एक प्राचीन नगरी, इसके अवशेष उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में पाये जाते हैं। ज्योतिषतत्व में कथन है : "केशव, आनर्तपुर, पाटलिपुत्र, अहिच्छत्रा पुरी, दिति, अदिति-इनका क्षौर के समय स्मरण करने से कल्याण होता है।" इससे इस पुरी का धार्मिक महत्त्व प्रकट है। दे० अहिच्छत्र।
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अहिर्बुध्न्य
निकटवर्ती आकाश का यह एक सर्प कहा गया है। ऋग्वेदोक्त देवता प्रकृति के विविध उपादानों के प्रतिरूप एवं उनके कार्यों के संचालक माने गये हैं। आकाशीय विद्युत एवं झंझावात के नियंत्रण के लिए एवं उनके प्रतीक स्वरूप जिन देवों की कल्पना की गयी है उनमें इन्द्र, त्रित आप्त्य, अपांनापात्, मातरिश्वा, अहिर्बुध्न्य, अज-एक-पाद, रुद्र एवं मरुतों का नाम आता है। विद्युत् के विविध नामों एवं झंझा के विविध वेशों का इन नामों के माध्यम से बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। विद्युत् जो आकाशीय गौओं की मुक्ति के लिए योद्धा का रूप धारण करती है उसे 'इन्द्र' कहते हैं। यहीं तृतीय या वायवीय अग्नि है, अतएव इसे 'त्रित आप्त्य' कहते हैं। आकाशीय जल से यह उत्पन्न होती है, अतएव इसे 'अपानपांत्' कहते हैं। यह मेघमाता से उत्पन्न हो पृथ्वी पर अग्नि लाती है, अतएव मातरिश्वा एवं पृथ्वी की ओर तेजी से चलने के समय इसका रूप सर्पाकार होता है इसलिए इसे अहिर्बुध्न्य कहते हैं।
अहिर्बुध्न्यस्नान
हेमाद्रि, व्रत खण्ड, पृष्ठ 654-655 (विष्णुधर्मोत्तर पुराण से उद्धृत) के अनुसार जिस दिन उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र हो, उस दिन दो कलशों के जल से स्नान किया जाय, जिसमें उदुम्बर (गूलर) वृक्ष की पत्तियाँ, पञ्च गव्य (गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोमूत्र तथा गोमय), कुश तथा घिसा हुआ चन्दन भी मिला हो। अहिर्बुध्न्य के पूजन के साथ सूर्य, वरुण, चन्द्र, रुद्र तथा विष्णु का पूजन भी विहित है। अहिर्बुध्न्य उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र का देवता है। इससे गोधन की वृद्धि तथा समृद्धि होती है। 'अहिर्बुध्न्य' ही इसका शुद्ध तथा पुरातन रूप है। ऋग्वेद की दस ऋचाओं में 'अहिर्बुध्न्य' शब्द (कदाचित् अग्नि या रुद्र) किसी देवता के लिए प्रयुक्त हुआ है। दे० ऋग्वेद 1.186; 2.31,6; 5.41,16; 6.49, 14; 6.50.14; 7.34.17; 7.34.13; 7.38.5 इत्यादि तथा निर्णयसिन्धु 10.44।
अहि-वृत्र
