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Definitional Dictionary of International Law (English-Hindi)
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joint occupancy
संयुक्त आधिपत्य किसी क्षेत्र या प्रदेश दो या दो से अधिक राज्यों का सैनिक आधिपत्य, जैसे दूसरे महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात जर्मनी पर सं.रा. अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ और फ्रांस का संयुक्त आधिपत्य । प्रायः यह अस्थायी स्थिति होती है ।

judicial decision
न्यायिक निर्णय किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी विवाद के निपटारे के रूप में दिया गया निर्णय, जो संबंधित पक्षों के लिए बाध्यकारी होता है । न्यायिक निर्णयों का अंतर्राष्टरीय विधि के विकास में विशेष महत्व है क्योंकि ये न केवल प्रचलित प्रथाओं और राज्य व्यवहार के प्रमाण होते हैं बल्कि उन्हें स्पष्टता एवं सुदृढ़ता भी प्रदान करते हैं । फिर भी न्यायिक निर्णयों को अंतर्राष्टरीय विधि का मूल स्रोत न माना जाकर एक सहायक स्रोत माना जाता है । इनका महत्व निर्माणात्मक न होकर केवल साक्ष्यात्मक होता है ।

jurisdiction
क्षेत्राधिकार, अधिकार क्षेत्र किसी राज्य का अपनी प्रादेशिक सीमाओं के भीतर विद्यामान सभी व्यक्तियों और वस्तुओं पर क्षेत्राधिकार तथा अपनी सीमाओं में उत्पन्न होने वाले सभी दीवानी और फौजदारी मामलों पर निर्णय करने का अधिकार । परंतु अंतर्राष्ट्रीय विधि मे इस प्रादेशिक अधिकार के अपवाद भी हैं और इस अधिकार का विस्तार भी है, अर्थात् कुछ व्यक्ति या मामले ऐसे हैं जो उसके प्रदेश मे होते हुए भी उन पर उस राज्य का क्षेत्राधिकार नहीं होता और कुछ व्यक्ति या मामले उसके प्रदेश में न होते हुए भी उसके क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आते हैं । जैसे उस देश के राज्याध्यक्ष, राजदूत, सार्वजनिक जलपोत आदि ।

juristic works
विधि वेत्ताओं की रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय विधि के क्षेत्र में विद्वानों एवं विधि शास्त्रियों के ग्रंथों को भी अंतर्राष्ट्रीय विधि के सहायक स्रोत के रूप में मान्यता दी जाती है । इनका महत्व प्रचलित विधि के प्रमाण अथवा साक्ष्य के रूप में सामान्यतः स्वीकार किया जाता है । यद्यपि इन ग्रंथकारों क मतों को विधि का नियम नहीं माना जाता । इस भेद को पैक्ट हवाना के मामले में न्यायाधीश ग्रे ने अति प्रभावशाली रूप में स्पष्ट किया था ।

jusbeli
युद्ध विधि दे. Laws of war.

jus cogens
अनुल्लंघनीय नियम अंतर्राष्ट्रीय विधि के वे अपरिहार्थ नियम, सिद्धांत या मूल्य जिनका किसी दशा में किसी प्रकार से भी अतिलंघन नीहं किया जा सकता । यद्यपि ऐसे नियमों अथवा सिद्धांतों की कोई सूची बनाना कठिन है परंतु कुछ नियम अवश्य ऐसे है जिन्हें इस श्रेणी मे रखा जा सकता है जैसे अपने अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का सद्भावनापूर्वक पालन करना, अग्र आक्रमण न करना आदि ।

jus gentium
1. वैदेशिक कानून, विदेशियों का कानून 2. अंतर्राष्टरीय विधि, जस जैंशियम 1. रोमन नागरिकों के विदेशियों के साथ और विदेशियों के आपसी संसर्ग से संबंधित नियम । 2. स्वतंत्र राज्यों के आपसी व्यवहार अथवा संसर्ग को नियमित करन वाली नियमावली, विस्तार के लिए देखिए international law.

