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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-VI)

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निरत
किसी काम में लीन।
वि.
[सं.]

निरत
नाच, नृत्य।
संज्ञा
[सं. नृत्य]

निरतत
नाचता है, नृत्य करते हैं।
उ.- (क) कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरी ब्रज-बालक-सेनु - ४४८। (ख) सूर स्याम काली पर निरतत, आवत हैं ब्रज ओक - ५६५।
क्रि. अ.
[सं. नर्त्तन]

निरतना
नाचना, नृत्य करना।
क्रि. स.
[सं. नर्त्तन]

निरति
बहुत अधिक प्रीति या रति।
संज्ञा
[सं.]

निरति
लीनता, लिप्तता।
संज्ञा
[सं.]

निरदइ, निरदई
दयाहीन, निष्ठुर।
उ.- (क) उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै। नैकहुँ न थकत पानि, निरदई अहीरी-३४८। (ख) है निरदई, दया कछु नाहीं-३६१। (ग) को निरदई रहै तेरैं घर-३६८।
वि.
[सं. निर्दय]

निरदय, निरदै
दयारहित, निष्ठुर।
उ.- (क) लघु अपराध देखि बहु सोचति, निरदय हृदय बज सम तोर-३५७। (ख) सब निरदैं सुर असुर सैंल सखि सायर सर्प समेत-२८५९।
वि.
[सं. निर्दय]

निरदोष, निरदोषी
जो दोषी न हो।
वि.
(सं. निर्दोष)

निरधन
धनहीन, दरिद्र।
उ.- सोइ निरधन, सोइ कृपन दीन हैं, जिन मम चरन बिसारे-१-२४२।
वि.
[सं. निर्धन]


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