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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आपस्तम्ब गृह्यसूत्र
गृह्यसूत्र कुल 14 हैं। ऋग्वेद के तीन, साम के तीन, शुक्ल यजुः का एक, कृष्ण यजुर्वेद के छः एवं आथर्वण का एक। गृहसूत्रों में आपस्तम्ब का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इसमें तथा अन्य गृह्यसूत्रों में मुख्यतः गृह्ययज्ञों का वर्णन है, जिन के नाम हैं--- (1) पितृयज्ञ, (2) पार्वणयज्ञ, (3) अष्टकायज्ञ, (4) श्रावणीयज्ञ, (5) आश्वयुजीयज्ञ, (6) आग्रहायणीयज्ञ और (7) चैत्रीयज्ञ। इनके अतिरिक्त पञ्चमहायज्ञों का भी वर्णन पाया जाता है--(1) ब्रह्मयज्ञ, (2) देवयज्ञ, (3) पितृयज्ञ, (4) अतिथियज्ञ और (5) भूतयज्ञ। इसमें सोलह गृह्य का भी विधान है। निम्नांकित मुख्य हैं :
1. गर्भाधान, 2. पुंसवन, 3.सीमन्तोन्नयन, 4. जातकर्म, 5.नामकरण, 6. निष्क्रमण, 7. अन्नप्राशन, 8.चौल, 9. उपनयन, 10. समावर्तन, 11. विवाह, 12. अन्त्येष्टि आदि।
आठ प्रकार के विवाहों --1. ब्राह्म, 2. दैव, 3. आर्ष, 4. प्राजापत्य, 5. आसुर, 6. गान्धर्व, 7. राक्षस और पैशाच-- का वर्णन भी इसमें पाया जाता है।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र
वैदिक संप्रदाय के धर्मसूत्र केवल पाँच उपलब्ध हैं : (1) आपस्तम्ब, (2) हिरण्यकेशी, (3) बौधायन, (4) गौतम और (5) वसिष्ठ। चरणव्यूह के अनुसार आपस्तम्ब कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के खाण्डिकीय वर्गीय पाँच उपविभागों में से एक है। यह सबसे प्राचीन धर्मसूत्र है। यह दो प्रश्नों, आठ पटलों और तेईस खण्डों में विभक्त है।

आपद्धर्म
सभी वर्णों तथा आश्रमों के धर्म वृत्ति तथा अवस्था भेद से स्मृतियों में वर्णित हैं। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जब अपने वर्ण और आश्रम के कर्तव्यों का पालन संभव नहीं होता तो धर्मशास्त्र में उनके विकल्प बताये गये हैं। शास्त्रों से विहित होने के कारण इनका पालन भी धर्म ही है। उदाहरण के लिए, यदि ब्राह्मण अपने वर्ण के विशिष्ट कर्तव्यों (पाठन, याजन और प्रतिग्रह) से निर्वाहि नहीं कर सकता तो वह क्षत्रिय अथवा वैश्य के विशिष्ट कर्तव्यों (शस्त्र, कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य) को अपना सकता है। किन्तु इन कर्तव्यों में भी ब्राह्मण के लिए सीमा बाँध दी गयी है कि संकटकालीन स्थिति बीत जाने पर आपद्धर्म का त्याग कर उसे अपने वर्णधर्म का पालन करना चाहिए।

