मैं हूँ' ऐसी चेतना, मैं पने का अभिमान। ज्ञान की प्रक्रिया में 'जानने वाले' की स्थिति के लिए इसका प्रयोग होता है। अहंकार से जीवात्मा की तन्मयता को ही 'अहंता' कहा गया है।
अहं ब्रह्मास्मि
मैं ब्रह्म हूँ' यह उपनिषद् का महावाक्य है, जो सर्वप्रथम वृहदारण्यकोपनिषद् (1.4.10) में आया है। यह आत्मा तथा ब्रह्म के अभेद का द्योतक है।
अहङ्कार
चित्त का एक घटक योग। दर्शन के अनुसार मन, बुद्धि और अहङ्कार से चित्त बनता है। अहङ्कार के द्वारा अहं का ज्ञान किया जाता है। यह तीन प्रकार का कहा गया है -- (1) सात्त्विक, (2) राजस और (3) तामस। सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता और मन की उत्पत्ति हुई। राजस अहङ्कार से दस इन्द्रियाँ हुईं। तामस अहङ्कार से सूक्ष्म पञ्चभूत उत्पन्न हुए। वेदान्त के मत में यह अभिमानात्मक अन्तःकरण की वृत्ति है। अहं यह अभिमान शरीरादि विषयक मिथ्या ज्ञान कहा गया है।
व्यूह सिद्धान्त में विष्णु के चार रूपों में अनिरुद्ध को अहङ्कार कहा गया है। सांख्य दर्शन में दो मूल तत्त्व हैं जो बिल्कुल एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं---1. पुरुष (आत्मा) और 2. प्रकृति (मूल प्रकृति अथवा प्रधान)। प्रकृति तीन गुणों से युक्त है --तमस्, रजस् एवं सत्त्व। ये तीनों गुण प्रलय में संतुलित रूप में रहते हैं, किन्तु जब इनका सन्तुलन भंग होता है (पुरुष की उपस्थिति के कारण) तो प्रकृति से 'महान्' अथवा बुद्धि की उत्पत्ति होती है, जो सोचने वाला तत्त्व है और जिसमें 'सत्त्व' की मात्रा विशेष होती है। बुद्धि से 'अङ्कार' का जन्म होता है, जो 'व्यक्तिगत विचार' को जन्म देता है। अहङ्कार से मनस् एवं पाणच ज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। फिर पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है।
अहः (अहन्)
दिन, दिवस। इसके विभागों के भिन्न-भिन्न मत हैं--- उदाहरण के रूप में द्विधा, त्रिधा, चतुर्धा, पञ्चधा, अष्टधा अथवा पञ्चदशधा। दो तो मुख्य हैं : पूर्वाह्न तथा अपराह्न (मनुस्मृति, 3.278)। तीन विभाग भी प्रचलित हैं। चार भागों में भी विभाजन गोभिल गृह्यसूत्र में वर्णित है ---1. पूर्वाह्न (1 1/2 पहर), 2. मध्याह्न (एक पहर), 3. अपराह्न (तीसरे पहर के अन्त तक और इसके पश्चात्), 4. सायाह्न (दिन के अन्त तक)। दिवस का पञ्चधा विभाजन देखिए ऋग्वेद (76.3 युतायातं सङ्गवे प्रातराह्नो)। पाँच में से तीन नामों, यथा प्रातः, सङ्गव तथा मध्यन्दिन का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। दिवस का आठ भागों में विभाजन कौटिल्य (1.19), दक्षस्मृति (अध्याय 2) तथा कात्यायन ने किया है। कालिदास कृत विक्रमोर्वशीय (2.1) के प्रयोग से प्रतीत होता है कि उन्हें यह विभाजन ज्ञात था। दिवस तथा रात्रि के 15, 15 मुहूर्त होते हैं। देखिए बृहद्योगयात्रा, 4.2-4 (पन्द्रह मुहूर्तों के लिए)
भूमध्य रेखा को छोड़कर भिन्न-भिन्न ऋतुओं में भिन्न-भिन्न स्थानों में जैसे-जैसे रात्रि-दिवस घटते-बढ़ते हैं, वैसे-वैसे उन्हीं स्थानों पर मुहूर्त का काल भी घटता-बढ़ता है। इस प्रकार यदि दिन का विभाजन दो भागों में किया गया हो तब पूर्वाह्न अथवा प्रातःकाल 7½ मुहूर्त का होगा। यदि पाँच भागों में विभाजन किया गया हो तो प्रातः या पूर्वाह्न तीन मुहूर्त का ही होगा। माधव के कालनिर्णय (पृ० 112) में इस बात को बतलाया गया है कि दिन को पाँच भागों में विभाजित करना कई वैदिक ऋचाओं तथा स्मृतिग्रन्थों में विहित है, अतः यही विभाजन मुख्य है। यह विभाजन शास्त्रीय विधिवाचक तथा निषेधार्थक कृत्यों के लिए उल्लिखित है। दे० हेमाद्रि, चतुर्वर्ग-चिन्तामणि काल भाग, 325-329; वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० 18-19; कालतत्त्वविवेचन, पृ० 6, 367।
अहल्या
गौतम मुनि की भार्या, जो महासाध्वी थी। प्रातःकाल उसका स्मरण करने से महापातक दूर होना कहा गया है---
अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मन्दोदरी तथा। पञ्च कन्याः स्मरेन्नित्यं मापातकनाशनम्।।
[अहल्या, द्रौपदी, कुन्ती, तारा, मन्दोदरी इन पाँच कन्याओं (महिलाओं) का प्रातःकाल स्मरण करने से महापातक का नाश होता है।]
कृतयुग में इन्द्र ने गौतम मुनि का रूप धारण कर अहल्या के सतीत्व को नष्ट कर दिया। इसके बाद गौतम के शाप से वह पत्नी शिला हो गयी। त्रेतायुग में श्री रामचन्द्र के चरण स्पर्श से शापविमुक्त होकर पुनः पहले के समान उसने मानुषी रूप धारण किया। दे० वाल्मीकिरामायण, बालकाण्ड।
अहल्या मैत्रेयी
व्यावहारिक रूप में यह एक रहस्यात्मक संज्ञा है, जिसका उद्धरण अनेक ब्राह्मणों (शतपथ ब्राह्मण, 3.3,4,18, जैमिनीय ब्रा०, 2.79, ,षड्विंश ब्रा०, 1.1) में पाया जाता है। यह उद्धरण इन्द्र की गुणावलि में से, जिसमें इन्द्र को अहल्याप्रेमी (अहल्यायै जार) कहा गया है, लिया गया है।
अहिंसा
सभी सजीव प्राणियों को मनसा, वाचा, कर्मणा दुःख न पहुँचाने का भारतीय सिद्धान्त। इसका सर्वप्रथम प्रतिपादन छान्दोग्य उपनिषद् (3.17) में हुआ है एवं अहिंसा को यज्ञ के एक भाग के समकक्ष कहा गया है। वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र दया और दान देव और मानव दोनों के विशेष गुण बतलाये गये हैं। जैन धर्म ने अहिंसा को अपना प्रमुख सिद्धान्त बनाया। पञ्च महाव्रतों; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्र्मचर्य तथा अपरिग्रह में इसको प्रथम स्थान दिया गया। योगदर्शन के पञ्च यमों में भी अहिंसा को प्रमुख स्था दिया गया है :
तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।'
यह सिद्धान्त सभी भारतीय सम्प्रदायों में समान रूप से मान्य था, किन्तु रूप इसके भिन्न-भिन्न थे। जैन धर्म ने ऐकान्तिक अहिंसा को स्वीकार किया, जिससे उसमें कृच्छाचार बढ़ा। प्रारम्भिक बौद्धों ने भी इसे स्वीकार किया, किन्तु, एक सीमारेखा खींचते हुए, जिसे हम साधारण की संज्ञा दे सकते हैं, अर्थात् तर्कसंगत एवं मानवता संगत अहिंसा। अशोक ने अपने प्रथम व द्वितीय शिलालेख में अहिंसा सिद्धान्त को उत्कीर्ण कराया तथा इसका प्रचार किया। उसने मांसभक्षण का क्रमशः परित्याग किया और विशेष पशुओं का तथा विशेष अवसरों पर सभी पशुओं का वध निषिद्ध कर दिया। कस्सप ने (आमगन्धसुत्त) में कहा है कि मांस भक्षण से नहीं, अपितु बुरे कार्यों से मनुष्य बुरा बनता है। बौद्धधर्म के एक लम्बे शासन के अन्त तक यज्ञों में पशुवध बन्द हो चुका था। एक बार फिर उसे सजीव करने की चेष्टा 'पशुयाग' करने वालों ने की, किन्तु वे असफल रहे।
वैष्णव धर्म पूर्णतया अहिंसावादी था। उसके आचार, आहार और व्यवहार में हिंसा का पूर्ण त्याग निहित था। इसके विधायक अंग थे क्षमा, दया करुणा, मैत्री आदि। धर्माचरण की शुद्धतावश मांसभक्षण का भारत के सब वर्णों ने प्रायः त्याग किया है। विश्व के किसी भी देश में इतने लम्बे काल तक अहिंसा सिद्धान्त का पालन नहीं हुआ है, जैसा कि भारतभू पर देखा गया है।
अहिंसाव्रत
इस व्रत में एक वर्ष के लिए मांसभक्षण निषिद्ध है, तदुपरान्त एक गौ तथा सुवर्ण मृग के दान का विधान है। यह संवत्सर व्रत है। दे० कृत्यकल्पतरु, व्रत खण्ड 444; हेमाद्रि, व्रत खण्ड 2.865।
अहिंस्र
अवध्य, जो मारने के योग्य नहीं है। वैदिक साहित्य में गौ (गाय) के लिए इस शब्द का तथा 'अघन्या' शब्द का बहुत प्रयोग हुआ है।
अहिच्छत्र (रामनगर)
(1) अर्जुन द्वारा जीता गया एक देश, जो उन्होंने द्रोणाचार्य को भेट कर दिया था। एक नगर; उक्त देश की बनी शक्कर; छत्राक पौधा; एक प्रकार का मोती।
(2) उत्तर रेलवे के आँवला स्टेशन से छः मील रामनगर तक पैदल या बैलगाड़ी से जाना पढ़ता है, यहाँ पार्श्वनाथजी पधारे थे। जब वे ध्यानस्थ थे तब धरणेन्द्र तथा पद्मावती नामक नागों ने उनके मस्तक पर अपने फणों से छन्न लगाया था। यहाँ की खुदाई में प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली हैं। यहाँ जैन मन्दिर है तथा कार्तिक में मेला लगता है।