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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अशोकत्रिरात्र
ज्येष्ठ, भाद्र अथवा मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से लेकर तीन रात्रिपर्यन्त एक वर्ष के लिए यह व्रत किया जाता है। चाँदी के अशोक वृक्ष का पूजन तथा ब्रह्मा और सावित्रि की प्रतिमाओं का प्रथम दिन पूजन, उमा तथा महेश्वर का द्वितीय दिन, लक्ष्मी तथा नारायण का तृतीय दिन पूजन होता है। इसके पश्चात् प्रतिमाएँ दान कर दी जाती हैं। यह व्रत पापशामक, रोगनिवारक तथा दीर्घायुष्य, यश, समृद्धि, पुत्र तथा पौत्र आदि प्रदान करता है। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड,, 2.279-283; व्रतार्क (पत्रात्मक 261 ब--264)। यद्यपि साधारणतः यह व्रत महिलाओं के लिए निर्दिष्ट है किन्तु पुत्रों की समृद्धि के इच्छुक पुरुष भी इस व्रत का आचरण कर सकते हैं।

अशोकद्वादशी
विशोक द्वादशी की ही भाँति, आश्विन मास से एक वर्षपर्यन्त यह व्रत किया जाता है। दशमी के दिन हलका भोजन ग्रहण कर एकादशी को पूर्ण उपवास करके द्वादशी को व्रत की पारणा होती है। इसमें केशव का पूजन होता है। इसका फल है सुन्दर स्वास्थ्य, सौन्दर्य तथा शोक से मुक्ति। दे० मत्स्य पुराण, 81.1.-28; कृत्यकल्पतरु, व्रत काण्ड (पृ० 360--363)।

अशोकपूर्णिमा
फाल्गुन मास की पूर्णिमा को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। एक वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। प्रथम चार मासों में तथा उसके बाद के चार मासों में पृथ्वी का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्‍य दिया जाता है। प्रथम चार मासों में पृथ्वी को 'धरणी' मानते हुए पूजन होता है। बाद के चार मासों में 'मेदिनी' नाम से तथा अन्तिम चार मासों में 'वसुन्धरा' नाम से पूजन होता है। दे० अग्निपुराण, 194.1; हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.162-164।

अशोकाष्टमी
(1) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यदि कहीं उस दिन बुधवार तथा पुनर्वसु नक्षत्र हो तो उसका पुण्य बहुत बढ़ जाता है। इसमें अशोक के पुष्पों से दुर्गा का पूजन होता है। अशोक की आठ कलियों से युक्त जल ग्रहण किया जाना चाहिए। अशोक वृक्ष का मन्त्र बोलते हुए पूजन करना चाहिए :
त्वामशोक कराभीष्टं मधुमाससमुद्भवम्। पिवामि शोकसन्तप्तो मामशोकं सदा कुरु।।
दे० कालविवेक, पृ० 422; हेमाद्रि का चतुर्वर्ग चिन्तामणि, काल अंश, पृ० 626।
चैत्र शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन सभी तीर्थ तथा नदियों का जल ब्रह्मपुत्र नदी में आ जाता है। इस दिन का ब्रह्मपुत्र में स्नान उन सभी पुण्यों को प्रदान करता है, जो वाजपेय यज्ञ करने से प्राप्त होते हैं।

अशोकिकाष्टमी
इस व्रत में उमा का पूजन होता है। नीलमत पुराण (पृष्ठ, 74, श्लोक 905-907) बतलाता है कि अशोक वृक्ष स्वयं देवी है।

अश्रद्धा
शास्त्र के अर्थ में अदृढ़ विश्वास। श्राद्धतत्त्व में कथन है :
विधिहीनं भावदुष्टं कृतमश्रद्धया च यत्। तद्धरन्त्यसुरास्तस्य मूढस्य दुष्कृतात्मनः।।
[मूढ़ एवं दुष्टात्मा पुरुष के विधिहीन, भावदूषित तथा अश्रद्धापूर्वक किये गये कार्य को असुर हर लेते हैं।] मानसिक वृत्तिभेद को भी अश्रद्धा कहते हैं :
कामः सङ्कल्पो विचिकित्सा श्रद्धाऽश्रद्धा धृतिर्ह्रीर्धीर्भीरित्येतत् सर्वं मन एव।
[काम, सङ्कल्प, विचिकित्सा, श्रद्धा, अश्रद्धा, धैर्य, लज्जा, बुद्धि, भय ये सब मन ही हैं।]
गीता में कथन है : 'अश्रद्धया च यद्दत्तं तत्तामसमुदाह्यतम्'
[जो दान बिना श्रद्धा के दिया जाता है उसे तामस कहा है।]

