आयुर्वेद के आचार्यों में अश्विनीकुमारों की गणना होती है। सुश्रुत ने लिखा है कि ब्रह्मा ने पहले पहल एक लाख श्लोकों का आयुर्वेद (ग्रन्थ) बनाया जिसमें एक सहस्र अध्याय थे। उसको प्रजापति ने पढ़ा प्रजापति से अश्वनीकुमारों ने और अश्विनीकुमारों से इन्द्र ने पढ़ा। इन्द्र से धन्वन्तरि ने और धन्वन्तरि से सुनकर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की। अश्विनीकुमारों ने च्यवन ऋषि को यौवन प्रदान किया। अश्विनीकुमार वैदिक अश्विनौ ही हैं, जो पीछे पौराणिक रूप में इस नाम से चित्रित होने लगे।
ये अश्वरूपिणी संज्ञा नामक सूर्यपत्नी के युगल पुत्र तथा देवताओं के वैद्य हैं। हरिवंश पुराण में लिखा है :
[हे अरिन्दम! कश्यप से दक्ष प्रजापति की कन्या द्वारा विवस्वान् नामक पुत्र हुआ। उसकी पत्नी त्वष्टा की पुत्री संज्ञा थी। उससे अश्विनीकुमार नामक दो पुत्र हुए जो श्रेष्ठ वैद्य थे।] दे० 'अश्विन्'।
अष्टक
आठ का समूह, अष्ट संख्या से विशिष्ट। यथा गङ्गाष्टकं पठति यः प्रयतः प्रभाते
वाल्मीकिना विरचितं सुखदं मनुष्यः।।
[जो मनुष्य प्रभात समय में प्रेमपूर्वक सुख देने वाला, वाल्मीकि मुनि द्वारा रचित गङ्गष्टक पढ़ता है।]
[अच्युत, केशव, विष्णु, हरि, सत्य, जनार्दन, हंस, नारायण, ये आठ नाम शुभदायक हैं।]
अष्टका
श्राद्ध के योग्य कुछ अष्टमी तिथियाँ। आश्विन्, पौष, माघ, फाल्गुन मासों की कृष्णाष्टमी अष्टका कहलाती हैं। इनमें श्राद्ध करना आवश्यक है।
अष्टगन्ध
आठ सुगन्धित द्रव्य, जिनको मिलाकर देवपूजन, यन्त्रलेखन आदि के लिए सुगन्धित चन्दन तैयार किया जाता है। विभिन्न देवताओं के लिए इनमें कुछ वस्तुएँ अलग-अलग होती हैं। साधारणतया इनमें चन्दन, अगर, देवदारु, केसर, कपूर, शैलज. जटामांसी और गोरोचन माने जाते हैं।
अष्टछाप
पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के काव्यकीर्तनकार चार प्रमुख शिष्य थे तथा उनके पुत्र विट्ठलनाथ के भी ऐसे ही चार शिष्य थे। आठों व्रजभूमि (मथुरा के चारों ओर के समीपी गाँवों) के निवासी थे और श्रीनाथजी के समक्ष गान रचकर गाया करते थे। उनके गीतों के संग्रह को 'अष्टछाप' कहते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ आठ मुद्राएं हैं। उन्होंने व्रजभाषा में श्रीकृष्ण विषयक भक्तिरसपूर्ण कविताएँ रचीं। उनके बाद सभी कृष्णभक्त कवि व्रजभाषा में ही कविता लिखने लगे। अष्टछाप के कवि निम्नलिखित हुए हैं--
इनमें सूरदास प्रमुख थे। अपनी निश्छल भक्ति के कारण ये लोग भगवान् कृष्ण के 'सखा' भी माने जाते हैं। परम भागवत होने के कारण ये 'भगवदीय' भी कहलाते हैं। ये लोग विभिन्न वर्णों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कृष्णदास शूद्रवर्ण के थे। कुम्भनदास क्षत्रिय थे किन्तु कृषक का काम करते थे। सूरदास जी किसी के मत में सारस्वत ब्राह्मण और छीतस्वामी माथुर चौबे थे। नन्ददास भी सनाढ्य ब्राह्मण थे। अष्टछाप के भक्तों में बड़ी उदारता पायी जाती है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में इनका जीवनवृत्त विस्तार से पाया जाता है।
अष्टमङ्गल
आठ प्रकार के मङ्गलद्रव्य या शुभकारक वस्तुएँ। नन्दिकेश्वर पुराणोक्त दुर्गोत्सवपद्धति में कथन है :
मृगराजो वृषो नागः कलशो व्यजनं तथा। वैजयन्ती तथा भेरी दीप इत्यष्टमङ्गलम्।।
[सिंह, बैल, हाथी, कलश, पंखा, वैजयन्ती, ढोल तथा दीपक ये आठ मङ्गल कहे गये हैं।]
शुद्धितत्त्व में भिन्न प्रकार से कहा गया है :
लोकेस्मिन् मङ्गलान्यष्टौ ब्राह्मणों गौर्हुताशनः। हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टमः।।
[इस लोक में ब्राह्मण, गौ, अग्नि, सोना, घी, सूर्य, जल तथा राजा ये आठ मङ्गल कहे गये हैं।]
अष्टमी
आठवीं तिथि, यह चन्द्रमा की आठ कला-क्रियारूप है। शुक्ल पक्ष में अष्टमी नवमी से युक्त ग्रहण करनी चाहिए। कृष्ण पक्ष की अष्टमी सप्तमी से युक्त ग्रहण करनी चाहिए, यथा :
[उपवास आदि कार्यों में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तथा कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी पूर्वविद्धा ही लेनी चाहिए न कि पररविद्धा। यही परम्परागत रीति है।]
अष्टमीव्रत
लगभग तीस अष्टमीव्रत हैं, जिनका उचित स्थानों पर उल्लेख किया गया है। सामान्य नियम यह है कि शुक्ल पक्ष की नवमीविद्धा अष्टमी को प्राथमिकता प्रदान की जाय तथा कृष्ण पक्ष में सप्तमीसंयुक्त अष्टमी ली जाय। दे० तिथितत्त्व, 40, धर्मसिन्धु, 15; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.811-886।
अष्टमूर्ति
शिव का एक नाम। उनकी आठ मूर्तियों के निम्नांकित नाम हैं :
(1) क्षितिमूर्ति शर्व, (2) जलमूर्ति भव, (3) अग्निमूर्ति रुद्र, (5) वायुमूर्ति उग्र, (5) आकाशमूर्ति भीम, (6) यजमानमूर्ति पशुपति, (7) चन्द्रमूर्ति महादेव और (8) सूर्यमूर्ति ईशान। शरभरूपी शिव के ये आठ चरण भी कहे गये हैं। दे० कालिकापुराण और तन्त्रशास्त्र।
शिव की आठ मूर्तियाँ इस प्रकार भी कही गयी हैं :
अथाग्निः रविरिन्दुश्च भूमिरापः प्रभञ्जनः। यजमानः खमष्टौ च महादेवस्य मूर्तयः।।
[अग्नि, सूर्य चन्द्रमा, भूमि, जल, वायु, यजमान, आकाश ये आठ महादेव की मूर्तियाँ हैं।]
अष्टश्रवा
जिनके आठ कान हैं; ब्रह्मा का एक उपनाम। चार मुख वाले ब्रह्मा के प्रत्येक मुख के दो दो कान होने के कारण उनको आठ कानों वाला कहते हैं।