आपद्धर्मपर्वाध्याय
महाभारत के 18 पर्व हैं और इन पर्वों के अवान्तर भी 100 छोटे पर्व हैं, जिन्हें पर्वाध्याय कहते हैं। ऐसे ही छोटे पर्वों में से आपद्धर्म भी एक है। इसकी विषयसूची इस प्रकार है :
राजर्षि वृत्तान्त कीर्तन। कायव्य-दस्यु संवाद। नकुलो-पाख्यान। मार्जार-मूषिक संवाद। ब्रह्मदत्त-पूजनीसंवाद। कणिक उपदेश। विश्वामित्र-निषाददसंवाद। कपोत-लुब्धकसंवाद। भार्याप्रशंसा कीर्तन। इन्द्रोत-परीक्षित-संवाद। गृध्र-गोमायुसंवाद। पवन-शाल्मलिसंवाद। आत्मज्ञान कीर्तन। दम गुणवर्णन। तपः कीर्तन। सत्य कथन। लोभोपाख्यान। नृशंसप्रायश्चित्तकथन। खङ्गोत्पत्ति कीर्तन। षड्जगीता। कृतघ्‍नोपाख्यान।

आपस्तम्ब यजुःसंहिता
कृष्ण यजुर्वेद के एक सम्प्रदाय ग्रन्थ का नाम 'आपस्तम्ब यजुःसंहिता' है। इसमें सात अष्टक हैं। इन अष्टकों में 44 प्रश्न हैं। इन 44 प्रश्नों में 651 अनुवाक् हैं। प्रत्येक अनुवाक् में दो सहस्र एक सौ अट्ठानवे कण्डिकाएँ हैं। साधारणतः एक कण्डिका में 50-50 शब्द हैं।

आपस्तम्ब शुल्वसूत्र
कल्पसूत्रों की परम्परा में शुल्वसूत्र भी आते हैं। शुल्वसूत्रों की भूमिका 1975 ई० में थिबो द्वारा लिखी गयी थी (जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल)। शुल्वसूत्र दो हैं : पहला बौधायन एवं दूसरा आपस्तम्ब। जर्मन में इसका अनुवाद श्री बर्क ने प्रस्तुत किया था। शुल्वसूत्रों का सम्बन्ध श्रौत यज्ञों से है। शुल्व का अर्थ है मापने का तागा या डोरा। यज्ञवेदिकाओं के निर्माण में इसका काम पड़ता था। यज्ञस्थल, उसके विस्तार, आकार आदि का निर्धारण शुल्वसूत्रों के अनुसार होता था। भारतीय ज्यामिति के ये प्राचीन आदिम ग्रन्थ माने जाते हैं।

आपस्तम्ब श्रौतसूत्र
श्रौतसूत्र अनेक आचार्यों ने प्रस्तुत किये हैं। इनकी संख्या 13 है। कृष्ण यजुर्वेद के छः श्रौत सूत्र हैं, जिनमें से 'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र' भी एक है। इस का जर्मन अनुवाद गार्वे द्वारा 1878 में और कैलेंड द्वारा 1910 ई० में हुआ। श्रौतसूत्रों की याज्ञिक क्रियाओं पर हिल्लेब्रैण्ट ने विस्तृत ग्रन्थ लिखा है।
वैदिक संहिताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों में जिन यज्ञों का वर्णन है उनको श्रौतसूत्रों में पद्धतिबद्ध किया गया है। वैदिक हवि तथा सोम यज्ञ सम्बन्धी धार्मिक अनुष्ठानों का इसमें प्रतिपादन है। श्रुतिप्रतिपादित चौदह यज्ञों का इसमें विधान है। दे० 'श्रौतसूत्र'।

आपस्तम्बस्मृति
अवश्य ही यह परवर्ती स्मृतियों में से है। आपस्तम्बधर्मसूत्र से इसकी विषयसूची बहुत भिन्न है।

आपस्तम्बीय मण्डनकारिका
मीमांसा शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। सुरेश्वराचार्य अथवा मण्डन मिश्र ने, जो पाण्डित्य के अगाध सागर थे और जिन्हें शाङ्करमत के आचार्यों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है, अपने संन्यास ग्रहण करने के पूर्व 'आपस्तम्बीय मण्डनकारिका' की रचना की थी।

आपिशलि
एक प्रसिद्ध प्राचीन व्याकरणाचार्य। इनका नाम पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों में (वा सुप्यापिशलेः। 6.1.92) आया है।


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