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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अभिषेक
मन्त्रपाठ के साथ पवित्र जल-सिंचन या स्नान। यजुर्वेद अनेक ब्राह्मणों एवं चारों वेदों की श्रौत क्रियाओं में हम अभिषेचनीय कृत्य को राजसूय के एक अंग के रूप में पाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में तो अभिषेक ही मुख्य विषय है। धार्मिक अभिषेक व्यक्ति अथवा वस्तुओं की शुद्धि के रूप में विश्व की अति प्राचीन पद्धति है। अन्य देशों में अनुमान लगाया जाता है कि अभिषेक रुधिर से होता था जो वीरता का सूचक समझा जाता था। शतपथ ब्राह्मण (5.4.2.2) के अनुसार इस क्रिया द्वारा तेजस्विता एवं शक्ति व्यक्ति विशेष में जागृत की जाती है।
ऐतरेय ब्राह्मण का मत है कि यह धार्मिक कृत्य साम्राज्य शक्ति की प्राप्ति के लिए किया जाता था। महाभारत में युधिष्ठिर का अभिषेक दो बार हुआ था, पहला सभापर्व की (33.45) दिग्विजयों के पश्चात् अधिकृत राजाओं की उपस्थिति में राजसूय के एक अंश के रूप में तथा दूसरा भारत युद्ध के पश्चात्। महाराज अशोक का अभिषेक राज्यारोहण के चार वर्ष बाद एवं हर्ष शीलादित्य का अभिषेक भी ऐसे ही विलम्ब से हुआ था। प्रायः सम्राटों का ही अभिषेक होता था। इसके उल्लेख बृहत्कथा, क्षेमेन्द्र (17), सोमदेव (15.110) तथा अभिलेखों में (एपिग्राफिया इंडिका, 1.4.5.6) पाये जाते हैं। साधारण राजाओं के अभिषेक के उदाहरण कम ही प्राप्त है, किन्तु स्वतन्त्र होने की स्थिति में ये भी अपना अभिषेक कराते थे। महाभारत (शा. प.) राजा के अभिषेक को किसी भी देश के लिए आवश्यक बतलाता है। युवराजों के अभिषेक के उदाहरण भी पर्याप्त प्राप्त होते हैं, यथा राम के 'यौवराज्यभिषेक' का रामायण में विशद वर्णन है, यद्यपि यह राम के अन्तिम राज्यारोहण के समय ही पूर्ण हुआ है। यह पुष्‍याभिषेक का उदाहरण है। अथर्ववेद परिशिष्‍ट (4), वराहमिहिर की बृहत्संहिता (48) एवं कालिकापुराण (49) में बताया गया है कि यह संस्कार चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग काल (पौषमास) में होना चाहिए।
अभिषेक मन्त्रियों का भी होता था। हर्षचरित में राजपरिवार के सभासदों के अभिषेक (मूर्धाभिषिक्ता अमात्या राजानः) एवं पुरोहितों के लिए 'बृहस्पतिसव' का उल्लेख है। मूर्तियों का अभिषेक उनकी प्रतिष्ठा के समय होता था। इसके लिए दूध, जल (विविध प्रकार का), गाय का गोबर आदि पदार्थों का प्रयोग होता था।
बौद्धों ने अपनी दस भूमियों में से अन्तिम का नाम 'अभिषेकभूमि' अथवा पूर्णता की अवस्था कहा है। अभिषेक का अर्थ किसी भी धार्मिक स्नान के रूप में अग्निपुराण में किया गया है।
अभिषेक की सामग्रियों का वर्णन रामायण, महाभारत, अग्निपुराण एवं मानसार में प्राप्त है। रामायण एवं महाभारत से पता चलता है कि वैदिक अभिषेक संस्कार में तब यथेष्ट परिवर्तन हो चुका था। अग्निपुराण का तो वैदिक क्रिया से एकदम मेल नहीं है। तब तक बहुत से नये विश्वास इसमें भर गये थे, जिनका शतपथब्राह्मण में नाम भी नहीं है। अभिषेक के एक दिन पूर्व राजा की शुद्धि की जाती थी, जिसमें स्नान प्रधान था। यह निश्चय ही वैदिकी दीक्षा के समान था, यथा (1) मन्त्रियों की नियुक्ति, जो पहले अथवा अभिषेक के अवसर पर की जाती थी; (2) राज्य के रत्नों का चुनाव, इसमें एक रानी, एक हाथी, एक श्वेत अश्व, एक श्वेत वृषभ, एक अथवा दो; श्वेत छत्र, एक श्वेत चमर (3) एक आसन (भद्रासन, सिंहासन, भद्रपीठ, परमासन) जो सोने का बना होता था तथा व्याघ्रचर्म से आच्छादित रहता था; (4) एक या अनेक स्वर्णपात्र जो विभिन्न जलों, मधु, दुग्ध, घृत, उदुम्बरमूल तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से परिपूर्ण होते थे। मुख्य स्नान के समय राजा रानी के साथ आसन पर बैठता था और केवल राजपुरोहित ही नहीं अपितु अन्य मन्त्री, सम्बन्धी एवं नागरिक आदि भी उसको अभिषिक्त करते थे। संस्कार इन्द्र की प्रार्थना के साथ पूरा होता था जिससे राजा को देवों के राजा इन्द्र के तुल्य समझा जाता था। राज्यारोहण के पश्चात् राजा उपहार वितरण करता था एवं पुरोहित तथा ब्राह्मण दक्षिणा पाते थे। अग्निपुराण एवं मानसार के अनुसार राजा नगर की प्रदक्षिणा द्वारा इस क्रिया को समाप्त करता था । अग्निपुराण इस अवसर पर बन्दियों की मुक्ति भी वर्णन करता हैं, जैसा कि दूसरे शुभ अवसरों पर भी होता था।

