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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

आदित्याभिमुख--विधि
प्रातःकालीन स्नानोपरान्त व्रतेच्छु को उदित सूर्य की ओर मुँह करके खड़ा होना चाहिए, तदुपरान्त जैसे जैसे सूर्य पश्चिमाभिमुख हो, वह भी उसके घूमने के साथ सूर्यास्तपर्यन्त स्वयं घूमता जाय। फिर एक स्तम्भ के सम्मुख महाश्वेता का जप करके गन्ध, पुष्प तथा अक्षत इत्यादि से सूर्य का पूजन कर दक्षिणा दे। सबके पश्चात् स्वयं भोजन ग्रहण करे।

आदिबदरी
(1) बदरीनाथजी की मूर्ति पहले तिब्बतीय क्षेत्र में थी। उस स्थान को आदि बदरी माना जाता है। वर्तमान बदरीनाथपुरी से माना घाटी होकर उस स्थान का रास्ता जाता है, जो बहुत ही कठिन है। कैलास जाने के लिए नीति घाटी से उसकी ओर जाते हैं। उस मार्ग से शिवचुलम् जाकर वहाँ से थुलिंगमठ (आदिबदरी) जा सकते हैं। यह स्थान अब भी बड़ा रमणीक है। तिब्बती उसे थुलिंगमठ कहते हैं। कहा जाता है कि वहाँ से उक्त मूर्ति को आदि शंकराचार्य ने वर्तमान पुरी में लाकर स्थापित किया था।
(2) कपालमोचन तीर्थ से 12 मील पर दूसरा आदि बदरी मन्दिर है। कहते हैं कि यहाँ दर्शन करना बदरीनाथदर्शन करने के बराबर है। पैदल का मार्ग है। यह मंदिर पर्वत पर है। यहाँ ठहरने की व्यवस्था नहीं है।
(3) श्यामसुन्दर ने भी गोपों को आदिबदरी नारायण के दर्शन कराये थे। वह स्थान ब्रजमंडल के कामवन क्षेत्र में है।

आदियामलतन्त्र
आगमतत्त्वविलास' में जो चौंसठ तन्त्रों की नामावली दी हुई है, उसमें आदियामल तन्त्र भी एक है।

आदि रामायण
(1) ऐसा प्रवाद है कि वाल्मीकि रामायण आदि रामायण नहीं है और आदि रामायण भगवान् शंकर का रचा हुआ बहुत बृहत् ग्रन्थ था, जो अब उपलब्ध नहीं है। इसका नाम महारामायण भी बतलाया जाता है। कहते हैं कि इसको स्वायम्भुव मन्वतर के पहले सतयुग में भगवान् शङ्कर ने पार्वती को सुनाया था।
(2) एक दूसरा आदि रामायण उपलब्ध हुआ है जो अवश्य ही परवर्ती है। अयोध्या के एक मठ से भुशुण्डि रामायण अथवा आदि रामायण प्राप्त हुआ है। इस पर कृष्णभक्ति के माधुर्य भाव का गहरा प्रभाव प्रतीत होता है।

आधिपत्यकाम
यह वाजपेय यज्ञ के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य है, जिसका उल्लेख आश्वलायन श्रौतसूत्र (9.9.1) में आता है। इसके अनुसार आधिपत्य की कामना रखने वाले नरेश को वाजपेय यज्ञ करना चाहिए।

आध्वर्यव
यज्ञक्रिया के मध्य किये जानेवाले यजुर्वेदानुसारी कर्म; यजुर्वेद। यज्ञ के चार पुरोहितों के लिए चार अलग अलग वेद हैं। ऋग्वेद होता के लिए, यजुर्वेद अध्वर्यु के लिए, सामवेद उदगाता के लिए एवं अथर्ववेद ब्रह्मा के लिए है। इसलिए यजुर्वेद को आध्वर्यव भी कहते हैं।

आनर्तीय
शांखायन सूत्र के एक व्याख्याकार। आनर्तीय (सौराष्ट्रदेशवासी) वरदपुत्र पण्डित ने शाङ्खायन सूत्र की जो टीका रची, उसमें से नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्याय का भाग लुप्त हो गया है।

आनन्तर्यव्रत
यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ होता है। फिर प्रत्येक मास के दोनों पक्षों की द्वितीया की रात्रि तथा तृतीया के दिन उपवास एक वर्ष तक करना होता है। भगवती उमा का प्रत्येक तृतीया को भिन्न-भिन्न नामों से पूजन विहित है। नैवेद्य भी परिवर्तित होते रहने चाहिए। व्रती को भिन्न-भिन्न भोज्य पदार्थों से व्रत की पारणा करनी चाहिए। यह व्रत स्त्रियोपयोगी है। इसका यह नाम इसलिए पड़ा कि यह कर्ता के लिए पुत्रों एवं निकटसम्बन्धियों का अन्तर (वियोग) नहीं होने देता। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 1.405--413।

आनन्द
आत्मा अथवा परमात्मा के अनिवार्य गुणों (सत् + चित्+आनन्द) में से एक। इसका शाब्दिक अर्थ है सम्यक् प्रकार से प्रसन्नता (आ +नन्द)। यह पूर्णता अथवा मोक्ष की अवस्था का द्योतक है। जिन कोषों में आत्मा वेष्टित होता है उनमें से एक 'आनन्दमय कोष' भी है, परन्तु पूर्ण आनन्द तो कोष से परे है।

आनन्दगिरि
शङ्कराचार्यकृत भाष्य ग्रन्थों के प्रसिद्ध टीकाकार। वेदान्तसूत्र के शाङ्कर भाष्य वाली इनकी टीका का नाम 'न्यायनिर्णय' है। भाष्य के भाव को हृदयङ्गम कराने में यह बहुत ही सहायक है। इनकी टीका में भामती, विवरण, कल्पतरु आदि टीकाओं की छाया दिखाई पड़ती है तथा इन्होंने स्वयं भी अन्य टीकाओं का आश्रय लेने की बात लिखी है। इन्होंने 'शङ्करदिग्विजय' नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना भी की, जो विद्यारण्य स्वामी के 'शङ्करदिग्विजय' के बाद लिखा गया। इससे सिद्ध होता है कि ये विद्यारण्य स्वामी के परवर्त्ती और अप्पय दीक्षित के पूर्ववर्त्ती थे, क्योंकि अप्पय दीक्षित ने 'सिद्धान्तलेश' में 'न्यायनिर्णय' टीका का उल्लेख किया है। विद्यारण्य स्वामी का काल चौदहवीं शताब्दी है और अप्पय दीक्षित का सोलहवीं या सत्रहवीं शताब्दी का पूर्व भाग है। आनन्दगिरि का काल पन्द्रहवीं शताब्दी है।
आनन्दगिरि का दूसरा नाम आनन्दज्ञान भी है। इनके पूर्वाश्रम और जीवन चरित्र के विषय में किसी प्रकार का परिचय नहीं मिलता। इन्होंने शङ्कराचार्यकृत उपनिषद्भाष्य, गीताभाष्य, शारीरकभाष्य और शतश्लोकी पर तथा सुरेश्वराचार्य कृत तैत्तिरीयोपनिषद्वार्तिक एवं बृहदारण्यकोपनिषद्वार्तिक पर भी टीकाएँ लिखी हैं।


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