jus naturale
नैसर्गिक विधि, प्राकृतिक विधि मानव विवेक से उद्भूत नियम या विधि जो संस्थापित विधि के अभाव में या उसके अलावा मानव आचरण और समाज पर स्वभावतः ही लागू होते हैं । इसका कारण यह है कि ये मानव प्रकृति के अनुरूप होते हैं । एक मत यह है कि अंतर्राष्ट्रीय विधि का आधार यह प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक विधि ही है । इस मत के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय विधि राज्यों द्वारा स्थापित न होकर प्राकृतित विधि का वह भाग है जो राज्यों के पारस्परिक संबंधों मे लागू होता है ।

jus postililminii
परावर्तन नियम, युद्ध - पूर्व अवस्था का नियम इस सिद्धांत का संबंध युद्ध -विधि के आधिपत्य के नियम से है । नियम यह है कि सैनिक आधिपत्य की समाप्ति पर आधिपत्य की समाप्ति पर धिपत्य - अधीन प्रदेश से संबंधित समग्र कानूनी व्यवस्था युद्ध - पूर्व स्थिति को लौट जाती है । अर्थात् युद्ध - पूर्व अवस्था की पुनः स्थापना हो जाती है । ओपेनहायम ने अंतर्राष्ट्रीय विधि की दृष्टि से युद्ध - पूर्व अवस्था के तीन परिणामों का उल्लेख किया है :- 1. भूतपूर्व राजनीतिक अवस्था की आवृत्ति 2. आधिपत्य - काल के वैध कार्यों की स्वीकृति और 3. आधिपत्य - काल के अवैध कार्यों की अस्वीकृति । जूलियस स्टोन, श्वारजनबारगर आदि लेखकों का मत है कि यह सिद्धांत पूर्णतया निरर्थक है क्योंकि यथापूर्वन - स्थिति की पुनः स्थापना संभव नही है ।

just war
न्याय्य युद्ध यह अवधारणा मध्ययुगीन धर्म - युद्ध (Holy war ) का रूपांतरण है और सत्रहवीं - अठारहवीं शताब्दी मे इसका प्रचलन रहा । इससे तात्पर्य यह था कि युद्ध के पक्षकारों में एक पक्ष न्यायसंगत है और दूसरा नहीं । यद्यपि यह भेद करने के कोई निश्चित नियम नहीं थे कि कौन न्यायासंगत है और कौन नहीं । उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय राज्यों और संप्रभुता के सिद्धांत के सुदृढ़ हो जाने के साथ - साथ यह भावना बी प्रबल होती गई कि युद्ध राज्य का एक संप्रभु अधिकार है । यह उसकी संप्रभुता का एक अंग है और इस परिप्रेक्ष्य मे नन्यायसंगत और न्याय - असंगत का जो भेद चला आ रहा था,व ह समाप्त हो गाय । प्रथम महायुद्ध के उपरांत राष्ट्र संघ की स्थापना से और सन् 1928 में पेरिस समझौते के अंतर्गत युद्ध के अधिकार के परित्याग से पुनः इस विचार का नवीनीकरण हुआ कि युद्ध में एक पक्ष को न्याससंगत माना जाए और दूसरे को नहीं । इस विभाजन का मानदंड यह हो गया कि जो पक्ष राष्ट्र संग की प्रसंविदा अथा पेरिस समझौते का उल्लंघन करके युद्ध प्रारंभ करता है उसे न्याय - असंगत और उसके आक्रमण से आत्म - रक्षा करने वाले को न्याय - संगत पक्ष माना जाए । संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के उपरांत यह भेद और भी मुखर हो गया । अब यह कहा जा सकता है कि जो राज्य सुरक्षा - परिषद् के निर्देस पर शांति बनाए रखने की किसी कार्रवाई में बाग लेते हैं वे न्यायसंगत युद्धकारी है और जिनके विरूद्ध यह कार्रवाई की जा रही है, वे न्यायसंगत नहीं है । इस प्रकार बीसवीं शताब्दी में पुनः न्यायासंत युद्ध की अवधारणा का प्रादुर्भाव हुआ ।


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