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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आयुर्व्रत
(1) इस व्रत में एक वर्ष तक शम्भु तथा केशव (विष्णु) का चन्दन से लेपन करना चाहिए। व्रत के अन्त में जलपूर्ण कलश तथा गौ का दान विहित है। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड, 442।
(2) पूर्णिमा के दिन भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मी का पूजन, उपवास, कुछ उपहार ब्राह्मण तथा सद्यः विवाहित स्त्रियों को देना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.225-229 (गरुड पुराण से)।

आयुःसंक्रान्तिव्रत
इस व्रत में संक्रान्ति के दिन सूर्य का पूजन, काँसे के पात्र, दूध, घी तथा सुवर्ण का दान विहित है। इसका उद्यापन धान्य संक्रान्ति के समान होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.767; व्रतार्क, पृ० 389।

आरणीय विधि
तैत्तरीय ब्राह्मण का शेषांश तैत्तरीय आरण्यक है। इसमें दस काण्ड हैं। काठक में बतायी हुई 'आरणीय विधि' का भी इस ग्रन्थ में विचार हुआ है। इसके पहले और तीसरे प्रपाठक में यज्ञाग्नि स्थापन के नियम लिखे हैं। दूसरे प्रपाठक में स्वाध्याय के नियम हैं। चौथे, पाँचवें और छठे में दर्श-पूर्णमासादि और पितृमेधादि विषयों पर विचार है।

आरण्यक
ब्राह्मणों और उपनिषदों का मध्यवर्ती साहित्य आरण्यक है, अतः यह श्रृति का ही एक भाग है। कहा जा सकता है कि आरण्यक ब्राह्मणों की ही भाषा और शैली में लिखे गये उनके पूरक हैं। इनके अध्यायों का प्रारम्भ ब्राह्मणों जैसा ही है, किन्तु सामग्री में सामान्य अन्तर दिखाई पड़ता है, जो क्रमशः रहस्यात्मक दृष्टान्तों या रूपकों के माध्यम से दार्शनिक चिन्तन में बदल गया है। साधारणतः धार्मिक क्रियाकलापों एवं रुपक वाले भाग को ही आरण्यक कहते हैं, एवं दार्शनिक भाग उपनिषद् कहलाता है। इन आरण्यक ग्रन्थों के भाग धार्मिक क्रियाओं का वर्णन करते हैं तथा यत्र-तत्र उनकी रहस्यपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार ये ब्राह्मणशिक्षाओं से अभिन्न दिखाई पड़ते हैं। किन्तु कुछ अध्यायों में कुछ कड़े नियमों की स्थापना हुई, जिसके अनुसार कुछ क्रियाओं को गुप्त रखने की आज्ञा है और उन्‍हें कुछ विशेष पुरूषों के निमित्‍त ही करने योग्‍य बतलाया गया है। ऐसे रहस्यात्मक स्थल उपनिषदों में भी दृष्टिगोचर होते हैं। इसके साथ ही कुछ ऐसे अध्याय हैं जिनमें केवल क्रियाओं के रूपक ही दिये गये हैं, पर वे धार्मिक क्रियाओं के सम्पादनार्थ नहीं, किन्तु ध्यान करने के लिए दिये गये हैं। इनमें से किसी भी रुपकात्मक अथवा याज्ञिक अध्याय में पुनर्जन्म अथवा कर्मवाद की शिक्षा नहीं है।
आरण्यकों का अध्ययन अरण्य (वन) में ही करना चाहिए। किन्तु वे कौन थे जो उनका अध्ययन करते थे? ब्राह्मणों के निर्माण-काल में ही विरक्त यति, मुनियों का एक सम्प्रदाय प्रकट हुआ, जो सांसारिकता का त्याग कर चुका था और जिसने अपने जीवन को धार्मिक लक्ष्य की ओर लगा दिया था। उनके अभ्यासों के तीन प्रकार थे : (1) तपस्या, (2) यज्ञ और (3) ध्यान। किन्तु नियम विभिन्न थे, इसलिए अभ्यासों में विभिन्नता थी। कुछ लोगों ने यज्ञों को एकदम छोड़ दिया। बड़े एवं विस्तृत यज्ञ वैसे भी असम्भव होते थे। ऊपर जो कुछ अरण्यवासी साधुओं के सम्बन्ध में कहा गया है, उसका बड़ा ही सजीव वर्णन रामायण में उपस्थित है। जब विद्यार्थी अपनी शिक्षा समाप्त कर लेता तो उसके लिए तीन मार्ग हुआ करते थे, अपने गुरु के साथ आजन्म रहना, गृहस्थ बनना और अरण्यवासी साधु बनना। ऐसे साधु का प्रारम्भिक नाम 'वैखानस' था किन्तु बाद में वानप्रस्थ (वनवासी) का प्रयोग होने लगा।
सायणाचार्य का कहना है कि आरण्य साधुओं का पाठ्य 'ब्राह्मण ग्रन्थ' था। इस मत का डायसन ने समर्थन किया है। आरण्यक के विषयों के विभिन्न अध्यायों-- धार्मिक क्रियाओं की रस्यात्मक व्याख्या, दृष्टान्त, आन्तरिकयज्ञ आदि का वनवासी साधुओं के विभिन्न प्रकार के अभ्यासों से मेल भी खाता है। किन्तु ओल्डेनवर्ग एवं वेरिडेल कीथ का कथन है कि आरण्यक वे रहस्यात्मक ग्रन्थ हैं, जिनका अध्ययन एकांत में ही हो सकता है। प्रो० कीथ का कथन है कि ब्राह्मणों की तरह आरण्यक भी पुरोहितों को पढ़ाया जाता था। दोनों में अन्तर केवल रहस्यों का था, जो आरण्‍यकग्रन्थों में है। आरण्यकों में वे ही अध्यय महत्त्वपूर्ण हैं जो अपने रूपक, रहस्य, ध्यान आदि पर जोर डालने के कारण ब्राह्मणों से तथा दार्शनिक उपनिषदों से भिन्न हैं। मुख्य आरण्यक ग्रन्थ निम्नांकित हैं :
ऋग्वेद के आरण्यक-- (1) ऐतरेय आरण्यक-- इसके पाँच ग्रन्थ पाये जाते हैं। दूसरे और तीसरे आरण्यक स्वतन्त्र उपनिषद् हैं। दूसरे के उत्तराद्ध के शेष चार परिच्छेदों में वेदान्त का प्रतिपादन है। इसलिए उनका नाम ऐतरेय उपनिषद् है। चौथे आरण्यक का संकलन शौनक के शिष्य आश्वलायन ने किया है।
(2) कौषीतकि आरण्यक-- इसके तीन खण्ड हैं। प्रथम दो खण्ड कर्मकाण्ड से भरे हैं। तीसरा खण्ड कौषीतकि उपनिषद् कहलाता है। यह बहुत सारगर्भित है। आनन्दधाम में प्रवेश करने की विधि इसमें प्रतिपादित है।
यजुर्वेद के आरण्यक-- (1). तैत्तिरीय आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद का है। इस आरण्यक में दस काण्ड हैं। आरणीय विधि का इसमें प्रतिपादन हुआ है।
2. बृहदारण्यक शुक्लयजुर्वेद का है।
सामवेद का आरण्यक-- 1. छान्दोग्य आरण्यक। यह आरण्यक छः प्रपाठकों में विभाजित है। यह आरण्यक आरण्यगान भी कहलाता है। (कॉवेल, कीथ, विंटरनित्ज)

