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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-VI)

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देवनागरी वर्णमाला का बाईसवाँ व्यंजन और प वर्ग का दूसरा वर्ण जिसका उच्चारण-स्थान ओष्ठ है।

फंका
कोई सूखा महीन चूर्ण लेकर फाँकने की क्रिया।
संज्ञा
[हिं. फाँकना]

फंका
चूर्ण की एक बार में फाँकी जानेवाली मात्रा।
संज्ञा
[हिं. फाँकना]

फंका
टुकड़ा, कतरा।
संज्ञा
[हिं. फाँकना]

फंकी
फाँकने की क्रिया।
संज्ञा
[सं. फंका]

फंकी
चूर्ण की मात्रा जो एक बार में फाँकी जाय।
संज्ञा
[सं. फंका]

फंग, फँग
फंदा, बंधन।
उ.- (क) सदा जाहु चोरटी भई, आजु परी फँग मोर-१०२३। (ख) दूरि करौं लँगराई वाकी, मेरे फंग जो परिहै-१२६४। (ग) अब तो स्याम परे फँग मेरे सूधे काहे न बोलत-१५१०। (घ) चतुर काम फँग परे कन्हाई अबधौं इनहिं बुझावै को री-१५९३। (ङ) मति कोई प्रीति के फंग परै-२८०८।
संज्ञा
[सं. बंध]

फंग, फँग
प्रीति या अनुराग का बंधन।
उ.- (क) रैनि कहूँ फँग परे कन्हाई कहति सबै करि दौर-२०९०। (ख) कीधौं कतहूँ लमि रहे, फँग परे पराए-२१५९।
संज्ञा
[सं. बंध]

फंद
बंध, बंधन।
उ.- (क) हमैं नन्दनन्दन मोल लिये। जम के फंद काटि मुकराये, अभय अजाद किये-१-१७१। (ख) काटौ न फंद मों अन्ध के अब विलंब कारन कवन-१-१५०। (ग) त्यागे भ्रम-फंद द्वंद निरखि के मुखारबिंद सूरदास अति अनंद मेटे दुख भारे।
संज्ञा
[सं. बंध, हिं. फंदा]

फंद
सस्सी या बाल का फंदा, जाल, फाँस।
उ.- (क) माधौ जी, मन सबही बिधि पोच।¨¨¨¨¨¨ लुबध्यौ स्वाद मीन-आमिष ज्यौं, अवलोक्यौ नहिं फंद-१-१०२। (ख) हरि-पद-कमल को मकरन्द। मलिन मति मन मधुप परिहरि बिषय नीर-रस फंद। (ग) मनहुँ काम रचि फंद बनाए कारन नन्दकुमार-१०७९।
संज्ञा
[सं. बंध, हिं. फंदा]


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