(1) वेद के प्रामाण्य (और वर्णाश्रम व्यवस्था) में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। आस्तिक के लिए ईश्वर में विश्वास रखना अनिवार्य नहीं है, किन्तु वेद में विश्वास रखना आवश्यक है। सांख्य और पूर्वमीमांसा दर्शन के अनुयायी ईश्वर की आवश्यकता सृष्टि प्रक्रिया में नहीं मानते, फिर भी वे आस्तिक हैं। शङ्गराचार्य ने आस्तिक्य की परिभाषा इस प्रकार की है :
'आस्तिक्यं श्रद्धानता परमार्थेष्वागमेषु।''
[परमार्थ (मोक्ष) और आगम (वेद) में श्रद्धा रखना आस्तिक्य है।] 13
(2) साधारण अर्थ में आस्तिक वह है जो ईश्वर और परमार्थ में विश्वास रखता है।
आस्तिकदर्शन
वेदोक्त प्रमाणों को मानने वाले आस्तिक एवं न मानने वाले नास्तिक दर्शन कहलाते हैं। चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक एवं अर्हत् ये छः नास्तिक दर्शन हैं : तथा वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा एवं वेदान्त ये छः आस्तिक दर्शन कहलाते हैं।
आस्तिकवर्ग
दर्शनों में छः आस्तिक तथा छः नास्तिक गिने जाते हैं। हिन्दू साहित्य इन नास्तिक दर्शनों को भी अपना अङ्ग समझता है। विपरीतमतसहिष्णु भारतवर्ष में आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के विचारों का अनादि काल से विकास होता चला आया है। भारतीय उदारता के अंक में आस्तिक एवं नास्तिक दोनों वर्गों की परम्परा और संस्कृति समान सुरक्षित बनी रही है। आस्तिक वर्ग का अर्थ है आस्तिक दर्शनों का अनुयायी।
आस्तीकपर्व
महाभारत के 'आस्तीकपर्व' में गरुड और सर्पों की उत्पत्ति का वर्णन है। समुद्रमन्थन, उच्चैःश्रवा की उत्पत्ति और महाराज परीक्षित् के पुत्र जनमेजय के सर्पानुष्ठान का वर्णन भी किया गया है। भरतवंशीय महात्माओं के पराक्रम का वृत्तान्त भी इसमें वर्णित है।
जरत्कारु ऋषि के पुत्र आश्तीक की इस पर्व में अधिक प्रधानता होने के कारण यह 'आस्तीक पर्व' कहा गया है। इनके नाम पर सर्प को भगाने का यह श्लोक प्रचलित है :
सर्पापसर्प भद्रं ते दूरं गच्छ वनान्तरम्। जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आहवनीय
यज्ञोपयोगी एक अग्नि। धार्मिक यज्ञ कार्यों में यज्ञवेदी का बड़ा महत्त्व है। यह वेदी कुश से आच्छादित ऊँचे चबूतरे की होती थी, जो यज्ञसामग्री देने अथवा यज्ञ सम्बन्धी पात्रों के रखने के लिए बनायी जाती थी। मुख्य अग्निवेदी कुण्ड के समान विभिन्न आकार की होती थी, जिसमें यज्ञाग्नि रखी रहती था। प्राचीन भारत में जब देवों की पूजा प्रत्येक गृहस्थ अपने घर के अग्निस्थान में करता था, उसका यह पुनीत कर्त्तव्य होता था कि पवित्र अग्नि वेदी में स्थापित रखे रहे। यह कार्य प्रत्येक गृहस्थ अग्न्याधान या यज्ञाग्नि के आरम्भिक उत्सव दिन से ही प्रारम्भ करता था। इस अवसर पर यज्ञकर्ता अपने चार पुरोहितों का चुनाव करता था। गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नि (दो प्रकार की अग्नि) के लिए एक वृत्ताकार एवं दूसरा वर्गाकार स्थान होता था। आवश्यकता समझी गयी तो दक्षिणाग्नि के लिए एक अर्धवृत्त कुण्ड भी बनाया जाता था। पश्चात् अध्वर्यु घर्षण द्वारा अथवा ग्राम से संग्रह कर गार्हपत्य अग्नि स्थापित करता था। सन्ध्याकाल में वह दो लकड़ियाँ जिन्हें अरणी कहते हैं, यज्ञकर्ता एवं उसकी स्त्री को देता था, जिससे घर्षण द्वारा वे दूसरे प्रातःकाल आह्वनीय अग्नि उत्पन्न करते थे।
