्तर हैं : वरुण राजा है, असुरत्व का सर्वोत्कृष्ट सत्ताधारी है तथा उसकी आज्ञाओं का पालन देवगण करते हैं, जबकि इन्द्र युद्ध का प्रेमी एवं वैर-धूलि को फैलाने वाला है। इन्द्र वज्र से वृत्र का वध करता है, जबकि वरुण साधु (विनम्र) है और वह सन्धि की रक्षा करता है। वरुण शान्ति का देवता है, जबकि इन्द्र युद्ध का देव है एवं मरुतों के साथ सम्मान की खोज में रहता है। इन्द्र शत्रुतावश वृत्र का वध करता है, जब कि वरुण अपने व्रतों की रक्षा करता है।
पौराणिक देवमण्डल में इन्द्र का वह स्थान नहीं है जो वैदिक देवमण्डल में है। पौराणिक देवमण्डल में त्रिमूर्ति-- ब्रह्मा, विष्णु और शिव ---का महत्त्व बढ़ जाता है। इन्द्र फिर भी देवाधिराज माना जाता है। वह देव-लोक की राजधानी अमरावती में रहता है, सुधर्मा उसका राजसभा तथा सहस्र मन्त्रियों का उसका मन्त्रिमण्डल है। शची अथवा इन्द्राणी पत्नी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अस्त्र वज्र अथवा अशनि है। जब भी कोई मानव अपनी तपस्या से इन्द्रपद प्राप्त करना चाहता है तो इन्द्र का सिंहासन संकट में पड जाता है। अपने सिंहासन की रक्षा के लिए इन्द्र प्रायः तपस्वियों को अप्सराओं से मोहित कर पथभ्रष्ट करता पाया जाता है। पुराणों में इस सम्बन्ध की अनेक कथाएँ मिलती हैं। पौराणिक इन्द्र शक्तिमान्, समृद्ध और विलासी राजा के रूप में चित्रित है।
इन्द्रध्वज
महान् वैदिक देवता इन्द्र का स्मारक काष्ठस्तम्भ। यह विजय, सफलता और समृद्धि का प्रतीक है। प्राचीन काल में भारतीय राजा विधिवत् इसकी स्थापना करते थे और उस अवसर पर उत्सव मनाया जाता था; संगीत, नाट्य आदि का आयोजन होता था। भरत के नाट्यशास्त्र में इसका उल्लेख पाया जाता है :
इस ध्वज की उत्पत्ति की कथा बृहत्संहिता में पायी जाती है। एक बार देवतागण असुरों से पीडि़त होकर उनके अत्याचार से मुक्त होने के लिए ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा ने उनको विष्णु के पास भेजा। विष्णु उस समय क्षीर सागर में शेषनाग के ऊपर शयन कर रहे थे। उन्होंने देवताओं की विनय सुनकर उनको एक ध्वज प्रदान किया, जिसको लेकर एक बार इन्द्र ने असुरों को परास्त किया था। इसीलिए इसका नाम इन्द्रध्वज पड़ा।
इन्द्रध्वजोत्थानोत्सव
यह इन्द्र की ध्वजा को उठाकर जलूस में चलने का उत्सव है। यह भाद्र शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है। ध्वज के लिए प्रयुक्त होने वाले दण्ड के लिए इक्षुदण्ड (गन्ना) काम में आता है, जिसकी सभी लोग इन्द्र के प्रतीक रूप में अर्चना करते हैं। तदनन्तर किसी गम्भीर सरोवर अथवा नदी के जल में उसे विसर्जित किया जाता है। ध्वज का उत्तोलन श्रवण, धनिष्ठा अथवा उत्ताराषाढ़ नक्षत्र में तथा उसका विसर्जन भरणी नक्षत्र में होना चाहिए। इसका विशद वर्णन बराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय 43), कालिका पुराण (90) तथा भोज के राजमार्त्तण्ड (सं० 1.6. से 1.92 तक) में है। यह व्रत राजाओं के लिए विशेष रूप से आचरण करने योग्य है। बुद्धचरित में भी इसका उल्लेख है। रघुवंश (4.3), मृच्छकटिक (10.7), मणिमेखलाई के प्रथम भाग, सिलप्पदिकारम् के 5 वें भाग तथा एक सिलालेख (एपिग्राफिया इंडिका, 1.320; मालव संवत् (461) में भी इसका उल्लेख हुआ है। कालिकापुराण, 90; कृत्यकल्पतरु (राजधर्म, पृष्ठ 184-190); देवी-पुराण तथा राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय, पृष्ठ 421-423) में भी इसका वर्णन मिलता है।