न्यायदर्शन में वर्णित चौथा प्रमाण। न्यायसूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात् 'आप्त पुरुष का वाक्य' शब्द प्रमाण माना जाता है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का लक्षण बतलाया है कि जो 'साक्षात्कृतधर्मा' हो अर्थात् जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किये हैं-- 'दृष्टार्थ' एवं 'अदृष्टार्थ'। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बताने वाला 'दृष्टार्थ' एवं केवल अनुमान से जानने योग्य बातों को (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्म इत्यादि को) बताने वाला 'अदृष्टार्थ' कहलाता है। इस पर वात्सस्यायन ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक वचन और ऋषि वचन या वेदवाक्य का विभाग हो जाता है। अदृष्टार्थ में केवल वेदवाक्य ही प्रमाण माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है। इससे उसके वाक्य सत्य और विश्वसनीय हैं। पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं, जब उनका वक्ता प्रामाणिक मान लिया जाय।
आबू (अर्बुद)
प्रसिद्ध पर्वत तथा तीर्थस्थान, जो राजस्थान के सिरोही क्षेत्र में स्थित है। यह मैदान के बीच में द्वीप की तरह उठा हुआ है। इसका संस्कृत रूप अर्बुद है जिसका अर्थ फोड़ा या सर्प भी है। इसे हिमालय का पुत्र कहा गया है। यहाँ वसिष्ठ का आश्रम था और राजा अम्बरीष ने भी तपस्या की थी। इसका मुख्य तीर्थ गुरुशिखर 5653 फुट ऊँचा है। यहाँ एक गुहा में दत्तात्रेय औऱ गणेश की मूर्तियाँ और पास में अचलेश्वर (शिव) का मन्दिर भी है। यहाँ शक्ति की पूजा अधरादेवी तथा अर्बदमाता के रूप में होती है। यह प्रसिद्ध जैन तीर्थ भी है और देलवाड़ा में जैनियों के बहुत सुन्दर कलात्मक मन्दिर बने हुए हैं।
आभास
कश्मीरी शैव मत का एक सिद्धान्त। कश्मीरी शैवों की साहित्यिक परम्परा में सोमानन्द कृत 'शिवदृष्टि' ग्रन्थ शैव मत के दार्शनिक विचारों को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करता है। यह एकेश्वरवाद को मानता है एवं इसके अनुसार मोक्ष मनुष्य को सतत प्रत्यभिज्ञा (मनुष्य का शिव के साथ तादात्म्य भाव) के अनुशासन से प्राप्त हो सकता है। यहाँ सृष्टि को केवल माया नहीं, अपितु शिव का शक्ति के माध्यम से व्यक्तीकरण माना गया है। सम्पूर्ण सृष्टि शिव का 'आभास' (प्रकाश) है। आभास का शाब्दिक अर्थ है 'सम्यक् प्रकार से भासित होना'। यह एक प्रकार की विश्व-मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा परम शिव (अन्तिम तत्त्व) विश्व के विविध रूपों में भासित होता है।
आमर्दकीव्रत
किसी मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी, विशेष रूप से फाल्गुन मास की, आमर्दकी अथवा धात्री (आँवला फल अथवा हर्र) कहलाती है। विभिन्न नक्षत्रों से युक्त द्वादशी के विभिन्न नाम ये हैं। जैसे विजया (श्रवण नक्षत्र के साथ), जयन्ती (रोहिणी के साथ), पाप नाशिनी, (पुण्य नक्षत्र के साथ)। अन्तिम द्वादशी के दिन उपवास करने से एक सहस्र एकादशियों का पुण्य प्राप्त होता है। विष्णु की पूजा करते हुए व्रती को आमलक वृक्ष के नीचे जागरण करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 1, 214-222।
आमेर (अम्बानगर)
राजस्थान का एक प्रसिद्ध शाक्त पीठ। यह जयपुर से 5 मील दूर है जो इस राज्य की प्राचीन राजधानी थी। यहाँ काली का एक प्रसिद्ध मन्दिर है। एक अन्य पहाड़ी पर गलता (झरना) टीला है, जिसकों लोग गालव ऋषि की तपोभूमि मानते हैं। टीले के ऊपर सात कुण्ड हैं। इनके पास ही शंकरजी का मन्दिर है। झरनों से बराबर जल प्रवाहित होता रहता है जिसमें यात्री स्नान करके अपने को पुण्य का भागी समझते हैं।
