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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अमरलोक खण्डधाम
स्वामी चरणदास कृत 'अमरलोक खण्डधाम' अठारहवीं शताब्दी का एक वैष्णव योगमत का ग्रन्थ है।

अमलानन्द
आचार्य अमलानन्द का प्रादुर्भाव दक्षिण भारत में हुआ। वे यादव राजा महादेव और रामचन्द्र के समसामयिक थे। देवगिरि के राजा महादेव ने वि. सं. 1317-1328 तक शासन किया। वि. सं. 1354 में रामचन्द्र पर अलाउद्दीन ने आक्रमण किया था। अमलानन्द ने अपने ग्रन्थ 'वेदान्तंकल्पतरु' में ग्रन्थ रचना के काल के विषय में जो कुछ लिखा है, उससे मालूम होता है कि दोनों राजाओं के समय में ग्रन्थ लिखा गया था। जान पड़ता है कि अमलानन्द तेरहवीं शताब्दी के अन्त में हुए और उनका ग्रन्थ वि. सं. 1354 के पूर्व लिखा गया था, क्योंकि उसमें अलाउद्दीन के आक्रमण का उल्लेख नही मिलता। वे देवगिरि राज्य के अन्तर्गत किसी स्थान में रहते थे। उनके जन्मस्थान आदि के विषय में कुछ नहीं मालूम होता। उनके गुरु का नाम अनुभवानन्द था।
अमलानन्द अद्वैतमत के समर्थक थे। उनके लिखे तीन ग्रन्थ मिलते हैं : पहला 'वेदान्तकल्पतरू' है जिसमें वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या की गयी है। यह भी अद्वैत मत का प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है और बाद के आचार्यों ने इससे भी प्रमाण ग्रहण किया है। दूसरा है 'शास्त्रदर्पण'। इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है। तीसरा ग्रन्थ है 'पञ्चपादिका दर्पण'। यह पद्मपादाचार्य की 'पञ्चपादिका' की व्याख्या है। इन तीनों ग्रन्थों की भाषा प्राञ्जल और भाव गम्भीर हैं।

अमरावती
(1) जिस नगरी में देवता लोग रहते हैं। इसे इन्द्रपुरी भी कहते हैं। इसके पर्याय हैं - (2) पूषभासा, (2) देवपूः, (3) महेन्द्रनगरी, (4) अमरा और (5) सुरपुरी।
(2) सीमान्त प्रदेश (पाकिस्तान) में जलालाबाद से दो मील पश्चिम नगरहार। फाहियान इसको 'नेकिये-लोहो' कहता है। पालि साहित्य की अमरावती यही है। कोण्डण्ण बुद्ध के समय में यह नगर अठारह 'ली' विस्तृत था। यहीं पर उनका प्रथम उपदेश हुआ था।
(3) अमरावती नामक स्तूप, जो दक्षिण भारत के कृष्णा जिले में बेजवाड़ा से पश्चिम और धरणीकोट के दक्षिण कृष्णा के दक्षिण तट पर स्थित है। हुयेनसांग का पूर्व शैल संघाराम यही है। यह स्तूप 370-380 ई. में आन्ध्रभृत्य राजाओं द्वारा निर्मित हुआ था। दे. जर्नल ऑफ् रायल एशियाटिक सोसायटी, जिल्द 3, पृ., 132।

अमा
चन्द्रमण्डल की सोलहवीं कला :
अमा षोडशभागेन देवि प्रोक्ता महाकला। संस्थिता परमा माया देहिनां देहधारिणी।। (स्कन्द पुराण, प्रभास खण्ड)
[हे देवी, चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त आधारशक्ति रूप, क्षयं एवं उदय से रहित, नित्य फूलों की माला के समान सबमें गुँथी हुई अमा नाम की महाकला कही गयी है।]

अमावस्या
कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि। इस तिथि में चन्द्रमा तथा सूर्य एक साथ रहते हैं। यह चन्द्रमण्डल की पन्द्रहवीं कला रूप है अथवा उस क्रिया से उपलक्षित काल है। सूर्य और चन्द्रमा का जो परस्पर मिलन होता है उसे अमावास्या कहते हैं (गोभिल)। उसके पर्याय हैं : अमावास्य, दर्श, सूर्यचन्द्र-संगम, पञ्चदशी, अमावसी, अमावासी, अमामसी, अमामासी। जिस अमावस्या की चन्द्रकला दिखाई दे वह 'सिनीवाली' और जिसकी चन्द्रकला न दिखाई दे वह 'कुहू' कहलाती है।

अमावास्यापयोव्रत
यह व्रत प्रत्येक अमावस्या को केवल दुग्ध पान के साथ किया जाता है और एक वर्ष तक चलता है। इसमें विष्णु-पूजन होता है। दे. हेमाद्रि, व्रत खण्ड, 2, 254।

अमावस्याव्रत
कूर्मपुराण के अनुसार यह शिवजी का व्रत है। पुराणों के अनुसार अमावस्या यदि सोम, मङ्गल या गुरु को पड़े, साथ ही अनुराधा, विशाखा एवं स्वाति नक्षत्रों के साथ हो, तो विशेष पवित्र समझी जाती है। अमावस्या एवं प्रतिपदा के योग से अमावस्या तथा चतुर्दशी का योग अच्छा समझा जाता है।

