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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-VI)

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निरंतर
अंतरहित।
वि.

निरंतर
निबिड़, घना।
वि.

निरंतर
अविचल, स्थायी।
वि.

निरंतर
प्रत्यक्ष, प्रकट, जो अंतर्धान न हो।
उ.- निकसि खंभ तैं नाथ निरंतर, निज जन राखि लियौ - १-३८।
वि.

निरंतर
ब्रह्म, ईश्वर।
संज्ञा

निरंतर
विष्णु।
संज्ञा

निरंध
बिलकुल अंधा।
उ.- करि निरंध निबहै दै माई आँखिनि रथ-पद धूरि- २६९३।
वि.
[सं.]

निरंध
महामूर्ख।
वि.
[सं.]

निरंध
घनघोर अंधकार।
वि.
[सं.]

निरंध
बिना अन्न का।
वि.
[सं. निरंधस्]


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