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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अर्घ
वस्तुमूल्य और पूजाविधि। मनु के अनुसार :
कुर्युरर्घ यथापण्यं ततो विंशं नृपो हरेत्। मणिमुक्ताप्रवालानां लौहानां तान्तवस्य च। गन्धानाञ्च रसानाञ्च विद्यादर्धबलाबलम्।।
[क्रेय वस्तु के अनुसार मूल्य निश्चित करे। मूल्य का बीसवाँ भाग राजा ग्रहण कर ले। मणि, मोती, मूँगा, लोहे, तन्तु से निर्मित वस्तु, गन्ध एवं रसों के घटते-बढ़ते मूल्यों के अनुसार अपना भाग ले।]
इस शब्द को साम के उद्गाता सर्वत्र गान में यकार सहित नपुंसक लिङ्ग में प्रयोग करें। अन्य वेदों के लोगों को यकाररहित पुंल्लिङ्ग में प्रयोग करना चाहिए (श्राद्धतत्‍त्व)। दूर्वा, अक्षत, सर्षप, पुष्प आदि से रचित, देव तथा ब्राह्मण आदि सम्मानार्थ पूज-उपचार का यह एक भेद है। यथा उत्तररामचरित में :
अये वनदेवतेयं फलकुसुमपल्लवार्घेण मामुपतिष्ठते।'
[यह वनदेवता फल, पुष्प, पत्तों के अर्घ से मेरी पूजा कर रही है।] इसी प्रकार मेघदूत में :
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मै।
[कुटज के ताजे फूलों से उसने उसे अर्घ दिया।]

अर्घ्य
पूजा के योग्य ('अर्घमर्हति' इस अर्थ में यत् प्रत्यय)। इसका सामान्य अर्थ है पूजार्थ दूर्वा, अक्षत, चन्दन, पुष्प जल आदि (अमरकोश)।
मध्यकाल के धर्मग्रन्थों में इसका बड़ा विशद वर्णन मिलता है। वर्षकृत्यकौमुदी (पृ० 142) के अनुसार समस्त देवी-देवताओं के लिए चन्दन लेप, पुष्प, अक्षत, कुशाओं के अग्रभाग, तिल, सरसों, दूर्वा का अर्घ्‍य में प्रयोग करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 148; कृत्यरत्नाकर, 296।

अर्चक
मन्दिरों में देवप्रतिमा की सेवा-पूजा करनेवाला पुजारी।

अर्चन
पूजन। इसका माहात्म्य इस प्रकार कहा गया है :
धनधान्यकरं नित्यं गुरुदेवद्विजार्चनम्।
[नित्यप्रति गुरु, देव, ब्राह्मण की पूजा धन-धान्य को देने वाली है।]
यह नवधा भक्ति-प्रदर्शन का एक प्रकार है।

अर्चा
देवता आदि की पूजा :
अर्चा चेद् विधितश्च ते वद तदा किं मोक्षलाभक्लमैः। (शिवशतक)
[हे शिव! यदि आपकी विधिवत् पूजा की जाय तो फिर मोक्षप्राप्ति के लिए कष्ट उठाने से क्या लाभ है।]

अर्चिष्‍मान्
अर्चिष्मान्
अग्नि, सूर्य, प्रदीप्त, तेजविशिष्ट, प्रभावान्, स्वनामख्यात देवऋषिविशेष।

अर्जुन (गुरु)
सिक्खों के गुरु अर्जुन अकबर के समकालीन थे। ये कवि एवं व्यावहारिक भी थे। इन्होंने अमृतसर का स्वर्णमन्दिर बनवाया और कबीर आदि अन्य भक्तों के भजनों का संग्रह कर ग्रन्थसाहब को पूरा किया। इसमें 'जपजी' का प्रथम स्थान है, तत्पश्चात् 'सोदरु' का। फिर रागों के अनुसार शेष रचना के विभाग किये गये हैं। इस प्रकार ग्रन्थसाहब ही नानकपंथियों क वेद बन गया है। दसवें गुरु गोविन्दसिंह ने "सब सिक्खन कूँ हुकुम है, गुरु मानियों ग्रन्थ" यह फरमान निकाल कर गुरु नानक से चली आ रही गुरुपरम्परा अपने बाद समाप्त कर दी। अकबर के बाद जहाँगीर ने गुरु अर्जुन को बड़ी यातना दी, जिससे सिक्ख-मुसलमान संघर्ष की परम्परा प्रारम्भ हो गयी।
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अर्थ
विषय, याच्ञा, धन, कारण, वस्तु, शब्द से प्रतिपाद्य, निवृत्ति, प्रयोजन, प्रकार आदि। यह धन के अर्थ में विशेष रूप से प्रयुक्त हुआ है और त्रिवर्ग के अन्तर्गत दूसरा पुरुषार्थ है :
कस्यार्थधर्मौ वद पीडयामि, सिन्धोस्तटावोघवतः प्रवृद्धः। (कुमारसम्भव)
[नदी का वेग जैसे अपने दोनों तटों को काट देता है वैसे ही कहो किसके धर्म-अर्थ को नष्ट कर दूँ।]
तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते। सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठमेषां यथोत्तरम्।। (मनुस्मृति)
[तम का लक्षण काम है। रज का लक्षण अर्थ है। सत्त्व का लक्षण धर्म है। ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।]
अर्थ मानवजीवन का आवश्यक पुरुषार्थ है, किन्तु इसका अर्जन धर्मपूर्वक करना चाहिए।

