महाप्रभु वल्लभाचार्य रचित यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी का है।
आचार्यपद
हिन्दू संस्कृति में मौखिक व्याख्यान द्वारा बड़े जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा न थी। यहाँ के जितने आचार्य हुए हैं सबने स्वयं के व्यक्तिगत कर्त्तव्य पालन द्वारा लोगों पर प्रभाव डालते हुए आदर्श आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बहुत जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार से ही संभव है। विचारों के कोरे प्रचार से आचार संगठित नहीं हो सकता। इसी कारण आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक आचार्य कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम नहीं था। इनकी परिभाषा निम्नाङ्कित है :
आचिनोति हि शास्त्रार्थान् आचरते स्थापयत्यपि। स्वयं आचरते यस्तु आचार्य: स उच्यते।।
[जो शास्त्र के अर्थों का चयन करता है और (उनका) आचार के रूप में कार्यान्वय करता है तथा स्वयं भी उनका आचरण करता है, वह आचार्य कहा जाता है।]
आचार्यपरिचर्या
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के आचार्य रामानुज स्वामी की जीवनी, जिसे काशी के पं० राममिश्र शास्त्री ने लिखा है।
आजकेशिक
जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण' (1.9.3) के अनुसार एक परिवार का नाम, जिसके एक सदस्य बक ने इन्द्र पर आक्रमण किया था।
आचार (सप्त)
कुछ तन्त्र ग्रन्थों में वेद, वैष्णव, शैव, दक्षिण, वाम, सिद्धान्त और कुल ये सात प्रकार के आचार बतलाये गये हैं। ये सातों आचार तीनों यानों (देवयान, पितृयान एवं महायान) के अन्तर्गत माने जाते हैं। महाराष्ट्र के वैदिकों में वेदाचार, रामानुज और इतर वैष्णवों में वैष्णवाचार, शङ्करस्वामी के अनुयायी दाक्षिणात्य शैवों में दक्षिणाचार, वीर शैवों में शैवाचार और वीराचार तथा केरल, गौड़, नेपाल और कामरूप के शाक्तों में क्रमशः वीराचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार एवं कौलाचार, चार प्रकार के आचार देखे जाते हैं। पहले तीन आचारों के प्रतिपादक थोड़े ही तन्त्र हैं, पर पिछले चार आचारों के प्रतिपादक तन्त्रों की तो गिनती नहीं है। पहले तीनों के तन्त्रों में पिछले चारों आचारों की निन्दा की गयी है।
आजि
अथर्ववेद (117.7), ऐतरेय ब्राह्मण एवं श्रौत सूत्रों में वर्णित वाजपेय यज्ञ के अन्तर्गत तीन मुख्य क्रियाएँ होती थीं-- 1. आजि (दौड़), 2. रोह (चढ़ना) और 3. संख्या। अन्तिम दिन दोपहर को एक धावरनरथ यज्ञमण्डप में घुमाया जाता था, जिसमें चार अश्व जुते होते थे, जिन्हें विशेष भोजन दिया जाता था। मण्डप के बाहर अन्य सोलह रथ सजाये जाते, सत्रह नगाड़े बजाये जाते तथा एक गूलर की शाखा निर्दिष्ट सीमा का बोध कराती थी। रथों की दौड़ होती थी, जिसमें यज्ञकर्त्ता विजयी होता था। सभी रथों के घोड़ों को भोजन दिया जाता था एवं रथ घोड़ों सहित पुरोहितों को दान कर दिये जाते थे।
आज्यकम्बल विधि
भुवनेश्वर की चौदह य़ात्राओं में से एक। जिस समय सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट हो रहा हो उस समय यह विधि की जाती है। दे० गदाधरपद्धति, कालसारभाग, 191।
आज्ञा
योगसाधना के अन्तर्गत कुण्डलिनी उत्थापन का छठा स्थान या चक्र, जिसकी स्थिति भ्रूमध्य में मानी गयी है। दक्षिणाचारी विद्वा लक्ष्मीधर ने 'सौन्दर्यलहरी' के 31 वें श्लोक की टीका में 64 तन्त्रों की चर्चा करते हुए 8 मिश्रित एवं 5 समय या शुभ तन्त्रों की भी गणना की है। मिश्रित तन्त्रों के अनुसार देवी की अर्चना करने पर साधक के दोनों उद्देश्य (भोग एवं मोक्ष, पार्थिव सुख एवं मुक्त) पूरे होते हैं, जब कि समय या शुभ तन्त्रानुसारी अर्चना से ध्यान एवं योग की उन क्रियाओं तथा अभ्यासों की पूर्णता होती है, जिनके द्वारा साधक 'मूलाधार' चक्र से ऊपर उठता हुआ चार दूसरे चक्रों के माध्यम से 'आज्ञा' एवं आज्ञा से 'सहस्रार' की अवस्था को प्राप्त होता है। इस अभ्यास को 'श्रीविद्या' की उपासना कहते हैं। दुर्भाग्यवश उक्त पाँचों शुभ तन्त्रों का अभी तक पता नहीं चला है और इसी कारण यह साधना रहस्यावृत बनी हुई है।
आज्ञासंक्रान्ति
संक्रान्ति व्रत। यह किसी भी पवित्र संक्रान्ति के दिन आरम्भ किया जा सकता है। इसका देवता सूर्य है। व्रत के अन्त में अरुण सारथि तथा सात अश्वों सहित सूर्य की सुवर्ण की मूर्ति का दान विहित है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2.738 (स्कन्द पुराण से उद्धृत)।
आडम्बर
(1) घौंसा या नगाड़ा बजाने का एक प्रकार। एक आडम्बराघात का उल्लेख वाजसनेयी संहिता (30.19) के पुरुषमेधयज्ञ की बलि के प्रसंग में हुआ है।
(2) साररहित धर्म के बाह्याचार (दिखावट) को भी आडम्बर कहते हैं।