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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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अंतर
क्रि. वि.
भीतर, अंदर।
(क) ज्यों जल मसक जीव-घट अंतर मम माया इमि जानि---२-३८। (ख) हौं अलि केतने जतन बिचारौं। वह मूरति वाके उर अंतर बसी कौन बिधि टारौं सा. ७५।

अंतर
क्रि. वि.
ऊपर, पर।
निरखि सुन्दर हृदय पर भृगु-पाद परम सुलेख। मनहूँ सोभित प्रभु अन्तर सम्भू-भूषन बेष-६६५।

अंतर
वि.
आंतरिक।
(क) मलिन बसन हरि हेरि हित अंतर गति तन पीरो जनु पातै-सा. उ.४६। (ख) अंगदान बल को दै बैठी। मंदिर आजु आपने राधा अंतर प्रेम उमेठी--सा. १००।

अंतरगत
संज्ञा
[सं. अंतर्गत]
हृदय, अतःकरण, चित।
ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै---१२।

अंतरजामी, अँतरजामी
वि.
[सं. अंतर्यामी]
हृदय की बात जानने वाला।
(क) कमल-नैन, करुनामय, सकल-अंतरजामी-१-१२४। (ख) सूर बिनती करै, सुनहु नँद-नंद तुम कहा कहौ खोलि कै अंतरजामी-१-२१४।

अंतरदाह
संज्ञा
[सं.]
हृदय की जलन; हृदय का संताप
अंतरदाह जु मिट्यो ब्यास कौ इक चित ह्वै भागवत किऐं-१-८९।

अंतरधान
संज्ञा
[स अतर्द्धान]
लोप, अदर्शन।

अंतरधान
वि.
गुप्त, अलक्ष, अदृश्य।
करि अँतरधान हरि मोहिनी रूप कौं, गरुड़ असवार ह्वै तहाँ आए ८-८।

अंतरध्यान
संज्ञा
[सं. अंतर्द्धान]
अदृश्य, अंतर्हित, लुप्त।
भयैं अंतरध्यान बीते पाछिली निस जाम--सा. ११८।

अंतरपट
संज्ञा
[सं.]
परदा, आड़, ओट


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