कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट और गोवर्धन पूजा होती है। घरों देवालयों में छप्पन प्रकार (अनेकों भाँति) के व्यञ्जन बनते हैं और उनका कूट (शिखर या ढेर) भगवान् को भोग लगता है। यह त्यौहार भारतव्यापी है। दूसरे दिन यमद्वितीया होती है। यमद्वितीया को सबेरे चित्रगुप्तादि चौदह यमों की पूजा होती है। इसके बाद ही बहिनों के घर भाइयों के भोजन करने की प्रथा भी है जो बहुत प्राचीन काल से चली आती है।
अन्नपूर्णा
शिव की एक पत्नी अथवा शक्ति, जो अपने उपासकों को अन्न देकर पोषित करती है। इसका शाब्दिक अर्थ है 'अन्न अथवा खाद्यसामग्री से पूर्ण।' काशी में अन्नपूर्णा का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐसा विश्वास है कि अन्नपूर्णा के आवास के कारण काशी में कोई व्यक्ति भूखा नहीं रहता।
अन्नप्राशन
एक संस्कार, जिसमें शिशु को प्रथम बार अन्न चटाया जाता है। छठे अथवा आठवें महीने में बालक का, पाँचवें अथवा सातवें महीने में बालिका का अन्नप्राशन होता है। प्रायः इसी समय शिशु को दाँत निकलते हैं, जो इस बात के द्योतक हैं कि अब वह ठोस अन्न खाकर पचा सकता है। सुश्रुत (शारीर स्थान, 10.64) के अनुसार छठे महीने में शिशु को लघु (हलका) तथा हित (पोपणकारी) अन्न खिलाना चाहिए। मार्कण्डेय पुराण (वीरमित्रोदय, संस्कार काण्ड में उद्धृत) के अनुसार प्रथम बार शिशु को मधु-घी से युक्त खीर सोने के पात्र में खिलाना चाहिए (मध्वाज्यकनकोपेतं प्राशयेत् पायसन्तु तम्।)। संभवतः श्रीमन्तों के लिए यह विधान है।
अन्नप्रशासन संस्कार के दिन सबसे पहले यज्ञीय पदार्थ वैदिक मन्त्रों के साथ पकाये जाते हैं। उनके तैयार होने पर अग्नि में एक आहुति निम्नांकित मन्त्र से डाली जाती है :
देवताओं ने वाग्देवी को उत्पन्न किया है। उससे बहुसंख्यक पशु बोलते हैं। यह मधुर ध्वनि वाली अति प्रशंसित वाणी हमारे पास आये। स्वाहा (पारस्कर गृह्यसूत्र, 1.19.2)
द्वितीय आहुति ऊर्ज्जा (शक्ति) को दी जाती है :
आज हम ऊर्ज्जा प्राप्त करें। इन आहुतियों के पश्चात् शिशु का पिता चार आहुतियाँ निम्नलिखित मन्त्र से अग्नि में छोड़ता है :
मैं उत्प्राण द्वारा भोजन का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! अपान द्वारा भोजन का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! नेत्रों द्वारा दृश्य पदार्थों का उपभोग कर सकूं, स्वाहा ! श्रवणों द्वारा यश का उपभोग कर सकूँ, स्वाहा ! (पारस्कर गृह्यसूत्र, 1.19.3)
इसके पश्चात् 'हन्त' शब्द के साथ शिशु का भोजन कराया जाता है।
अन्नम् भट्ट
न्याय-वैशेषिक का मिश्रित बालबोध ग्रन्थ रचनेवालों में अन्नम् भट्ट का नाम सादर लिया जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ 'तर्कसंग्रह' बहुत प्रसिद्ध है।
अन्नमय कोष
