logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अपवान
ऋग्वेद (यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुः। 4.7.1) में अप्नवान का उल्लेख भृगुओं के साथ हुआ है। लुडविंग अप्नवान के भृगुकुल में उत्पन्न होने का अनुमान लगाते हैं।

अप्पण्णाचार्य
एक प्रसिद्ध वेदान्ती टीकाकार। तैत्तिरीयोपनिषद् के बहुत से भाष्य एवं वृत्तियाँ हैं। इनमें शङ्कराचार्य का भाष्य तो प्रसिद्ध है ही; आनन्दतीर्थ, रङ्गरामानुज, सायणाचार्य ने भी इस उपनिषद् के भाष्य लिखे हैं। अप्पण्णाचार्य, व्यासतीर्थ और श्रीनिवासाचार्य ने आनन्दतीर्थकृत भाष्य की टीका की है।

अप्पय दीक्षित
स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित अद्वैत सम्प्रदाय की परम्परा में जो उच्च कोटि के विद्वान् हुए हैं उनमें अप्पय दीक्षित भी बहुत प्रसिद्ध हैं। विद्वता की दृष्टि से इन्हें वाचस्पति मिश्र, श्रीहर्ष एवं मधुसूदन सरस्वती के समकक्ष रखा जा सकता है। ये एक साथ ही आलङ्कारिक, वैयाकरण एवं दार्शनिक थे। इन्हें 'सर्वतन्त्रस्वतन्त्र' कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
इनका जीवन काल सं. 1608 -1680 वि. है। इनके पितामह आचार्य दीक्षित एवं पिता रङ्गराजाध्वरि थे। ऐसे पण्डितों का वंशधर होने के कारण इनमें अद्भुत प्रतिभा का विकास होना स्वाभाविक ही था। पिता और पितामह के संस्कारानुसार इन्हें अद्वैतमत की शिक्षा मिली थी। तथापि ये परम शिवभक्त थे। अतः शैवसिद्धान्त के लिए ग्रन्थ रचना करने में भी इनकी रुचि थी। तदनुसार इन्होंने 'शिवतत्त्वविवेक' आदि पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। इसी समय नमर्दा तीरनिवासी नृसिंहाश्रम स्वामी ने इन्हें अपने पिता के सिद्धान्त का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने परिमल, न्यायरक्षामणि एवं सिद्धान्तलेश नामक ग्रन्थों की रचना की।
अप्पय दीक्षित अपने पितामह के समान ही विजयनगर के राजाओं के सभापण्डित थे। कुछ काल तक भट्टोजिदीक्षित के साथ इन्होंने काशी में निवास किया था। अप्पय दीक्षित शिवभक्त थे एवं भट्टोजि वैष्णव, तो भी दोनों का सम्बन्ध अतिमधुर था। दोनों ही शास्त्रज्ञ थे। अतः उनकी दृष्टि में वस्तुतः शिव और विष्‍णु में कोई भेद नहीं था। शिवभक्त होते हुए भी इनकी रचनाओं में विष्णुभक्ति का प्रमाण मिलता है। कई स्थानों पर इन्होंने भक्तिभाव से विष्णु वन्दना की है।
इनके ग्रन्थों से सर्वतोमुखी प्रतिभा का परिचय मिलता है। मीमांसा के तो ये धुरन्धर पण्डित थे। इनकी 'शिवार्कमणिडीपिका' नाम की पुस्तक में इनका मीमांसा, न्याय, व्याकरण एवं अलङ्कार शास्त्र सम्बन्धी प्रगाढ़ पाण्डित्य पाया जाता है। इन्होंने अद्वैतवादी होकर भी श्रीकण्‍ठसम्प्रदायानुसार 'शिवार्कमणिदीपिका' में विशिष्टाद्वैत के पक्ष का पूर्णतया समर्थन किया है। इसी प्रकार शांकर सम्प्रदाय के समर्थन में विरचित 'सिद्धान्तलेश' में अद्वैत सिद्धान्त की पूर्णतया रक्षा की है तथा अद्वैतवादी, आचार्य के मतभेदों का दिग्दर्शन कराया है। आचार्यों के एकजीववाद, नाना जीववाद, विम्ब प्रतिबिम्बवाद, अवच्छेदवाद एवं साक्षित्व आदि विषयों में बहुत मतभेद हैं। उन सबका स्पष्टतया अनुभव कर दीक्षितजी ने अपना विचार प्रकट किया है। इनके लिखे हुए ग्रन्थों के नाम यहाँ दिये जाते हैं-
1. कुवलयानन्द 2. चित्रमीमांसा 3. वृत्तिवार्तिक 4. नामसंग्रहमाला (व्याकरण) 5. नक्षत्रवादावली वा पाणिनितन्त्रवादनक्षत्रमाला 6. प्राकृतचन्द्रिका (मीमांसा) 7. चित्रपुट 8. विधिरसायन 9. सुखोपजीवनी 10. उपक्रमपराक्रम 11. वादनक्षत्रमाला (वेदान्त) 12. परिमल 13. न्यायरक्षामणि 14. सिद्धान्तलेश 15. मतसारार्थसंग्रह (शाङ्कर सिद्धान्त) 16. न्यायमञ्जरी (माध्वमत) 17. न्यायमुक्तावली (रामानुजमत) 18. नियमयूथमालिका (श्रीकण्ठमत) 19. शिवार्कमणिदीपिका 20. रत्नत्रयपरीक्षा (शैवमत) 21. मणिमालिका 22. शिखरिणीमाला 23. शिवतत्वविवेक 24.शिवतर्कस्तव 25. ब्रह्मतर्कस्तव 26. शिवार्चनचन्द्रिका 26. शिवध्यानपद्धति 28. आदित्यस्तवरत्न 29. मध्वतन्त्रमुखमर्दन 30. यादवाभ्युदय व्याख्या। इसके अतिरिक्त शिवकर्णामृत, रामायणतात्पर्यसंग्रह, शिवाद्वैतविनिर्णय, पञ्चरत्नस्तव और उसकी व्याख्या, शिवानन्दलहरी, दुर्गाचन्द्रकलास्तुति और उसकी व्याख्या, कृष्णध्यानपद्धति और उसकी व्याख्या तथा आत्मार्पण आदि निबन्ध भी इनकी उत्कृष्ट कृतियाँ हैँ।

