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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-VI)

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निरमान
रचना, निर्माण।
उ.- नख, अँगुरी, पग, जानु, जंघ, कटि, रचि कीन्हौ निरमान-६४३।
संज्ञा
[सं. निर्माण]

निरमाना
निर्माण करना।
क्रि. स.
[सं. निर्माण]

निरमायल
देवार्पित वस्तु जो विसर्जन के पूर्व ‘नैवेद्य’ और पश्चात ‘निर्माल्य’ कहलाती है। शिव जी के अतिरिक्त सब देवताओं के निर्माल्य- पुष्प और मिष्ठान्न--ग्रहण किये जाते हैं।
उ.- (क) अब तौ सूर यहै बनि आई, हर कौ निज पद पाऊँ। ये दससीस ईस निरमायल, कैंसैं चरन छुवाऊँ-९-१३२। (ख) हरि के चलत भईं हम ऐसी मनहु कुसुम निरमायल दाम-२५३०।
संज्ञा
[सं. निर्माल्य]

निरमूल
जड़रहित, मूलरहित।
वि.
[सं. निर्मूल]

निरमूलना
जड़ से उखाड़ना।
क्रि. स.
[सं. निमूलन]

निरमूलना
नष्ट कर देना।
क्रि. स.
[सं. निमूलन]

निरमोल
अनमोल, अमूल्य।
वि.
[सं. उप. निस्, निर + हिं. मोल]

निरमोल
बहुत बढ़िया।
उ.- ताहि कैं हाथ निरमोल नग दीजियै, जोइ नीकैं परखि ताहि जानै-१-२२३।
वि.
[सं. उप. निस्, निर + हिं. मोल]]

निरमोलक
अमूल्य, अनमोल।
उ.- तुम्हरैं भजन सबहि सिंगार। जो कोउ प्रीति करै पद-अंबुज, उर मंडत निरमोलक हार-१-४१।
वि.
[हिं. निरमोल]

निरमोही
जिसमें मोह-ममता न हो, निर्दय, कठोर-हृदय।
उ.- ऐसी निरमोही माई महरि जसोदा भई बाँध्यौ है गोपाल लाल बाँहनि पसारि-३६२।
वि.
[हिं. निर्मोही]


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