वृत्ररूपी सर्प। वृत्र इन्द्र का सबसे बड़ा शत्रु है तथा यह उन बादलों का प्रतिनिधि या प्रतीक है जो गरजते बहुत किन्तु बरसते कम हैं, या एकदम नहीं बरसते। वृत्र को 'नवन्तम् अहिम्' कहा गया है (ऋ० वे० 5.17.10)। उसकी माता 'दनु' है जो वर्षा के उन बादलों का नाम है जो कुछ ही बूँदें बरसाते हैं। ऋग्वेद (10.120.6) के अनुसार दनुगौ के सात पुत्र हैं जो अनावृष्टि के दानव कहलाते हैं और आकाश के विविध भागों में छाये रहते हैं। वृत्र आकाशीय जल को नष्ट करने वाला कहा गया है। इस प्रकार वृत्र झूठे बादल का रूप है जो पानी नहीं बरसाता। इन्द्र विद्युत् का रूप है जिसकी उपस्थिति के पश्चात् प्रभूत जलवृष्टि होती है। वृत्र को अहि भी कहते हैं, जैसा कि बाइबिल में शैतान को कहा गया है। यहाँ हम 'अहि-वृत्र' एवं 'अहि-र्बुध्न्य' की तुलना कर सकते हैं। दोनों का निवास आकाशीय सिन्धु में है। ऐसा जान पड़ता है कि दोनों एक ही समान हैं, केवल अन्तर यह है कि गहराई का साँप (अहि-र्बुध्न्य) इन्द्र का द्योतक है इसलिए देव है, किन्तु अवरोधक साँप (अहि-वृत्र) दानव है। अहि-वृत्र के पैर, हाथ, नाक नहीं हैं (ऋ० वे० 1. 32. 6-7; 3.30.8), किन्तु बादल, विद्युत् एवं माया जैसे आयुधों से युक्त वह भयंकर प्रतिद्वन्द्वी है। इन्द्र की सबसे बड़ी वीरता इसके वध एवं इस पर विजय प्राप्त करने में मानी गयी है। इन्द्र अपने वज्र से वृत्र द्वरा उपस्थित की गयी बाधा की दीवार चीरकर आकाशीय जल की धारा को उन्मुक्त कर देता है।
अहीन
अह: = एक या अनेक दिन तक होने वाला यज्ञ।
अहीना-आस्वस्थ्य
एक ऋषि, जिन्होंने सावित्र (तैत्तिरीय ब्राह्मण 3.10,.9.10) व्रत या क्रिया द्वारा अमरता प्राप्त की थी। नाम का पूर्वार्ध अहीना (अ+हीना) उपर्युक्त उपलब्धि का द्योतक है एवं उत्तरार्ध की तुलना अश्वत्थ से की जा सकती है।
आ
स्वर वर्णों का द्वितीय अक्षर कामधेनुतन्त्र में इसका तान्त्रिक महत्त्व निम्नांकित बतलाया गया है :
आकारं परमाश्चर्यं शङ्खज्योतिर्मयं प्रिये। ब्रह्म (विष्णु) मयं वर्ण तथा रुद्रमयं प्रिये।। पञ्चप्राणमयं वर्णं स्वयं परमकुण्डली।।
[हे प्रिये! आ अक्षर परम आश्चर्यमय है। यह शङ्ख के समान ज्योतिर्मय तथा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रमय है। यह पाँच प्राणों से संयुक्त तथा स्वयं परम कुण्डलिनी शक्ति है।] वर्णाभिधान तन्त्र में इसके अनेक नाम बतलाये गये हैं---
वैशेषिक दर्शन में नौ द्रव्य--पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन माने गये हैं। इनमें पाँचवाँ द्रव्य आकाश है, यह विभु अर्थात् सर्वव्यापी द्रव्य है और सब कालों में स्थित रहता है। इसका गुण शब्द है तथा यह उसका समवायी कारण है।
आकाशदीप
कार्तिक मास में घी अथवा तेल से भरा हुआ दीपक देवता को उद्देश्य करते हुए किसी मन्दिर अथवा चौरस्ते पर खम्भे के सहारे आकाश में जलाया जाता है। दे० अपरार्क, 370, 372; भोज का राजमार्त्तण्ड, पृष्ठ 330; निर्णयसिन्धु, 195।
आकाशमुखी
एक प्रकार के शैव साधु, जो गरदन को पीछे झुकाकर आकाश में दृष्टि तब तक केन्द्रित रखते हैं, जब तक मांसपेशियाँ सूख न जायँ। आकाश की ओर मुख करने की साधना के कारण ये साधु 'आकाशमुखी' कहलाते हैं।