अप्पर
सातवीं, आठवीं तथा नवीं शताब्दियों में तमिल प्रदेश में शैव कवियों का अच्छा प्रचार था। सबसे पहले तीन के नाम आते हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से वैष्णव आलवारों के समानान्तर ही समझे जा सकते हैं। इन्हें दूसरे धार्मिक नेताओं की तरह 'नयनार' कहते हैं, किन्तु अलग से उन्हें, 'तीन' की संज्ञा से जाना जाता है। उनके नाम हैं- नान सम्बन्धर, अप्पर एवं सुन्दरमूर्ति। पहले दो का उद्भव सप्तम शताब्दी में तथा अन्तिम का आठवीं या नवीं शताब्दी में हुआ। आलवारों के समान ये भी गायक कवि थे जो शिव की भक्ति में पगे हुए थे। ये एक मन्दिर से दूसरे में घूमा करते थे, अपनी रची स्तुतियों को गाते थे तथा नटराज व उनकी प्रिया उमा की मूर्ति के चारों ओर आत्मविभोर हो नाचते थे। इनके पीछे-पीछे लोगों का दल भी चला करता था। इन्होंने पुराणों के परम्परागत शैव सम्प्रदाय की भक्ति का अनुसरण किया है।

अप्रतिरथ
विपक्ष के महारथियों को हरानेवाला पराक्रमी वीर, जिसके रथ के सामने दूसरे का रथ न ठहर सके अर्थात् युद्ध में जिसका कोई जोड़ न हो। यह एक ऋषि का भी नाम है। ऐतरेय (8.10) तथा शतपथब्राह्मण (9.2.3.15) में इन्हें ऋग्वेद के एक सूक्त (10.103) का द्रष्टा बतलाया गया है, जिसमें इन्द्र की स्तुति अजेय योद्धा के रूप में की गयी है।

अप्सरा
अप्सरस् शब्द का सम्बन्ध जल से है (अप्जल)। किन्तु गन्धर्वों की स्त्रियों को अप्सरा कहते हैं, जो अपने अलौकिक सौन्दर्य के कारण स्वर्ग की नृत्यांगना कहलाती हैं। वे इन्द्र की सभा से भी सम्बन्धित थीं। जो ऋषि अपनी घोर तपस्या के कारण इन्द्र के सिंहासन के अधिकार की चेष्टा करते थे, उन्हें, इन्द्र इन्हीं अप्सराओं के द्वारा पथभ्रष्ट किया करता था। स्वर्ग की प्रधान अप्सराओं के कुछ नाम हैं तिलोत्तमा, रम्भा, उर्वशी, वृताची, मेनका आदि।