आहार
हिन्दू धर्म में आहार की शुद्धि-अशुद्धि का विस्तृत विचार किया गया है। इसका सिद्धान्त यह है कि आहारशुद्ध से सत्त्वशुद्धि होती है और सत्त्वशुद्धि से बुद्धि शुद्ध होती है। शुद्ध बुद्धि से ही सद् विचार और धर्म में रुचि उत्पन्न हो सकती है। आहार दो प्रकार का होता है --(1) हित और (2) अहित। सुश्रुत के अनुसार हित आहार का गुण है :
[आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसाल, स्निग्ध, स्थिर और प्रिय लगने वाले भोजन सात्विक लोगों को प्रिय होते हैं। कटु, अम्ल (खट्टा), लवण (नमकीन), अति उष्ण, तीक्ष्ण, रूक्ष, दाह करने वाले तथा दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने वाले भोजन राजस व्यक्ति को इष्ट होते हैं। एक याम से पड़े हुए, नीरस, सड़े, बासी, उच्छिष्ट (जूठे) और अमेध्य (अपवित्र=मछली, मांस आदि) आहार तामसी व्यक्ति को अच्छे लगते हैं।] इसलिए साधक को सात्विक आहार ही ग्रहण करना चाहिए।
आहिताग्नि
जो गृहस्थ विधिपूर्वक अग्नि स्थापित कर नियमपूर्वक नित्य हवन करता है उसे 'आहिताग्नि' कहा जाता है। इसका एक पर्याय 'अग्निहोत्री' है।
आहुति
यज्ञकुण्ड में देवता के उद्देश्य से जो हवि का प्रक्षेप किया जाता है उसे 'आहुति' कहते हैं। आहुति द्रव्य को 'मृगी मुद्रा' (शिशु के मुख में कौर देने की अँगुलियों के आकार) से अग्नि में डालना चालना चाहिए।
आह्निक
(1) नित्य किया जाने वाला धार्मिक क्रियासमूह। धर्मशास्त्र ग्रन्थों में दैनिक धार्मिक कर्मों का पूरा विवरण पाया जाता है। रघुनन्दन भट्टाचार्यकृत 'आह्निकाचार तत्त्व' में दिन-रात के आठों यामों के कर्तव्यों का वर्णन मिलता है।
(2) कुछ प्राचीन ग्रन्थों के प्रकरणसमूह को भी, जिसका अध्ययन दिन भर में हो सके, आह्निक कहते हैं।
इ
स्वर वर्ण का तृतीय अक्षर। कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक मूल्य निम्नांकित है :
इकारं परमानन्दं सुगन्धकुसुमच्छविम्। हरिब्रह्ममयं वर्ण सदा रुद्रयुतं प्रिये।। सदा शक्तिमयं देवि गुरुब्रह्ममयं तथा। सदा शिवमयं वर्णं परं ब्रह्मसमन्वितम्।। हरिब्रह्मात्मकं वर्ण गुणत्रयसमन्वितम्। इकारं परमेशानि स्वयं कुण्डली मूर्तिमान्।।
[हे प्रिये! इकार ('इ' अक्षर) परम आनन्द की सुगन्धि वाले पुष्प की शोभा धारण करने वाला है। यह वर्ण हरि तथा ब्रह्ममय है। सदा रुद्र से संयुक्त रहता है। सदा शक्तिमान तथा गुरु और ब्रह्ममय है। सदा शिवमय है। परम तत्त्व है। ब्रह्म से समन्वित। हरि-ब्रह्मात्मक है और तीनों गुणों से समन्वित है।] वर्णाभिधानतन्त्र में इसके निम्नलिखित नाम हैं :