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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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अंत
संज्ञा
[सं.]
सीमा, अवधि, पराकाष्ठा।
भुजा बाम पर कर छबि लागति उपमा अंत न पार-६८७। (ख) सोभा सिन्धु न अंत रही री--१०-२९।

अंत
संज्ञा
[सं.]
अंतकाल, मरण, मृत्यु।
(क) छन मंगुर यह सबै स्याम बिनु अंत नहिं सँग जाइ-.-१-३१७। (ख) पर्‌यौ जु काज अंत की बिरियाँ तिनहुँ न अनि छुड़ायौ---२-३०।

अंत
संज्ञा
[सं.]
फल, परिणाम।

अंत
संज्ञा
[सं. अंतर]
अंतःकरण, हृदय

अंत
संज्ञा
[सं. अंतर]
भेद, रहस्य।
(क) पूरन ब्रह्म पुरान बखानै। चतुरानन सिव अंत न जानै-१०-३। (ख) जाको ब्रह्मा अंत न पावै--३९३।

अंत
संज्ञा
[सं. अंत्र]
आँत, अंतड़ी।

अंत
क्रि. वि.
अंत में, निदान।

अंत
क्रि. वि.
[सं. अन्यत्र---अनत-अंत]
दूसरे स्थान पर, अलग, दूर।
कुंज कुंज में क्रीड़ा करि करि गोपिन कौ सुख देंहों। गोप सखन सँग खेलत डोलौं तिन तजि अंत न जैहौं।

अंतक
संज्ञा
[सं.]
अंत करनेवाला, यमराज, काल।
भव अगाध-जल-मग्न महा सठ, तजि पद-कूल रह्यो। गिरा रहित ब्रृक-ग्रसित अजा लौं, अन्तक अनि गह्यो-१-२०१,

अंतक
संज्ञा
[सं.]
सन्निपात ज्वर का एक भयंकर भेद जिसमें रोगी किसी को नहीं पहचानता।
व्याकुल नंद सुनते ए बानी।. डसि मानौं नागिनी पुरानी। ब्याकुल सखा गोप भए व्याकुल। अंतक दशा भयौ भय आकुल-२३६४९


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