अर्थपञ्चक
पाँच निर्णयों का संग्रह, संक्षिप्त, संस्कृतगर्भ, तमिल में लिखा गया तेरहवीं शताब्दी के अन्त वा चौदहवीं के प्रारम्भ का एक ग्रन्थ। इसे श्रीवैष्णवसिद्धान्त का संक्षिप्त सार कहा जा सकता है। इसके रचयिता श्रीरङ्गम् शाखा के प्रमुख पिल्लई लोकाचार्य थे।

अर्थवाद
प्राचीन काल में वेद अध्ययन करते समय विद्यार्थी अपने आचार्य से और भी व्यावहारिक शिक्षाएँ लेता था। जैसे वेदी की रचना, हविनिर्माण, याज्ञिककर्म आदि। इन क्रियाओं के आदेशवचन विधि कहलाते थे तथा उनकी व्याख्या करना अर्थवाद। बाद में अर्थवाद शब्द का व्यवहार प्रशंसा अथवा अतिरञ्चना के अर्थ में होने लगा। तब इसका तात्पर्य हुआ--- लक्षण के द्वारा स्तुति तथा निन्दा के अर्थ का वाद। वह तीन प्रकार का है-- 1. गुणवाद, 2. अनुवाद तथा 3. भूतार्थवाद। कहा गया है :
विरोधे गुणवादः स्यादनुवादोऽवधारिते। भूतार्थवादस्तद्धानावर्थवादस्त्रिधा मतः।।
[विरोध में गुणवाद, अवधारित में अनुवाद, उनके अभाव में भूतार्थवाद, इस प्रकार अर्थवाद तीन प्रकार का होता है।]
तत्त्वसम्बोधिनी के मत में यह सात प्रकार का है : 1. स्तुति-अर्थवाद, 2. फलार्थवाद, 3. सिद्धार्थवाद, 4. निन्दार्थवाद, 5. परकृति, 6. पुराकल्प तथा 7. मन्त्र। इनके उदाहरण वेद में पाये जाते हैं।
विशेष्य-विशेषण के विरोध में समानाधिकरण न होने पर गुणवाद होता है। अर्थात् इसमें अङ्गरूप कथन से विरोध का परिहार किया जाता है। जैसे 'यजमान प्रस्तर है', यहाँ प्रस्तर का अर्थ मुट्ठीभर कुश है। उसका यजमान के साथ अभेदान्वय नहीं हो सकता, अतः यहाँ यजमान का कुशमुष्टि धारणरूप अर्थवाद का प्रकार गुणवाद माना जाता है। अन्य प्रमाण द्वारा सिद्ध अर्थ का पुनः कथन अवधारित कहलाता है। जैसे 'अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं करना चाहिए', अन्तरिक्ष में अग्नि का चयन नहीं हो सकता यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है, तो भी यहाँ उसका पुनः अनुवाद कर दिया गया है।
विरोध और अवधारण के अभाव में भूतार्थवाद होता है, जैसे 'इन्द्र वृत्र का घातक है।' भूतार्थवाद भी दो प्रकार का है--- 1. स्तुति-अर्थवाद और 2. निन्दार्थवाद। जैसे 'वह स्वर्ग को जाता है जो सन्ध्या-पूजन करता है' यह स्तुति-अर्थवाद है। 'पर्व के दिन मांस आदि का सेवन करने वाला मल-मूत्र से भरे हुए नरक में जाता है' यह निन्दार्थवाद हुआ। दे० श्राद्धविवेक-टीका में श्रीकृष्ण तर्कालङ्कार।


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