उपनिषदों के अनुसार शरीर में आत्मतत्त्व पाँच आवरणों से आच्छादित है, जिन्हें, 'पञ्चकोष' कहते हैं। ये हैं अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनन्दमय कोष। यहाँ 'मय' का प्रयोग विकार अर्थ में किया गया है। अन्न (भुक्त पदार्थ) के विकार अथवा संयोग से बना हुआ कोष 'अन्नमय' कहलाता है। यह आत्मा का सबसे बाहरी आवरण है। पशु और अविकसित-मानव भी, जो शरीर को ही आत्मा मानते हैं, इसी धरातल पर जीता है। दे. 'कोष' तथा 'पञ्चकोष '।
अन्नाद्य
अथर्ववेद तथा ऐतरेय ब्राह्मण में उद्धृत 'वाजपेय यज्ञ' एक प्रकार के राज्यारोहण का ही अङ्ग बताया गया है। किन्तु इसके उद्देश्य के बारे में विविध मत हैं। इसके विविध उद्देश्यों में से एक 'अन्नाद्य' है, जैसा कि शाङ्खायन के मत से प्रकट है। अधिक भोजन (अन्न) की इच्छा वाला इस यज्ञ को करता है। 'वाजपेय' का अर्थ उन्होंने भोजनपान माना है।
अन्यपूर्वा
जिसके पूर्व में अन्य है वह कन्या। वचन आदि के द्वारा एक को विवाहार्थ निश्चित किये जाने के बाद किसी अन्य के साथ विवाहित स्त्री को अन्यपूर्वा कहते हैं। ये सात प्रकार की होती हैं :
सप्तपौनर्भवाः कन्या वर्जनीयाः कुलाधमाः। वाचा दत्ता मनोदत्ता कृतकौतुकमङ्गला।। उदकस्पर्शिता या च या च पाणिगृहीतिका। अग्निं परिगता या तु पुनर्भूप्रसवा च या।। इत्येताः काश्यपेनोक्ता दहन्ति कुलमग्निवत्।। (उद्वाहतत्त्व)
[सात पुनर्भवा कन्याएं कुल में अधम मानी गयी हैं। इनके साथ विवाह नहीं करना चाहिए। वचन से, मन से, विवाह मङ्गल रचाकर, जलस्पर्श पूर्वक, हाथ पकड़ कर, अग्नि की प्रदक्षिणा करके पहले किसी को दी गयी तथा एक पति को छोड़कर दुबारा विवाह करने वाली स्त्री से उत्पन्न कन्या- ये अग्नि के समान कुल को जला देती हैं। ऐसा काश्यप ने कहा है।]
अन्वयार्थप्रकाशिका
यह 'संक्षेप शारीरक' के ऊपर स्वामी रामतीर्थ लिखित टीका है। इसका रचनाकाल सत्रहवीं शताब्दी है।
अपराजितासप्तमी
भाद्र शुक्ल सप्तमी को इसका व्रत प्रारम्भ किया जाता है। इसमें एक वर्ष तक सूर्य-पूजन होता है। भाद्र शुक्ल की सप्तमी को अपराजिता कहा जाता है। चतुर्थी को एक समय भोजन पञ्चमी को रात्रि में भोजन तथा षष्ठी को उपवास करके सप्तमी को पारण होता है। दे. कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 132-135, हेमाद्रि का व्रत-खण्ड, 667-668।
अपराजिता
युद्ध में अपराजिता अर्थात् दुर्गा। दशमी (विशेष कर आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी) को अपराजिता की पूजा का विधान है :
दशम्यां च नरैः सम्यक् पूजनीयापराजिता। मोक्षार्थ विजयार्थञ्च पूर्वोक्त विधिना नरैः।। नवमी शेष युक्तायां दशम्यामपराजिता। ददाति विजयं देवी पूजिता जयवर्द्धिनी।।
[मोक्ष अथवा विजय के लिए मनुष्य पूर्वोक्त विधि से दशमी के दिन अपराजिता देवी की अच्छे प्रकार से पूजा करे। वह दशमी नवमी से युक्त होनी चाहिए। इस प्रकार करने पर जय को बढ़ाने वाली देवी विजय प्रदान करती है।]