वैदिक देवमण्डल का एक देवता। यह सूर्य का ही एक रूप है। वैदिक काल में अनेक आदित्य वर्ग के देवता थे। परवर्ती काल में उन सबका अवसान एक देवता सूर्य में हो गया, जो बिना किसी भेद के उन्हीं के नामों, यथा सूर्य, सविता, मित्र, अर्यमा, पूषा से कहे जाते हैं। आदित्य, विवस्वान् एवं विकर्तन आदि भी उन्हीं के नाम हैं।
काव्यों में भी अर्यमा का प्रयोग सूर्य के पर्याय के रूप में हुआ है :
प्रोषितार्यमणं मेरोरन्धकारस्तटीमिव। (किरात०)
[जिस प्रकार अर्यमा के अस्त होने पर अन्धकार मेरू की तटी में भर जाता है।]
अर्हन्
सम्मान्य, योग्य, समर्थ, अर्हता प्राप्त। प्रचलित अर्थ क्षपणक, बुद्ध, जिन भी है।
अलकनन्दा
(अलति =चारों ओर बहती हैं, अलका, अलका चासौ नन्दा च) कुमारी (त्रिकाण्डशेष)। भारतवर्ष की गङ्गा (शब्दमाला)। श्रीनगर (गढवाल) के समीप भागीरथी गङ्गा के साथ मिली हुई यह स्वनामख्यात नदी है। इसके किनारे कई पवित्र संगमस्थल हैं। जहाँ मन्दाकिनी इसमें मिलती है वहाँ नन्दप्रयाग है; जहाँ पिण्डर मिलती है वहाँ कर्णप्रयाग; जहाँ भागीरथी मिलती है वहाँ देवप्रयाग। इसके आगे यह गङ्गा कहलाने लगती है। यद्यपि अलकनन्दा का विस्तार धिक है फिर भी गङ्गा का उद्गम भागीरथी से ही माना जाता है। दे० 'गङ्गा'।
अलक्ष्मी
दरिद्रा देवी, लक्ष्मी की अग्रजा, जो लक्ष्मी नहीं है। यहाँ पर 'नञ्' विरोध अर्थ में है। यह नरकदेवता निर्ऋति, जेष्ठादेवी आदि भी कही जाती है (पद्मपुराण, उत्तर खण्ड)। उसका विवरण 'जेष्ठा' शब्द में देखना चाहिए। दीपावली की रात्रि को उसका विधिपूर्वक पूजन कर घर में से बिदा कर देना चाहिए।
अलक्ष्मीनाशक स्नान
पौष मास की पूर्णिमा के दिन जब पुष्य नक्षत्र हो, श्वेत सर्षप का तेल मर्दन कर मनुष्यों को यह स्नान करना चाहिए। इस प्रकार स्नान करने से दारिद्र्य दूर भागता है। तब भगवान् नारायण की मूर्ति का पूजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इन्द्र, चन्द्रमा, बृहस्पति तथा पुष्य की प्रतिमाओं का भी सर्वौषधि युक्त जल से स्नान कराकर पूजन करना चाहिए। दे० स्मृतिकौस्तुभ (तिथि तथा संवत्सर)।
अलवण तृतीया
किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया, किन्तु वैशाख शुक्ल पक्ष, भाद्रपद अथवा माघ शुक्ल पक्ष की तृतीया इस व्रत में विशेष महत्वपूर्ण होती है। स्त्रियाँ ही इसका मुख्यतः आचरण करती हैं। द्वितीया को उपवास, तृतीया को नमक रहित भोजन, गौरी देवी का पूजन जीवन पर्यन्त भी किया सकता है। दे० कृत्यकल्पतरू का व्रतकाण्ड 48-51।
अलवार
दक्षिण भारत की उपासक-परम्परा से ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से उस प्रदेश में हरिभक्त का प्रचार था। कहा जाता है कि उस प्रदेश में कलियुग के प्रारम्भ में प्रसिद्ध अलवार भक्त गण उत्पन्न हुए थे। इनमें तीन आचार्य हुए -पोंहिये, पूदत्त एवं पे। पोंहिये का जन्म काञ्ची नगर में हुआ था। इनकी ध्यानावस्थित मूर्ति काञ्ची के एक मन्दिर में है, जो वहाँ के सरोवर के बीच जल में बना है। पूदत्त का जन्म तिरुवन्न मामलयि नामक स्थान में, जिसे पहले मल्ला पुरी कहते थे, हुआ था। पे का जन्म मद्रास के मलयपुर नामक स्थान में हुआ। ये सदा श्री हरि के प्रेम में उन्मत्त रहा करते थे। इसी से इनका नाम 'पे' अर्थात् उन्मत्त पड़ गया।
