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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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अँटक्यौ
क्रि. अ. भूत.
[हिं. अटकना]
फंस गया, उलझा, लगा रहा।
पूर सनेह ग्वालि मन अँटक्यौ अंतर प्रीति जाति नहिं तोरी-१०-३०५। (ख) पद-रिपु पट अँटक्यौ न सम्हारति, उलटपलट उबरी-६५९।

अँटना
क्रि. अ.
[सं. अट् = चलना]
समा जाना।

अँटना
क्रि. अ.
[सं. अट् = चलना]
पूरा होना, खप जाना।

अंड
संज्ञा
[सं.]
ब्रह्मांड, लोकपिंड, विश्व।
(क) सब्दादिक तैं पंचभूत सुंदर प्रगटाए। पुनि सबकौ रुचि अंड, आपु मैं आपु समाए २-३६। (ख) तिनतैं पंचतत्व उपजायौ। इन सबकौ इक अंड बनायो-३-१३। (ग) एक अंड कौ भार बहुत है, गरब धर्‌यौ जिय सेष-५७०।

अंड
संज्ञा
[सं.]
कामदेव।
अति प्रचंड यह अंड महा भट जाहि सबै जग जानत। सो मदहीन दीन ह्वै बपुरो कोपि धनुष सर तानत-३३९२।

अंड
संज्ञा
[सं.]
अंडा।

अंडा
संज्ञा
[सं. अंड]
मादा जीव जन्तुओं से उत्पन्न गोल पिड जिसमें से बाद को बच्चा निकलता है।
यह अंडा चेतन नहिं होई। करहु कृपा सो चेतन होइ-३-१३।

अंडा
संज्ञा
[सं. अंड]
शरीर।

अंत
संज्ञा
[सं.]
समाप्ति, इति, अवसान।
लाज के साज मैं हुती ज्यों द्रोपदी, बढ्यौ तन-चीन नहिं अंत पायौ-१-५।

अंत
संज्ञा
[सं.]
शेष भाग, अंतिम अंश।
सूरदास भगवंत भजन करि अंत बार कछ लहियै-१-६२।


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