अयन सूर्य की गति पर निर्भर होते हैं। इनमें अनेक व्रतों का विधान है। अयन दो हैं- उत्तरायण तथा दक्षिणायन। ये क्रमशः शान्त तथा क्रूर धार्मिक पूजाओं के लिए उपयुक्त हैं। दक्षिणायन में मातृदेवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त भैरव, वराह, नरसिंह, वामन तथा दुर्गादेवी की प्रतिमाओं की स्थापना होती है। दे. कृत्य-रत्नाकर, 218; हेमाद्रि, चतुवर्गचिन्तामणि, 16; समयमयूख, 173।
अयास्य आङ्गिरस
इस ऋषि का नाम ऋग्वेद के दो परिच्छेदों में उल्लिखित है तथा इन्हें अनुक्रमणी में अनेक मन्त्रों (9.44.6;10.67-68) का द्रष्टा कहा गया है। ब्राह्मण-परम्परा में ये उस राजसूय के उद्गाता थे, जिसमें शुनःशेप की बलि दी जानेवाली थी। इनके उद्गीथ (सामगान) दूसरे स्थानों में उद्धृत हैं। कई ग्रन्थों में इन्हें यज्ञक्रियाविधान का मान्य अधिकारी (पञ्चविंश ब्रा. 14.3, 22;12, 4; 11.8, 10; बृ. उ. 1.3.8, 19, 24; कौ. ब्रा. 30.6) बतलाया गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् की वंशावली में अयास्य आङ्गिरस को आभूति त्वाष्ट्र का शिष्य बताया गया है।
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अयोगू
वाजसनेयी संहिता में उद्धृत शिल्पकारों के साथ यह शब्द आया है, जिसका अर्थ संभवतः लोहार है। यह मिश्रित जाति (शूद्र पिता व वैश्य माता से उत्पन्न) का सदस्य हो सकता है। वेबर ने इसका अर्थ दुश्चरित्र स्त्री लगाया है, जब कि जिमर इसे भ्रातृहीन लड़की मानते हैं।
अयोध्या
सरयूतट पर बसी अति प्राचीन नगरी। यह इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की राजधानी एवं भगवान् राम का जन्म स्थान है। भारतवर्ष की सात पवित्र पुरियों में इसका प्रथम स्थान है :
यह मुख्यतः वैष्णव तीर्थ है। तुलसीदास ने अपने रामचरितमानस की रचना लोकभाषा अवधी में यहीं प्रारम्भ की थी। यहाँ अनेक वैष्णव मन्दिर हैं, जिनमें रामजन्मस्थान, कनकभवन, हनुमानगढ़ी आदि प्रसिद्ध हैं।
स्कन्दपुराण (1.54.65) के अनुसार इसका आकार मत्स्य के समान है। इसका विस्तार एक योजन पूर्व, एक योजन पश्चिम, एक योजन सरयू के दक्षिण और एक योजन तमसा के उत्तर है। तीर्थकल्प (अ. 34) के अनुसार यह बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है। योगिनीतन्त्र (24 पृ., 128-29) में भी इसका उल्लेख है। इसके अनुसार यह बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी है। यह प्राचीन कोसल की राजधानी थी, जिसकी स्थापना मनु ने की थी।
जैन तीर्थङ्कर आदिनाथ का जन्म यहीं हुआ था। बौद्ध साहित्य का साकेत यहीं है। टोलेमी ने 'सुगद' और हुयेनसांग ने 'अयुते' नाम से इसका उल्लेख किया है (वैटर्स : युवा-च्वांग्स ट्रैवेल्स इन इण्डिया, पृ. 354)। विस्तृत वर्णन के लिए दे. डॉ. विमलचरण लाहा का अयोध्या पर निबन्ध (जर्नल ऑफ गंगानाथ झा रिसर्च इंस्टीट्यूट, जिल्द 1, पृ. 423-443)।
अरणि
यज्ञाग्नि उत्पन्न करने के लिए मन्थन करने वाली लकड़ी। घर्षण से उत्पन्न अग्नि को यज्ञ के लिए पवित्र माना जाता है। वास्तव में पार्थिव अग्नि भी मूल में वनों में घर्षण के द्वारा ही उत्पन्न हुई थी। यह मूल घटना अब तक यज्ञों के रूपक में सुरक्षित है।
अरण्य
