Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-VI)
उ.- सुमिरन, ध्यान, कथा हरिजू की, यह एकौ न रही। लोभी, लंपट, बिषयिनि सौं हित, यौं तेरी निबही -१-३२४।
निर्वाह किया, पालन किया, रक्षा की।
उ.- रही ठगी चेटक सौ लाग्यौ, परि गई प्रीति सही।¨¨¨¨¨। सूर स्याम पै ग्वालि सयानी सरबस दै निबही - १०-२८१।
उ.- हम जान्यौ ऐसेहिं निबहैगी उन कछु औरै ठानी - ३३५९।
पार पाऊँगा, मुक्ति या छुटकारा पाऊँगा।
उ.- माधौ जू, सो अपराधी हौं। जनम पाइ कछु- भलौ न कीन्हौ, कहौ सु क्यों निबहौं - १-१५१।
पार पाओगे, बचोगे, छुट्टी पाओगे, छुटकारा मिलेगा।
उ.- लरिकनि कौं तुम सब दिन भुठवत मोसौं कहा कहौगे। मैया मैं माटी नहिं खाई, मुख देखौं, निबहौगे - १०-२५३।
निर्वाह किया, पूरा किया, पाला।
उ.- सूरदास धनि धनि वह प्रानी, जो हरि कौ ब्रत लै निबह्यौ - २-८।
उ.- दुर्बासा कौ साप निबारयौ, अंबरीषपति राखी - १-१०।
निबाहने की क्रिया या भाव।
संबंध, क्रम या परंपरा का निर्वाह।
उ.- कीन्हे नेह-निबाह जीव जड़ ते इत उत नहिं चाहत - १-२१०।
(वचन आदि का) पालन या पूर्ति।