आरण्यगान
जिस प्रकार आरण्यकों के पढ़ने अथवा अध्ययन के लिए वन में निवास किया जाता था, उसी प्रकार सामवेद के 'आरण्यगान' के लिए भी विधान था, अर्थात् उसे भी अरण्य (वन) में ही गाया जाता था।

आरम्भवाद
जगत् अथवा सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में वैशेषिकों तथा नैयायिकों का मत है कि ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न करता है। इसी सिद्धान्त को आरम्भवाद कहते हैं। नित्य परमाणु एक दूसरे से विभिन्न प्रकार से मिलकर जगत् के अनन्त पदार्थों की रचना (आरम्भ) करते हैं। यह एक प्रकार का सर्जनात्मक विकासवाद है।

आराध्य ब्राह्मण
आराध्य ब्राह्मण' अर्ध-लिङ्गायतें की दो शाखाओं में से एक है। इन अर्ध-लिङ्गायतों में लिङ्गायत-प्रथाएँ अपूर्ण एवं जातिभेद का भाव संकीर्ण है। आराध्य ब्राह्मण विशेषकर कर्णाटक एवं तैलंग प्रदेश में पाये जाते हैं। ये अर्ध परिवर्तित स्मार्त हैं जो पवित्र यज्ञोपवीत एवं शिवलिङ्ग धारण करते हैं। अपनी व्यक्तिगत पूजा में वे लिङ्गायत हैं, किन्तु स्मार्तों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध करते हैं। उनके लिए कोई स्मार्त व्यक्ति वैवाहिक उत्सव सम्पन्न करता है, किन्तु वे दूसरे लिङ्गायतों के घर भोजन नहीं करते।
दूसरा अर्ध-लिङ्गायत दल जातिबहिष्कृत है, जिसके लिए कोई भी जङ्गम संस्कारोत्सव नहीं करता और वे किसी भी अर्थ में लिङ्गायत समाज में प्रवेश नहीं पा सकते।

आरुणि
यह एक पितृपरक नाम है। अरुण औपवेशि के पुत्र उद्दालक के अर्थ में यह व्यवहृत होता है। आरुणि यशस्वी से भी उद्दालक का बोध होता है, जो जैमिनीय ब्राह्मण (2।80) में सुब्रह्मण्या के आचार्य हैं। आरुणि का प्रयोग जैमिनीय उपनिषद्, ब्राह्मण, काठक संहिता एवं ऐतरेय आरण्यक में भी हुआ है।

आरुणेयोपनिषद्
निवृत्तिमार्गी उपनिषदों में इसकी गणना की जाती है।

आरोग्यद्वितीया
पौष शुक्ल द्वितीया को अथवा शुक्ल पक्ष की प्रत्येक द्वितीया को उदयकालीन चन्द्र के पूजन का विधान है। चन्द्रमा का पूजन करने के पश्चात् वस्त्रों का जोड़ा, सुवर्ण तथा एक तरल पदार्थ से भरा हुआ कलश दान करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.389-91 (विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 2.58 से उद्धृत)।


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