Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-X)
व्यर्थ ही निकट या पास (आशा लगाये) बैठा रहता है।
उ.-ज्यौं सुक सेमर सेव आस लागि निसि-बासर हठि चित्त लगायौ-१-३२६।
टहल या परिचर्या करनेवाला, नौकर-चाकर, भृत्य।
उ.-(क) इंदु समान हैं जाके सेवक, नर बपुरे की कहा गनी-१-३९। (ख) अनाचार सेवक सौं मिलि कै करत चबाइनि काम-१-१४१। (ग) सेवक राज, नाथ बन पठए, यह कब लिखी बिघाता-९-४९। (घ) सेवक कौ सेवापन एतौ, अज्ञाकारी होइ-९-९९। (ङ) सुर-नर-असुर-कीट-पसु-पच्छी सब सेवक प्रभु तेरे-५७०।
उ.-जिहिं जिहिं बिधि सेवक सुख पावै, तिहिं बिधि राखत मन कौं-१-९। (ख) तीनि लोक के ताप निवारन सूर स्याम सेवक सुखकारी-१-३०। (ग) सूर सुकृत सेवक सो साँचौ स्यामहिं सुमिरैगौ-१-७५।
व्यवहार या सेवन करनेवाला।
किसी स्थान में नियम पूर्वक अथवा उहेश्य-विशेष से वास करनेवाला।
उ.- (क) खरिक दुहावन जाति हों, तुम्हरी सेवकाई-७१३। (ख) चूक परी हरि की सेवकाई-२६९५।
सेवकनी, सेवकिन, सेवकिनि, सेवकिनी, सेविका, सेविकिन
सेवा करनेवाली, टहलिनो, परिचारिका।
उ.- रमा सेवकिनी देऊँ करि, कर जोरैं दिन याम-१६२५।
सेवकनी, सेवकिन, सेवकिनि, सेवकिनी, सेविका, सेविकिन
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