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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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अँगेरना
क्रि. स.
[सं. अंग + ईर = जाना]
सहना।

अँगोछि
क्रि. अ.
[हिं. अँगोछना]
अँगोछे या कपड़, से पोंछकर।
उत्तम बिधि सौं मुख पखरायौं ओदे बसन अँगौछि-१०-६०९।

अँगोछे
क्रि. अ.
[हिं. अँगोछना]
गीले कपड़े से पोंछ दिये।
अति सरस बसन तन पोंछ। ले कर-मुखकमल अँगोछे-१०-१८३।

अँगोछे
संज्ञा
अनेक अँगोछे या देह पोछने के कपड़े।

अँचयो,  अँचयौ
क्रि. स. भूत.
[सं. अचमन, हिं. अचवना]
पिया, पान किया।
(क) कछु कछु खाई दूध अँचयौ तब जम्हात जननी जाने-१०-२३०। (ख) ग्वाल सखा सबहीं पय अँचयौ---३९६।

अँचयो,  अँचयौ
क्रि. स. भूत.
[सं. अचमन, हिं. अचवना]
भोजन के पश्चात हाथ-मुँह धोकर कुल्ली की।

अंचर
संज्ञा
[सं. अंचल]
अंचल, आँचल, साड़ी का छोर, पला।
निकट बुलाइ बिठाइ निरखि मुख, अंचर लेत बलाइ---९-८३।

अँचरा
संज्ञा
[सं. अँचल]
आँचल, पल्ला।
(क) जसुमति मन अभिलाष करै। कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै---१० - ७६। (ख) अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पिलावति---१०-११०।

अंचल,  अँचल
संज्ञा
[सं.]
साड़ी का छोर, आँचल, पल्ला।
(क) इतनी कहत, सुकाग उहाँ तें हरि डार उड़ि बैठ्यौ। अंचल गाँठि दई, दुख भाज्यौ, सुख जु अनि उर पैठ्यौ-९-१६४। (ख) तेजु बदन झाँप्यौ झुकि अचल इहै न दुष मेरे मन मान-सा ० उ० १५।

अंचल,  अँचल
संज्ञा
[सं.]
दुपट्टा, दुशाला।
लोचन सजल, प्रेम पुलकित तन, गर अंचल, कर-माल---१-१८९।


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