स्त्रियों के लिए विशेष व्रत। मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारम्भ होता है। तृतीया के दिन शर्करा मिश्रित खीर का सेवन, शम्भु तथा गौरी का पूजन विहित है। एक वर्ष पर्यन्त आटा तथा चावल की बनी हुई शम्भु तथा गौरी की मूर्तियों का बारहों महीनों में भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न फूलों से पूजन करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रत काण्ड, 70-75; होमाद्रि, व्रतखण्ड, 439-444।
अविवाह्या
विवाह के अयोग्य। सुमन्तु के अनुसार माता-पिता से सम्बद्ध सात पीढ़ी तक की कन्याएं अविवाह्य होती हैं। दूसरों के मत में दोनों पक्षों की पाँच पीढ़ियों तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। नारद का भी मत है:
आ सप्तमात् पञ्चमाच्च बन्धुभ्यः पितृमातृतः। अविवाह्या सगोत्रा च समानप्रवरा तथा।। सप्तमे पञ्चमें वापि येषां वैवाहिकी क्रिया। ते च सन्तानिनः सर्वे पतिता: शूद्रतां गताः।।
[पिता एवं माता की सात एवं पाँच पीढ़ियों तक की कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। वे कन्याएँ अविवाह्य हैं। समान प्रवर और समान गोत्र वाली कन्याओं के साथ भी विवाह नहीं करना चाहिए। पाँच अथवा सात पीढ़ियों में विवाह करनेवाले लोग सन्तान सहित पतित होकर शूद्र हो जाते हैं।]
अवीचिमान्
एक नरक का नाम। उसके अन्य नाम हैं वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि, अयःपान। जो इस लोक में साक्ष्य, द्रव्य की अदला-बदली, दान आदि में किसी प्रकार का झूठ बोलता है वह मरकर अवीचिमान् नरक में नीचे सिर करके खुले स्थान में सौ योजन ऊँचे पर्वत से गिराया जाता है। यहाँ पर पापी मनुष्य गिराये जाने से तिल के समान विच्छिन्न शरीर हो जाता है। (भागवत्, 5.26)
अवेस्ता
पारसी (ईरानी) लोगों का मूल धर्मग्रन्थ, जिसका वेद से घनिष्ठ सम्बन्ध है। अनेक देवताओं एवं धार्मिक कृत्यों का अवेस्ता एवं वेद के पाठों में साम्य है, जैसे अहुरमज्द का वरुण से, सोम का हओम से, ऋत का अश से। ये देवतानाम एवं धार्मिक विचारसाम्य भारतीय एवं ईरानी आर्यों की एकता के द्योतक हैं। सम्भवतः ये एक ही मूल स्थान के रहने वाले भाई-भाई थे।
अवैधव्य शुक्लैकादशी
चैत्र शुक्ल एकादशी। दे० हेमाद्रि, व्रत खण्ड, जिल्द 1, 115।
अव्यक्त
वेदान्त में 'ब्रह्म' और सांख्य में 'प्रकृति' दोनों के लिए इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो व्यक्त (प्रकट) नहीं है।' यह जगत् का वह मौलिक रूप है जो दृश्य अथवा प्रतीयमान नहीं है।
अव्यङ्ग
इसका शाब्दिक अर्थ है पूर्ण। यह एक पूजा-उपादान है, जिसे सूर्यमन्दिर का मग (अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण) पुरोहित धारण करता है। भविष्यपुराण में उद्धृत है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने सूर्योपासना से अपना कुष्ठ रोग निवारण किया तथा देवता के प्रति कृतज्ञ हो उन्होंने चन्द्रभागा तीर्थ में एक सूर्यमन्दिर बनवाया। फिर वे नारद के शिक्षानुसार शकद्वीप की आश्चर्यजनक यात्रा कर वहाँ से एक मग पुरोहित लाये। यह मग पुरोहित अन्य पूजा-सामग्रियों के साथ 'अव्यङ्ग' नामक उपादान पूजा के समय अपने हाथ में धारण करता था।
अव्यय
जिसका व्यय नहीं हो, अविनाशी, नित्यपुरुष। यह विष्णु का पर्याय है। मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है :
[सुरेश, विष्णु, प्रभविष्णु, पुरुष, अप्रमेय, शाश्वत, अव्यय को नमस्कार करके।]
तमसः परमापदव्ययं पुरुषं योगसमाधिना रघुः। (रघुवंश)
[योग समाधि के द्वारा रघु तम से परे अव्यय पुरुष को प्राप्त हुआ।]
अशून्य व्रत
इस व्रत में श्रावण मास से प्रारम्भ करके चार मासपर्यन्त प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीय के दिन अक्षत, दही तथा फलों सहिता चन्द्रमा को अर्घ्यदान किया जाता है। यदि द्वितीया तिथि तृतीया से विद्ध हो तो उसी दिन व्रत का आयोजन किया जाता है। दे० पुरुषार्थ चिन्तामणि, पृ० 83।
अशून्यशयन व्रत
श्रावण मास से प्रारम्भ करके प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। यह तिथिव्रत है। इसमें लक्ष्मी तथा हरि का पूजन होता है। इसका उल्लेख विष्णुधर्मोत्तर, मत्स्य (71, 2-20), पद्मपुराण, विष्णुपुराण (24-1-19) आदि में हुआ है। स्त्रियों के अवैधव्य तथा पुरुषों के अवियोग (पत्नी से अवियोग) के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें भगवान् से यह प्रार्थना की जाती है :
लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा। शय्या ममाप्यशून्यास्तु तथात्र मधुसूदन।।
[हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मीजी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपने पति या पत्नी से सूनी न हो।]
कृत्यरत्नाकर (पृष्ठ 228) में लिखा है कि जब यह कहा गया है कि व्रत श्रावण कृष्ण पक्ष से आरम्भ होता है तो प्रयोग से सिद्ध है कि मास पूर्णिमान्त है।