अभिषेचनीय
दे. 'अभिषेक'।

अभीष्ट तृतीया
यह व्रत मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया को प्रारंभ होता है। इसमें गौरीपूजन किया जाता है। दे. स्कन्द पुराण, काशीखण्ड, 83, 1-18।

अभीष्ट सप्तमी
किसी भी मास की सप्तमी को यह व्रत किया जा सकता है। इसमें पाताल, पृथ्वी, द्वीपों तथा सागरों का पूजन होता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1.791।

अ(भ्य)व्यङ्गसप्तमी
श्रावण शुक्ल सप्तमी। इसका कृत्य प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है, जिसमें सूर्य को `अव्यङ्ग` समर्पित किया जाता है। कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड (पृ० 150) में अव्यङ्ग की व्याख्या इस प्रकार की गयी है : ``सफेद सूत के धागे से साँप की केंचुली के समान पोला अव्यङ्ग बनाया जाय। इसकी लम्बाई अधिक से अधिक 122 अंगुल, मध्यम रूप से 120 अथवा कम से कम 108 अंगुल होनी चाहिए।`` इसकी तुलना आधुनिक पारसियों द्वारा पहनी जाने वाली `कुस्ती` से की जा सकती है। दे० भविष्य पुराण (ब्रह्मपर्व), 111.1-8 (कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड में उद्धृत); हेमाद्रि, व्रत-खण्ड, जिल्द प्रथम, 741-743; व्रतप्रकाश (पत्रात्मक 116)। भविष्यपुराण (ब्राह्म०) 142. 1-29 में हमें अव्य.ङ्गोत्पत्ति की कथा दृष्टिगोचर होती है। इसके अठारहवें पद्य में `सारसनः` शब्द आता है जो हमें `सारचे` (एक बाहरी जाति) की स्मृति दिलाता है। `अव्यङ्गाख्य व्रत` के लिए दे० नारदपुराण 1. 116, 29-31।
लगता है कि संस्कृत का अव्यङ्ग शब्द पारसी 'अवेस्ता' के 'ऐव्यङ्घन' का परिवर्तित रूप है। अवेस्ता के शब्द का अर्थ है 'कटिसूत्र', मेखला या करधनी। भविष्य पुराण के 16वें श्लोक में जो 'जदि राना' के प्रसंग में अव्यङ्ग शब्द आया है, वह लगता है, उन पारसी लोगों का कटिसूत्र ही है जो स्थानान्तरित होकर भारत आये थे और अपनी कमर पर ऊनी ‘कुश्ती’ सद्र नाम के वस्त्र पर बाँधते थे। पारसियों की ‘कुश्ती’ के दोनों छोर सर्प की मुखाकृति के होते हैं जिसमें बराबर की दूरी रखते हुए गाँठे लगायी जाती हैं। दे. एम. एम. मुरज-बान की ‘पारसीज इन इण्डिया’, प्रथम जिल्द, पृष्ठ 93। प्रतीत होता है कि सूर्य की यह पूजा यहाँ पर ईरान से आयी अथवा पारसियों की दैनिक चर्या से गृहीत हुई। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (59.19) में लिखा है कि सूर्य के पुजारी या तो मग लोग हों अथवा शाकद्वीपीय ब्राह्मण। दे. इण्डियन एण्टिक्टी, जिल्‍द आठवीं, पृ. 328 तथा कृष्णदास मिश्र का ‘मग व्यक्ति’।

अभ्युत्थान
किसी अतिथि के आगमन पर संमानार्थ उठने की क्रिया :
अलमलमभ्युत्थानेन, ननु सर्वस्याभ्यागतो गुरुरिति भवानेवास्माक् पूज्यः। (नागानन्द)
[आप न उठिए। अभ्यागत निश्चय ही सबका गुरु होता है, आप ही हम लोगों के पूज्य हैं।]

