पूर सनेह ग्वालि मन अँटक्यौ अंतर प्रीति जाति नहिं तोरी-१०-३०५।
(ख) पद-रिपु पट अँटक्यौ न सम्हारति, उलटपलट उबरी-६५९।
अँटना
क्रि. अ.
[सं. अट् = चलना]
समा जाना।
अँटना
क्रि. अ.
[सं. अट् = चलना]
पूरा होना, खप जाना।
अंड
संज्ञा
[सं.]
ब्रह्मांड, लोकपिंड, विश्व।
(क) सब्दादिक तैं पंचभूत सुंदर प्रगटाए। पुनि सबकौ रुचि अंड, आपु मैं आपु समाए २-३६।
(ख) तिनतैं पंचतत्व उपजायौ। इन सबकौ इक अंड बनायो-३-१३।
(ग) एक अंड कौ भार बहुत है, गरब धर्यौ जिय सेष-५७०।
अंड
संज्ञा
[सं.]
कामदेव।
अति प्रचंड यह अंड महा भट जाहि सबै जग जानत। सो मदहीन दीन ह्वै बपुरो कोपि धनुष सर तानत-३३९२।
अंड
संज्ञा
[सं.]
अंडा।
अंडा
संज्ञा
[सं. अंड]
मादा जीव जन्तुओं से उत्पन्न गोल पिड जिसमें से बाद को बच्चा निकलता है।
यह अंडा चेतन नहिं होई। करहु कृपा सो चेतन होइ-३-१३।
अंडा
संज्ञा
[सं. अंड]
शरीर।
अंत
संज्ञा
[सं.]
समाप्ति, इति, अवसान।
लाज के साज मैं हुती ज्यों द्रोपदी, बढ्यौ तन-चीन नहिं अंत पायौ-१-५।