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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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अंतकारी
संज्ञा
[सं.]
अंत या संहार करने वाला,विनाशक।
भक्त भय हरन असुर अंतकारी १० उ.---३१।

अंतगति
संज्ञा
[सं.]
अंतिम दशा, मृत्यु।

अंतत
क्रि. वि.
[हि अंत]
अंत में।
जाति | स्वभाव मिटैं नहिं सजनी अंतत उबरी कुबरी-३ १८८।

अंतर
संज्ञा
[सं.]
भेद, भिन्नता, अलगाव।
(क) जब जहाँ तन बेष धारौं तहाँ तुम हित जाइ। नैकु हूँ नहि करौं अंतर, निगम भेद न पाइ ६८३। (ख) जो जासौं अंतर नहि राखै सो क्यों अंतर राखें---११९२

अंतर
संज्ञा
[सं.]
मध्यवर्ती काल, बीस का समय।
(क) इहि अंतर नृपतभया आई। (ख) पिता देखि मिलिबे को धाई-९-३। तेजु बदन झाँप्यो झुकि अंचल इहै न दुख मेरे मन मान। यह पैं दुसह जु इतनेहि अंतर उपजि परैं कछु आन --सा० उ. १५।

अंतर
संज्ञा
[सं.]
ओट, आड़।
(क) जा दिन ते नैनन अंतर भयो अनुदिन अति बाढ़ति है बारि २७९५। (ख) एक दिवस किन देखहू, अंतर रहौ छपाई। दस को है धौं बीस को नैननि देखौ जाइ - १०६८। (ग) कठिन बचन सुनि स्रवन जानकी सकी न बचन सँभारि। तृन अंतर दै दृष्टि तरौंधी, दियों नयन जल ढारि-९-७९। (घ) पट अंतर दै भोग लगायो आरति करी बनाइ-२६१।

अंतर
वि.
अंतर्द्धान, लुप्त।
अगर्व जानि पिय अंतर ह्वै रहे सो मैं बृया बढ़ायौ री-१८१६।

अंतर
क्रि. वि.
दूर, अलग, पृथक।
कहाँ गए गिरिधर तजि मोकौं ह्याँ कैसे मैं आई। सुरस्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई-१८०३।

अंतर
संज्ञा
[सं. अंतर]
हृदय, अंतःकरण, मन।
(क) गोबिंद प्रीति सबनि की मानत। जिहिं जिहिं भाइ करत जन सेवा, अंतर की गति जानत१-१३। (ख) सूर तो सुहृद मानि, ईश्वर अंतर जानि, सुनि सठ झूठौ हठ-कपट न ठानि-१-७७। (ग) राजा पुनि तब क्रीड़ा करै। छिन भरहू अंतर नहि धरे-४-१२। (घ) अंतर ते हरि प्रगट भए। रहत प्रेम के बस्य कन्हाई युवतिन को मिल हर्ष दए-१८३२।

अंतर
संज्ञा
[सं. अंतर]
हृदय या मन की बात।
तब मैं कह्यौ, कौन हैं मोसी, अंतर जानि लई-१८०३।


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