इस व्रत में चैत्र मास से चार मासपर्यन्त बिना किसी के याचना करने पर भी जल का वितरण किया जाता है। व्रत के अन्त में जल से पूर्ण कलश, भोज्य पदार्थ, वस्त्र, एक अन्य पात्र में तिल तथा सुवर्ण का दान विहित है। दे० कृत्यकल्परु, व्रत काण्ड, 443 हेमाद्रि, व्रत खण्ड 1, पृष्ठ 742-43।
आनन्दसफल सप्तमी
यह व्रत भाद्र शुक्ल सप्तमी के दिन प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त इस तिथि को उपवास विहित है। दे० भविष्य पुराण, 1.110, 1-8; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 148-149। कुछ हस्तलिखित ग्रन्थों में इसे 'अनन्त फल' कहा गया है।
आनन्दाधिकरण
वल्लभाचार्य रचित सोलहवीं शताब्दी का एक ग्रन्थ इसमें पुष्टिमार्गीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।
आन्दोलक महोत्सव
वसन्त ऋतु में यह महोत्सव मनाया जाता है। दे० भविष्योत्तर पुराण, 133-24। इसमें दोला (झूला), संगीत और रंग आदि का विशेष आयोजन रहता है।
आन्दोलन व्रत
इस व्रत में चैत्र शुक्ल तृतीया को शिवपार्वती का प्रतिमाओं का पूजन तथा एख पालने में उनको झुलना होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.745--748, जिसमें ऋग्वेद, दशम मण्डल के इक्यासीवें सूक्त के तीसरे मन्त्र का उल्लेख है : 'विश्वतश्चक्षुरुत।'
आन्ध्र ब्राह्मण
देशविभाग के अनुसार ब्राह्मणों के दो बड़े वर्ग हैं-- पञ्चगौड और पञ्चद्रविड। नर्मदा के दक्षिण के ब्राह्मण आन्ध्र, द्रविड, कर्णाटक, महाराष्ट्र और गुर्जर हैं। इन्हें पञ्चद्रविड कहा गया है और उधर के ब्राह्मण इन्हीं पाँच नामों से प्रसिद्ध हैं। आन्ध्र या तैलङ्ग में तिलघानियन, वेल्लनाटी, वेगिनाटी, मुर्किनाटी, कासलनाटी, करनकम्मा, नियोगी और प्रथमशाखी ये आठ विभाग हैं। दे० 'पञ्च द्रविड।'
आन्वीक्षिकी
सामान्यतः इसका अर्थ तर्क शास्त्र अथवा दर्शन है। इसीलिए इसका न्याय शास्त्र से गहरा सम्बन्ध है। 'आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', 'हेतुवाद' का निन्दापूर्वक उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। अर्थशास्त्र में उल्लिखित चार प्रकार की विद्याओं (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति) में से 'आन्वीक्षिकी' महत्त्वपूर्ण विद्या मानी गयी है, जिसकी शिक्षा प्रत्येक राजकुमार को दी जानी चाहिए। उसमें, (2.1.13) इसकी उपयोगिता निम्नलिखित बतलायी गयी है :
[आन्वीक्षिका सदा सभी विद्याओं का प्रदीप, सभी कर्मों का उपाय और सभी धर्मों का आश्रय मानी गयी है।] इस प्रकार आन्वीक्षिकी विद्या त्रयी, वार्ता दण्डनीति आदि विद्याओं के बलाबल को युक्तियों से निर्धारित करती हुई संसार का उपकार करती है, विपत्ति और समृद्धि में कुशलता उत्पन्न करती है।
आपः
ऋग्वेद के (7.47.49;10.9,30) जैसे मन्त्रों में आपः (जलों) के विविध गुणों की अभिव्यक्ति हुई है। यहाँ आकाशीय जलों की स्तुति की गयी है, उनका स्थान सूर्य के पास है।
इन दिव्य जलों को स्त्रीरूप माना गया है। वे माता हैं, नवयुवती हैं, अथवा देवियाँ हैं। उनका सोमरस के साथ संयोग होने से इन्द्र का पेय प्रस्तुत होता है। वे धनवान् हैं, धन देनेवाली हैं, वरदानों की स्वामिनी हैं तथा घी, दूध एवं मधु लाती हैं।'
इन गुणों को हम इस प्रकार मानते हैं कि जल पृथ्वी को उपजाऊ बनाता है, जिससे वह प्रभूत अन्न उत्पन्न करती है।
जल पालन करनेवाला, शक्ति देनेवाला एवं जीवन देनेवाला है। वह मनुष्यों को पेय देता है एवं इन्द्र को भी। वह ओषधियों का भी भाग है एवं इसी कारण रोगों से मुक्ति देनेवाला है।
आपदेव
सुप्रसिद्ध मीमांसक। उनका 'मीमांसान्यायप्रकाश' पूर्वमीमांसा का एक प्रामाणिक परिचायक ग्रन्थ है। मीमांसक होते हुए भी उन्होंने सदानन्दकृत वेदान्तसार पर 'बालबोधिनी' नाम की टीका लिखी है, जो नृसिंह सरस्वतीकृत 'सुबोधिनी' और रामतीर्थ कृत 'विद्वन्मनोरञ्जिनी' की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट समझी जाती है।
आपदेवी
आपदेव रचित 'मीमांसान्यायप्रकाश' को अधिकांश लोग 'आपदेवी' कहते हैं। इसकी रचना 16-30 ई. के लगभग हुई भी। यह अति सरल संस्कृत भाषा में है और इसका अध्ययन बहुत प्रचलित है।