अपान
श्वास से सम्बन्ध रखने वाले सभी शब्द 'अन्' धातु से बनते हैं जिनका अर्थ है श्वास लेना अथवा प्राणवायु का नासिकारन्ध्रों से ग्रहण-विसर्जन करना। इसका लैटिन समानार्थक 'अनिमस' तथा गाथ समानार्थक 'उसनन' है। श्वास-क्रिया का प्रधान शब्द जो उपर्युक्त धातु से बना है, वह है 'प्राण' (प्रपूर्वक अन)। इसके अन्तर्गत पाँच शब्द आते हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान। 'प्राण' दो प्रणालियों का द्योतक है, वायु का ग्रहण करना तथा निकालना। किन्तु प्रधानतया इसका अर्थ ग्रहण करना ही है, तथा 'अपान' का अर्थ वायु का छोड़ना 'निश्वास' है। प्राण तथा अपान द्वन्द्वसमास के रूप में अधिकतर व्यवहृत होते हैं। कहीं-कहीं अपान का अर्थ श्वास लेना एवं प्राण का अर्थ निश्वास है। विश्व की किसी भी जाति ने श्वासप्रणाली की भौतिक एवं आध्यात्मिक उपादेयता पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना प्राचीन भारतवासियों ने दिया। उन्होंने इसे एक विज्ञान माना तथा इसका प्रयोग यौगिक एवं याज्ञिक कर्मों में किया। आज भी यह कला भारतभू पर प्राणवान् है। दे. 'प्राण'।

अपान्तरतमा
महाभारत से यह बात स्पष्ट जाती है कि तत्त्वज्ञान के पहले आचार्य अपान्तरतमा थे। यथा-
अपान्तरतमाश्चैव वेदाचार्यः स उच्यते।' यहाँ वेद का अर्थ वेदान्त है। अपान्तरतमा की कथा इस प्रकार है :
नारायण के आह्वान करने पर सरस्वती से उत्पन्न हुआ अपान्तरतमा नाम का पुत्र सामने आ खड़ा हुआ। नारायण ने उसे वेद की व्याख्या करने की आज्ञा दी। उसने आज्ञानुसार स्वायम्भुव मन्वन्तर में वेदों का विभाग किया। तब भगवान् ने उसे वर दिया के 'वैवस्वत मन्वन्तर में भी वेद के प्रवर्तक तुम ही होगे। तुम्हारे वंश में कौरव उत्पन्न होंगे। उनकी आपस में कलह होगी और वे संहार के लिए तैयार होंगे। तब तुम अपने तपोबल से वेदों का विभाग करना. वसिष्ठ के कुल में पराशर ऋषि से तुम्हारा जन्म होगा।' इस कथा से स्पष्ट है कि इस ऋषि ने वेदों का विभाग किया। वेदान्तशास्त्र के आदि प्रवर्तक भी यही ऋषि हैं। वेदान्तशास्त्र पर इनका पहले कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा भी सम्भव है। भगवद्गीता में कहा हुआ 'ब्रह्मसूत्र' इन्हीं का हो सकता है, क्योंकि बादरायण के ब्रह्मसूत्र गीता के बहुत बाद के हैं। उनकी चर्चा तो गीता में हो ही नहीं सकती।

अपांनपात्
ऋग्वेद के सूक्तों (7.47, 4.97 एवं 10.9, 30) में आपः अथवा आकाश के जल की स्तुति है। किन्तु कदाचित् पृथ्वी के जल को भी इसमें सम्मिलित समझा गया है। आपः का स्थान सूर्य के पार्श्व में है। वरुण उसके बीच घूमते हैं। इन्द्र ने अपने वज्र से खोदकर उनकी नहर तैयार की है। 'अपांनपात्' जल का पुत्र है, जो अग्नि का विद्युतरूप है, क्योंकि वह बिना ईंधन के चमकता है।

अपूप
हवन-सामग्री की एक वस्तु, जिसका ब्राह्मणों और श्रौतसूत्रों में प्रायः उल्लेख हुआ है। प्राचीन काल में रोट, मिठाइयों, भुने व तले अन्नों का यज्ञों में हवन किया जाता था। वेदों में देवों को यज्ञ में अपूप (पूप) देने का निर्देश है। आज भी छोटे-छोटे ग्रामदेवालयों में रोट, दूध व फूल देवता पर चढ़ाये जाते हैं। शिव को रोट व पिण्ड दिया जाता है। प्राचीन हिन्दुओं के पाक्षिक यज्ञों में चावल को पकाकर उसका गोला बनाया जाता था, फिर उसे कई टुकड़ों में काटकर उस पर घी छिड़क कर अग्नि में हवन किया जाता था। ये पिण्ड के टुकड़े भिन्न-भिन्न देवों के नाम पर अग्नि में दिये जाते थे जिनमें अग्नि भी एक देवता होता था। यह सारी क्रिया परिवार का स्वामी करता था। अवशेष टुकड़ों को परिवार के सदस्य श्रद्धापूर्वक (प्रसाद के रूप में) ग्रहण करते थे।


logo