अश्राद्धभोजी
श्राद्ध में भोजन न करने वाला, प्रशंसनीय ब्राह्मण। श्राद्ध का अन्न न खाने वाला ब्राह्मण पवित्र आचारवान् या त्यागी माना जाता है। कुछ श्राद्धों में भोजन करने के बदले प्रायश्चित करने का आदेश स्मृतियों में पाया जाता है।

अश्वग्रीव
विष्णु से द्वेष करनेवाला असुर। महाभारत में कहा है :
अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः।'
[अश्वग्रीव, सूक्ष्म, तुहुण्ड, महाबल ये दैत्य हैं।]
वृष्णिवंशज चित्रक का एक पुत्र, जो राजा हो गया :
अश्वग्रीव इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः।'

अश्वत्थ
हिन्दुओं का पूज्य पीपल वृक्ष। इसे विश्ववृक्ष भी कहते हैं। इसका एक नाम वासुदेव भी है। ऐसा विश्वास है कि इसके पत्ते-पत्ते में देवताओं का वास है।
काम-कर्मरूपी वायु के द्वारा प्रेरित, नित्य प्रचलित स्वभाव एवं शीघ्र विनाशी होने के कारण तथा कल भी रुकेगा ऐसा विश्वास न होने कारण, मायामय संसारवृक्ष को भी अश्वत्थ कहते हैं।
इसके पर्याय हैं-- (1) बोधिद्रुम, (2) चलदल (3) पिप्पल (4) कुञ्जराशन, (5) अच्युतावास, (6) चलपत्र, (7) पवित्रक (8) शुभद, (9) बोधिवृक्ष, (10) याज्ञिक, (11) गजभक्षक (12) श्रीमान्, (13) क्षीरद्रुम, (14) विप्र, (15) मङ्गल्य, (16) श्यामल, (17) गृह्यपुष्प, (18) सेव्य, (19) सत्य, (20) शुचिद्रुम और (21) धनवृक्ष।
ऋग्वेद में अश्वत्थ की लकड़ी के पात्रों का उल्लेख है। परवर्ती काल के ग्रन्थों में इस वृक्ष का अत्यधिक उल्लेख किया गया है। इसकी कठोर लकड़ी अग्नि जलाते समय शमी की लकड़ी के ऊपर रखी जाती थी। यह अपनी जड़ों को दूसरे वृक्ष के तने में स्थापित कर उन्हें नष्ट कर देता है, विशेष कर खदिर नामक वृक्ष को। इसी कारण इसे वैबाध भी कहते हैं। इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया हैं। इसके फलों को मिष्टान्न के अर्थ में उद्धृत किया गया है, जिसे पक्षी खाते हैं, (ऋ० 1.164, 20)। देवता लोग इस वृक्ष के नीचे तीसरे स्वर्ग में निवास करते हैं (अ० वे० 5.4, 3; छा० उ० 8.5,3; कौ० उ० 9.3)।
अश्वत्थ एवं न्यग्रोध को शिखण्डी भी कहते हैं। इस वृक्ष की लकड़ी के पात्र यज्ञों में काम में लाये जाते हैं।
इस वृक्ष का धार्मिक महत्त्व अधिक है। गीता में भगवान् कृष्ण ने कहा है कि 'वृक्षों में मैं अश्वत्थ हूँ।' विश्ववृक्ष से इसकी तुलना की गयी है।
इसको चैत्यवृक्ष भी कहते हैं। इसके नीचे पूजा-अर्चा आदि होती है।

अश्वत्थव्रत
अपशकुन, आक्रमण, संक्रामक बीमारियों, जैसे कुष्ठ आदि के फैलने, के समय अश्वत्थ का पूजन किया जाता है। दे० व्रतार्क, पत्रात्मक, पृ० 406, 408।


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