आचार्य शङ्कर जैसे समर्थ दार्शनिक थे वैसे ही वेदान्तमत के संन्यासियों के सम्प्रदाय के योग्य व्यवस्थापक भी। उन्होंने संन्यासियों को दस श्रेणियों में बाँटा था। इनमें से 'अरण्य' एक श्रेणी है। प्रत्येक श्रेणी का नाम उसके नेता के नाम से उन्होंने रखा था। एक श्रेणी के नेता अरण्य थे।
अरण्यद्वादशी
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी अथवा कार्तिक, माघ, चैत्र अथवा श्रावण शुक्ल एकादशी को प्रातःकाल स्नान-ध्यान से निवृत होकर यह व्रतारम्भ किया जाता है। यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता गोविन्द हैं। किन्हीं बारह सपत्नीक ब्राह्मणों, यतियों अथवा गृहस्थों को, जो सद्व्यवहारकुशल हों, उनकी पत्नियों सहित, अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। दे. हेमाद्रि 1, 1091-1094। कुछ हस्तलिखित पोथियों में इसे 'अपरा द्वादशी' कहा गया है।
अरण्य-शिष्यपरम्परा
आचार्य शङ्कर की शिष्य परम्परा में एक उपनाम अरण्य है। उनके चार प्रधान शिष्य थे- पद्मपाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक। इनमें प्रथम के दो शिष्य थे; तीर्थ और आश्रम। हस्तामलक के दो शिष्य थे; वन और अरण्य। सुरेश्वर के तीन शिष्य थे; गिरि, पर्वत और सागर। इसी प्रकार त्रोटक के तीन शिष्य थे; सरस्वती, भारती एवं पुरी। इस प्रकार चार मुख्य शिष्यों के सब मिलाकर दस शिष्य थे। इन्हीं दस शिष्य संन्यासियों के कारण इनका सम्प्रदाय 'दसनामी' कहलाया। शङ्कराचार्य ने चार मुख्य शिष्यों के चार मठ स्थापित किये, जिनमें उनके दस प्रशिष्यों की शिष्यपरम्परा चली आती है। चार मुख्य शिष्यों के प्रशिष्य क्रमशः शृंगेरी, शारदा, गोवर्द्धन और ज्योतिर्मठ के अधिकारी हैं। प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं में से किसी न किसी मठ से सम्बन्धित रहता है। यद्यपि दसनामी ब्रह्म या निर्गुण उपासक प्रसिद्ध हैं पर उनमें से बहुतेरे शैव मत की दीक्षा लेते हैं। शङ्कर स्वामी के शिष्य संन्यासियों ने बौद्ध संन्यासियों की तरह भ्रमण कर सनातन धर्म के जागरण में बड़ी सहायता पहुँचायी।
अरण्यषष्ठी
जेष्ठ शुक्ल षष्ठी को इसका व्रत किया जाता है। राजमार्त्तण्ड (श्लोक सं. 1336) के अनुसार स्त्रियाँ हाथों में पंखे तथा तीर लेकर जंगलों में घूमती हैं। गदाधरपद्धति, पृष्ठ 83 के अनुसार यह व्रत ठीक वैसे ही है जैसे स्कन्दषष्ठी। इस तिथि पर विन्ध्यवसिनी देवी तथा स्कन्द भगवान् की पूजा की जाती है। व्रती लोगों को अपनी संतति के स्वास्थ्य की आशा से कमलदण्ड़ों अथवा कन्द-मूलों का आहार करना चाहिए। दे. कृत्यरत्नाकर, 184; वर्षकृत्यकौमदी, 279।
अरण्यानी
अरण्यानी (वनदेवी) का वर्णन ऋग्वेद (10.146) में प्राप्त होता है। वहाँ वनदेवी या वनकुमारी को, जो वन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोधित धन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोधित किया गया है। वह लज्जालु एवं भयभीत है तथा वन की भूलभुलैया में अपना पथ खो चुकी है। वह तबतक हानिप्रद नहीं है, जब तक कि कोई वन के बीहड़ प्रदेशों में प्रवेश करने तथा देवी के बच्चों (जंगली जन्तुओं) को छेड़ने का दुस्साहस न करे। वन में रात को जो एक हजार एक भयावनी ध्वनियाँ होती हैं उनका यहाँ विविधता से वर्णन है।