अमृत
जिससे मरण नहीं होता। इसके पीने वालों की मृत्यु नहीं होती, इसीलिए इसे अमृत कहते हैं। यह समुद्र से निकला हुआ, देवताओं के पीने योग्य तथा अमरत्व प्रदान करने वाला द्रव्य विशेष है। महाभारत में अमृत की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है : ``जिस समय राजा पृथु के भय से पृथ्वी गो बन गयी उस समय देवताओं ने इन्द्र को बछड़ा बनाकर सोने के पात्र में अमृत रूप दूध दुहा। वह दुर्वासा के शाप से समुद्र में चला गया। इसके अनन्तर समुद्र के मन्थन द्वारा अमृत से पूर्ण कलश को लेकर धन्वन्तरि बाहर आये।`` उसके पर्याय हैं पीयूष, सुधा, निर्जर, समुद्रनवनीतक। जल, घृत, यज्ञशेष द्रव्य, अयाचित वस्तु, मुक्ति और आत्मा को भी अमृत कहते हैं।
मध्यंयुगीन तान्त्रिक साधनाओं में अमृत की पर्याप्त खोज हुई। वह रसरूप माना गया। पीछे उसके हठयोगपरक अर्थ किये गये। सिद्धों ने उसे महासुख अथवा सहजरस माना। तान्त्रिक क्रियाओं में वारुणी (मदिरा) इसका प्रतीक है। चन्द्रमा से जो अमृत झरता है उसे हठयोग में सच्चा अमृत कहा गया है। सन्तों ने तान्त्रिकों की वारुणी का निषेध कर हठयोगियों के सोमरस को स्वीकार किया। वैष्णव भक्तों ने भक्ति को ही रसायन अथवा अमृत माना ।

अमृतबिन्दु उपनिषद्
परवर्ती छोटी उपनिषदें, जो प्रायः दैनन्दिन जीवन की आचार नियमावली सदृश हैं, दो समूहों में बाँटी जा सकती हैं- एक संन्यासपरक और दूसरा योगपरक। अमृतबिंदु उपनिषद् दूसरी श्रेणी में में आती है तथा चूलिका का अनुसरण करती है।

अमृतसर
भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सिक्ख संप्रदाय का तो यह प्रमुख तीर्थ और नगर है। यह वर्तमान पंजाब के पश्चिमोत्तर में लाहौर से बत्तीस मील पूर्व स्थित है। अमृतसर का अर्थ है 'अमृत का सरोवर।' यह प्राचीन पवित्र स्थल था, परन्तु सिक्ख गुरुओं के संपर्क से इसका महत्त्व बहुत बढ़ा। यहाँ सरोवर के बीच में सिक्ख धर्म का स्वर्णमंदिर है। सिक्ख परम्परा के अनुसार सर्वप्रथम गुरु नानक (1469-1538 ई.) ने यहाँ यात्रा की। तृतीय गुरू अमरदास भी यहाँ पधारे। सरोवर का विस्तार चतुर्थ गुरु रामदास के समय में हुआ। पंचम गुरु अर्जुन (1588 ई.) के समय देवालयों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। परवर्ती गुरुओं का ध्यान इधर आकृष्ट नहीं हुआ। बीच-बीच में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इस स्थान को कई बार ध्वस्त और भ्रष्ट किया। किन्तु सिक्ख धर्मावलम्बियों ने इसकी पवित्रता सुरक्षित रखी और इसका पुनरुद्धार किया। 1766 ई. में वर्तमान मंदिर का पुनः निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर शृंगार और निर्माण हुआ। फिर इसका उत्तरोत्तर श्रृंगार और विस्तार होता गया।
नगर में पाँच सरोवर हैं-अमृतसर, संतोषसर, रायसर, विवेकसर तथा कमलसर (कौलसर)। इनमें अमृतसर प्रमुख है, जिसके बीच में स्वर्णमंदिर स्थित है। इस मंदिर को ‘दरबार साहब’ (गुरु का दरबार) भी कहते हैं। दशम गुरु गोविंदसिंह ने गुरु का पद समाप्त कर उसके स्थान पर ‘ग्रन्थ साहब’ की प्रतिष्ठा की। ‘ग्रन्थ साहब’ ही इसमें पधराये जाते हैं। प्रतिदिन अकालबुंगा से ‘ग्रन्थ साहब’ यहाँ विधिवत् लाये जाते और रात्रि को वापस किये जाते हैं। इस तीर्थ में हरि की पौड़ी, अड़सठ तीर्थ, दुखभंजन वेरी आदि अन्य पवित्र स्थान हैं। जलियान वाला बाग में जनरल ओडायर द्वारा किये गये नरमेघ के कारण अमृतसर राष्ट्रीय तीर्थ भी बन गया है। गुरु नानक विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात् यह प्रसिद्ध शिक्षाकेन्द्र के रूप में भी विकसित हो रहा है।


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