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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-V)

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थाट
संज्ञा
पुं.
(हिं. ठाट)
रचना, बनावट, श्रृंगार।

थाट
संज्ञा
पुं.
(हिं. ठाट)
तड़क-भड़क।

थात
वि.
(सं. स्थातृ, स्थाता)
जो टिका या स्थित हो, ठहरा या बैठा हुआ।
उ.— द्वै पिक बिंब बतीस बज्रकन एक जलज पर थात—१६८२।

थाति
संज्ञा
स्त्री.
(हिं. थात)
स्थिरता, ठहराव।

थाति, थाती
संज्ञा
स्त्री.
(हिं. थात = स्थित)
संचित धन, पूँजी, गथ।
उ.—पलित केस, कफ कैठ विरूध्यौ, कल न परति दिन-राती। माया-मोह न छाँड़ै तृष्ना, ये दोऊ दुंख-थाती—१-११८।

थाति, थाती
संज्ञा
स्त्री.
(हिं. थात = स्थित)
दूसरे के पास रखी गयी ऐसी वस्तु या संपत्ति जो माँगने पर मिल जाय, धरोहर।
उ. —थाती प्रान तुम्हारी मोपै, जनमत ही जौ दीन्ही। सो मैं बाँटि दई पाँचनि कौं, देह जमानति कीन्ही—१-१९६।

थाति, थाती
संज्ञा
स्त्री.
(हिं. थात = स्थित)
कुसमय के लिए संचित वस्तु।

थान
संज्ञा
पुं.
(सं. स्थान)
स्थान, ठौर-ठिकाना।
उ.-(क) उहाँई प्रेम भक्ति को थान—२८०६।

थान
संज्ञा
पुं.
(सं. स्थान)
रहने या ठहरने का स्थान, डेरा, निवासस्थान।
उ. — (क) कहियौ बच्छ, सँदेसै इतनौ जब हम वै इक थान। सोवत काग छुयौ तन मेरौ, बरहहिं कीनौ बान—९-८३। (ख) बिपुल विभूति लई चतुरानन एक कमल करि थान—२३४०।

थान
संज्ञा
पुं.
(सं. स्थान)
किसी देवी-देवता के रहने का स्थान।
मुहा.- थान का टर्रा— वह जो अपने घर या स्थान में ही बढ़-बढ़ कर बोले, बाहर कुछ न कर सके। थान में आना— (१) चौपाये का धूल में लोटकर प्रसन्न होना। (२) खुशी में आकर कुलाँचे मारना।


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