एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें आत्मतत्त्व का निरूपण किया गया है।
आत्रेय
बृहदारण्यक उपनिषद् (2.6.3) में वर्णित माण्टि के एक शिष्य की पैतृक उपाधि। ऐतरेय ब्राह्मण में आत्रेय अङ्ग के पुरोहित कहे गये हैं। शतपथ ब्रह्मण में एक आत्रेय को कुछ यज्ञों का नियमतः पुरोहित कहा गया है। उसी में अन्यत्र एक अस्पष्ट वचन के अन्तर्गत आत्रेयी शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
आत्रेयी
गर्भिणी या रजस्वला महिला। प्रथम अर्थ के लिए 'अत्र' (यहाँ है) से इस शब्द की व्युत्पत्ति होती है; द्वितीय अर्थ के लिए 'अ-त्रि' (तीन दिन स्पर्श के योग्य नहीं) से इसकी व्युत्पत्ति होती है। अत्रि गोत्र में उत्पन्न भी आत्रेयी कही गयी है, जैसा कि उत्तरामचरित में भवभूति ने एक वेदपाठिनी ब्रह्मचारिणी आत्रेयी का वर्णन किया है।
आत्रेय ऋषि
कृष्ण यजुर्वेद के चरक सम्प्रदाय की बारह शाखाओं में से एक शाखा मैत्रायणी है। पुनः मैत्रायणी की सात शाखाएँ हुई, जिनमें 'आत्रेय' एक शाखा है।
आचार्य आत्रेय के मत का उल्लेख (ब्र० सू० 3.4.44) करके ब्रह्मसूत्रकार ने उसका खण्डन किया है। उनका मत है कि यजमान को ही यज्ञ की अङ्गभूत उपासना का फल प्राप्त होता है, ऋत्विज् को नहीं। अतएव सभी उपासनाएँ स्वयं यजमान को करनी चाहिए, पुरोहित के द्वारा नहीं करानी चाहिए। इसके विरोध में सूत्रकार ने आचार्य औडुलोमि के मत को प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया है। मीमांसादर्शन में जैमिनि ने वेदान्ती आचार्य कार्ष्णाजिनि के मत के विरुद्ध सिद्धान्त रूप से आत्रेय के मत का उल्लेख किया है। फिर कर्म के सर्वाधिकार मत का खण्डन करने के लिए भी जैमिनी ने आत्रेय का प्रमाण दिया है। इससे ज्ञात होता है कि ये पूर्वमीमांसा के आचार्य थे।
आथवर्ण
अथर्वा ऋषि द्वारा संगृहीत वेद; उक्त वेद का मंत्र; आथर्वण का पाठक, परम्परागत अध्येता अथवा विधि विधान।
आथर्वण उपनिषदें
दूसरे वेदों की अपेक्षा अथर्ववेदीय उपनिषदों की संख्या अधिक है। ब्रह्मतत्त्व का प्रकाश ही इनका उद्देश्य है। इसलिए अथर्ववेद को 'ब्रह्मवेद' भी कहते हैं। विद्यारण्य स्वामी ने 'अनुभूतिप्रकाश' नामक ग्रन्थ में मुण्डक, प्रश्न और नृसिंहोत्तरतापनीय इन तीन उपनिषदों को ही प्रारम्भिक अथर्ववेदीय उपनिषद माना है। किन्तु शङ्कराचार्य माण्डूक्य को भी इनके अन्तर्गत मानते हैं, क्योंकि बादरायण ने वेदान्तसूत्र में इन्हीं चारों के प्रमाण अनेक बार दिये हैं। जो संन्यासी प्रायः सिर मुड़ाये रहते हैं, उन्हें मुण्डक कहते हैं। इसी से पहली रचना का 'मुण्डकोपनिषद्' नाम पड़ा। ब्रह्म क्या है, उसे किस प्रकार समझा जाता है, इस उपनिषद् में इन्हीं बातों का वर्णन है। प्रश्नोपनिषद् गद्य में है। ऋषि पिप्पलाद के छः ब्रह्म जिज्ञासु शिष्यों ने वेदान्त के मूल छः तत्त्वों पर प्रश्न किये हैं। उन्हीं छः प्रश्नोत्तरों पर यह प्रश्नोपनिषद् आधारित है। माण्डूक्योपनिषद् एक बहुत छोटा गद्यसंग्रह है, परन्तु सबसे प्रधान समझा जाता है। नृसिंहतापिनी पूर्व और उत्तर दो भागों में विभक्त है। इन चारों के अतिरिक्त मुक्तिकोपनिषद् में अन्य 93 आथर्वण उपनिषदों के भी नाम मिलते हैं।
आदि उपदेश
साधमत' के संस्थापक बीरभान अपनी शिक्षाएँ कबीर की भाँति दिया करते थे। वे दोहे और भजन के रूप में हुआ करती थीं। उन्हीं के संग्रह को 'आदि उपदेश' कहते हैं।
आदिकेदार
उत्तराखण्ड में स्थित मुख्य तीर्थों में से एक। बदरीनाथ मन्दिर के सिंहद्वार से 4-5 सीढ़ी नीचे शङ्कराचार्य का मन्दिर है। उससे 3--4 सीढ़ी उतरने के बाद आदिकेदार मन्दिर स्थित है।
आदिग्रन्थ
सिक्खों का यह धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें गुरुनानक तथा दूसरे गुरुओं के उपदेशों का संग्रह है। इसका पढ़ना तथा इसके बताये मार्ग पर चलना प्रत्येक सिक्ख अपना कर्त्तव्य समझता है। 'आदिग्रन्थ' को 'गुरु ग्रन्थ साहब' या केवल 'ग्रन्थ साहब' भी कहा जाता है, क्योंकि दसवें गुरु गोन्विदसिंह ने सिक्खों की इस गुरुप्रणाली को अनुपयुक्त समझा एवं उन्होंने 'खड्ग-दी-पहुल' (खङ्ग-संस्कार) के द्वारा 'खालसा' दल बनाया, जो धार्मिक जीवन के साथ तलवार का व्यवहार करने में भी कुशल हुआ। गुरु गोविन्दसिंह के बाद सिक्ख 'आदिग्रन्थ' को ही गुरु मानने लगे और यह 'गुरु ग्रन्थ साहब' कहलाने लगा।
आदित्य उपपुराण
अठारह महापुराणों की तरह ही कम से कम उन्नीस उपपुराण भी प्रसिद्ध हैं। प्रत्येक उपपुराण किसी न किसी महापुराण से निकला हुआ माना जाता है। बहुतों का मत है कि उपपुराण बाद की रचनाएँ हैं, परन्तु अनेक उपपुराणों से यह प्रकट होता है कि वे अतिप्राचीन काल में संगृहीत हुए होंगे। 'आदित्य उपपुराण' एक प्राचीन रचना है, जिसका उद्धरण अल-बीरुनी (सखाऊ, 1.130), मध्व के ग्रन्थों एवं वेदान्तसूत्र के भाष्यों में प्राप्त होता है।