आभ्रपुष्पभक्षण
इस व्रत का सम्बन्ध कामदेव-पूजन से है। आम्रमञ्जरी कामदेव का प्रतीक है, क्योंकि इसकी मदगन्ध काम को उद्दीप्त करती है। कामदेव की तुष्टि के लिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को आम्र मञ्जरियों को खाना चाहिए। दे०स्मृतिकौस्तुभ, 519; वर्षकृत्यकौमुदी, 516-517।
आयतन
छान्दोग्य उपनिषद् (7.24.2) में यह निवास स्थान के अर्थ में केवल एक स्थान पर आया है। किन्तु काव्यों में इसे पवित्र स्थान, विशेष कर मन्दिर माना गया है, जैसे देवायतन, शिवायतन आदि।
विष्णु भगवान् को मङ्गल का आयतन माना गया है :
मङ्गलं भगवान् विष्णुः मङ्गलं गरुडध्वजः। मङ्गलं पुण्डरीकाक्षः मङ्गलायतनं हरिः।।
आयन्त दीक्षित
आयन्त दीक्षित वेङ्कटेश के शिष्य थे। इन्होंने 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' नामक एक अद्भुत ग्रन्थ की रचना की थी। वेङ्कटेश सदाशिवेन्द्र सरस्वती के समकालीन थे, उन्होंने 'अक्षयषष्टि' और 'दायशतक' नामक दो ग्रंथ रचे हैं। उनके शिष्य होने के कारण आयन्त दीक्षित का जीवन काल भी अठारहवीं शताब्दी ही सिद्ध होता है। 'व्यासतात्पर्यनिर्णय' में आयन्त दीक्षित ने व्यास के वेदान्तसूत्रों को अद्वैतवदी माना है। अद्वैत सिद्धांतप्रेमियों के लिए यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
आयुर्वेद
परम्परा के अनुसार आयुर्वेद एक उपवेद है तथा धर्म और दर्शन से इसका अभिन्न सम्बन्ध है। चरणव्यूह के अनुसार यह ऋग्वेद का उपवेद है परन्तु सुश्रुतादि आयुर्वेद ग्रन्थों के अनुसार यह अथर्ववेद का उपवेद है। सुश्रुत के मत से `जिसमें या जिसके द्वारा आयु प्राप्त हो, आयु जानी जाय उसको आयुर्वेद कहते हैं।` भावमिश्र ने भी ऐसा ही लिखा है। चरक में लिखा है-- `यदि कोई पूछने वाला प्रश्न करे कि ऋक्, साम, यजु, अथर्व इन चारों वेदों में किस वेद का अवलम्ब लेकर आयुर्वेद के विद्वान् उपदेश करते हैं, तो उनसे चिकित्सक चारों में अथर्ववेद के प्रति अधिक भक्ति प्रकट करेगा। क्योंकि स्वस्त्ययन, बलि, मङ्गल, होम, नियम, प्रायश्चित, उपवास और मन्त्रादि अथर्ववेद से लेकर ही वे चिकित्सा का उपदेश करते हैं।`
सुश्रुत में लिखा है कि ब्रह्मा ने पहला-पहल एक लाख श्लोकों का 'आयुर्वेद शास्त्र' बनाया, जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उनसे प्रजापति ने पढ़ा। प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने, इन्द्रदेव से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम तन्त्र रखा। ये आठ भाग निम्नांकित हैं : (1) शल्य तन्त्र, (2) शालाक्य तन्त्र, (3) काय चिकित्सा तन्त्र, (4) भूत विद्या तन्त्र, (5) कौमारभृत्य तन्त्र, (6) अगद तन्त्र, (7) रसायन तन्त्र और (8) वाजीकरण तन्त्र।
इस अष्टाङ्ग आयुर्वेद के अन्तर्गत देहतत्त्व, शरीरविज्ञान, शस्त्रविद्या, भेषज और द्रव्य गुण तत्त्व, चिकित्सा तत्त्व औऱ धात्री विद्या भी है। इसके अतिरिक्त उसमें सदृश चिकित्सा (होम्योपैथी), विरोधी चिकित्सा (एलोपैथी) और जलचिकित्सा (हाइड्रो पैथी) आदि आजकल के अभिनव चिकित्साप्रणालियों के विधान भी पाये जाते हैं।
आयुधव्रत
इस व्रत में श्रावण से चार मासपर्यन्त शङ्क, चक्र, गदा और पद्म का पूजन करना चाहिए। ये आयुध वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध के प्रतीक हैं। दे० विष्णुधर्मोत्तर पुराण, 3.148, 1-6; हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.861।