अमङ्गल
जिससे शुभ नहीं होता। बहुत से अशुभसूचक पदार्थ अमाङ्गलिक माने जाते हैं। विवाह आदि उत्सव, यात्रा तथा किसी भी कार्यारम्भ के समय अमङ्गल को बचाया जाता है।

अमरकण्टक
मध्य प्रदेश का एक पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ स्थान। इसका शाब्दिक अर्थ है (अमर + कण्‍टक) 'देवताओं का शिखर'। यह विलासपुर जिले में मेकल की श्रृंखला पर स्थित है। यहीं पर नर्मदा का उद्गम है, जिसके कारण नर्मदा 'मेकल सुता' कहलाती है। प्रतिवर्ष सहस्रों तीर्थयात्री अमरकण्टक से चलकर नर्मदा के किनारे-किनारे खंभात की खाड़ी तक परिक्रमा करने जाते हैं जहाँ नर्मदा समुद्र में मिलती है।
अमरकण्टक मध्यभारत का जलविभाजक है। यहाँ से सोन उत्तरपूर्व की ओर, महानदी पूर्व की ओर और नर्मदा पश्चिम की ओर बहती है। आज भी अमरकण्टक जनाकीर्ण प्रदेशों से अलग एकान्त में स्थित है। अतः इसकी पवित्रता अधिक सुरक्षित है। कुछ विद्वानों के अनुसार मेघदूत (1.17) का आम्रकूट यही है। मार्कण्डेय पुराण (अ. 17) में इसका सोम पर्वत अथवा सुरयाद्रि कहा गया है। मत्स्यपुराण (22-28) कुरुक्षेत्र से भी अधिक पवित्रता अमरकण्टक को प्रदान करता है। दे. 'नर्मदा'।

अमरदास
सिक्खों के दस गुरुओं में इनका तीसरा क्रम है। ये गुरु अङ्गद के पश्चात् गद्दी पर बैठे। इन्होंने बहुत से भजन लिखे हैं जो 'गुरुग्रन्थ साहब' में संगृहीत हैं।

अमरनाथ
कश्मीर का प्रसिद्ध शैव तीर्थ, जो हिमालय की भैरव घाटी श्रृंखला में स्थित है। समुद्रस्तर से 16000 फुट की ऊँचाई पर पर्वत में यहाँ लगभग 16 फुट लम्बी 25 से 30 फुट चौड़ी और 15 फुट ऊँची प्राकृतिक गुफा है। उसमें हिम के प्राकृतिक पीठ पर हिमनिर्मित प्राकृतिक शिवलिङ्ग है। यह धारणा सच नहीं है कि यह शिवलिङ्ग अमावास्या को नहीं रहता और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बनता हुआ पूर्णिमा को पूर्ण हो जाता है तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से क्रमशः घटता है। पूर्णिमा से भिन्न तिथियों में यात्रा करके इसे देख लिया गया है कि ऐसी कोई बात नहीं है। हिमनिर्मित शिवलिङ्ग जाड़ों में स्वतः बनता है और बहुत मन्दगति से घटता है परन्तु कभी पूर्ण लुप्त नहीं होता। अमरनाथगुफा में एक गणेशपीठ तथा एक पार्वतीपीठ हिम से बनता है। अवश्य ही, अमरनाथ की एक अद्भुत विशेषता है कि यह हिमलिङ्ग तथा पीठ ठोस पक्‍की बरफ का होता है, जबकि गुफा के बाहर मीलों तक सर्वत्र कच्ची बरफ मिलती है।
अमरनाथगुफा से नीचे सिन्धु की एक सहायक नदी अमरगंगा का प्रवाह है। यात्री इसमें स्नान करके गुफा में जाते हैं। सवारी के घोड़े अधिकतर एक या आध मील दूर ही रुक जाते हैं। अमरगङ्गा से लगभग दो फर्लांग ऊपर गुफा में जाना पड़ता है। गुफा में जहाँ-तहाँ बूँद-बूँद करके जल टपकते हैं। कहा जाता है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर रामकुण्ड है और उसी का जल गुफा में टपकता है। गुफा के पास एक स्थान से सफेद भस्म-जैसी मिट्टी निकलती है, जिसे यात्री प्रसाद स्वरूप लाते हैं। गुफा में वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं। यदि वर्षा न होती हो, बादल न हों, धूप निकली हो तो गुफा में शीत का कोई भी अनुभव नहीं होता। प्रत्येक दशा में इस गुफा में यात्री अनिर्वचनीय अद्भुत सात्विकता तथा शान्ति का अनुभव करता है।


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