तदनन्तर पाण्ड्य देश में 'तिकमिडिशि' और 'शठारि' का जन्म हुआ, जिन्हें शठरिपु या शठकोप भी कहते हैं। शठरिपु के शिष्य मधुर कवि का जन्म शठरिपु के जन्मस्थान के पास ही हुआ था। वे बड़ी मधुर भाषा में कविता किया करते थे, इसी से उनका नाम 'मधुर कवि' पड़ा। केरल प्रान्त के प्रसिद्ध राजा 'कुलशेखर' भी एक प्रधान अलवार हो गये हैं। उन्होंने 'मुकुन्दमाला' नामक एक स्तोत्र की रचना की। इनके पश्चात् 'पेरिया आलवार' अर्थात् सर्वश्रेष्ठ भक्त का जन्म हुआ। उनकी पुत्री अण्डाल बहुत बड़ी भक्त थी। बहुत ही मधुरभाषिणी होने के कारण उसे गोदा कहते हैं। उसने तमिलभाषा में 'स्तोत्ररत्नावली' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें तीन सौ स्तोत्र हैं। इन स्तोत्रों का भक्तों में बड़ा आदर है। इस तरह अनेक अलवारों का विवरण मिलता है।
इस प्रकार जहाँ एक ओर दार्शनिक विद्वान् विशिष्टाद्वैत मत की परम्परा बनाये हुए थे, वहाँ ये प्राचीन अलवार भी भक्त-गङ्गा बहा रहे थे। दसवीं शताब्दी में इस मत को अपनी प्रतिभा से यामुनाचार्य ने पुनः उद्दीप्त किया था, रामानुजाचार्य ने इसका सर्वतोमुखी प्रचार किया।
इस प्रकार तमिल देश में भक्तिमार्गी कवि-गायकों की एक शृंखला वर्तमान थी। ये गायक एक से दूसरे मन्दिर तक घूमा करते थे, स्तुतियाँ बनाते और आनन्दातिरेक में उनका गायन अपने आराध्य देव की प्रतिमा के सम्मुख किया करते थे। बारह वैष्णव गायकों के नाम मिलते हैं, जिन्हें अलवार के नाम से पुकारा जाता है। उनका धर्माचरण सबसे बढ़कर उन्मादपूर्ण भावना था। उनका सबसे बड़ा आनन्द था अपने आराध्य की मूर्ति की आँखों की ओर एकटक देखना तथा उनकी प्रशंसा संगीत में करना। गाते-गाते आत्मविभोर होकर देवालय की भूमि पर गिर जाना, रात भर देवता के अदर्शन के कारण रुग्ण तथा प्रातःकाल देवालय का द्वार खुलते ही देवदर्शन कर स्वास्थ्य लाभ करना आदि उनकी भक्ति के मधुर उदाहरण हैं। ये जाति से बहिष्कृत लोगों को शिक्षा देते थे तथा इनमें से कुछ अलवार स्वयं जाति से बहिष्कृत थे। इनकी रचनाओं में स्थानीय कथाओं, देवालय के देव की स्तुति, मूर्ति के आकार-प्रकार के अतिरिक्त रामायण-महाभारत एवं पुराणों का प्रभाव स्पष्ट दीख पड़ता है। ये अलवार श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के शिक्षक माने जाते हैं। इनकी स्तुतियों का सामाजिक पूजा तथा विद्वानों की शिक्षाविधि आदि के अर्थ में बड़ा सम्माननीय स्थान है।
अलीक
(1) मिथ्या; अवास्तविक; शशश्रृंग, आकाशपुष्प के सदृश, कल्पना मात्र; मृषा : 'ज्ञातेऽलीकनिमीलिते नयनयोः' (अमरुशतक)।
(2) अप्रिय : 'तद्यथा स महाराजो नालीकमधिगच्छति।' (रामायण)
अलौकिक
लौकिक प्रत्यक्ष का विषय नहीं, अथवा लोकव्यवहार में प्रचलित नहीं। स्वर्ग या दिव्य लोक की वस्तु। श्रीमद्भागवत में कहा गया है :
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम्।'
[हे विश्वात्मन्, अपने इस अलौकिक रूप को हटा लो।] भगवान् के नाम, रूप, लीला और धाम सभी अलौकिक हैं।
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अवगाहन
स्नान करना, गोता लगाना। इसके पर्याय हैं-- अवगाह, वगाह, मज्जन। जल में मज्जन (डुबकी लगाने) की विधि इस प्रकार है :