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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-V)

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थारू, थारु, थाल, थाला
संज्ञा
पुं.
(हिं. थाली)
बड़ी थाली, बड़ी तश्तरी।

थाला
संज्ञा
पुं.
(सं. स्थालक)
थाँवला, आल-बाल।

थाला
संज्ञा
पुं.
(सं. स्थालक)
वृक्ष के चारों ओर बना चबूतरा।

थालिका
संज्ञा
स्त्री.
(सं. स्थालिका)
थाला, थाँवला।

थालिका
संज्ञा
स्त्री.
(हिं. थाली)
थाली।
उ.— झलमल दीप समीप सौंजे भरि लेकर कंचन थालिका —८०६।

थाली
संज्ञा
स्त्री.
(सं. स्थाली =बटलोई)
काँसे-पीतल आदि धातुओं की बनी हुई बड़ी तश्तरी।
मुहा.- थाली का बैंगन— वह व्यक्ति जो निश्चित सिद्धांत न रखता हो और थोड़ॆ हानि-लाभ से विचलित होकर कभी एक पक्ष में हो जाय, कभी दूसरे। थाली बजाना (१) साँप का विष उतारने के लिए थाली बजाकर मंत्र पढ़ना। (२) बच्चा होने पर थाली बजाने की रीति करना जिससे उसको डर न लगे।

थाव
संज्ञा
स्त्री.
(हिं थाह)
थाह, गहराई का अंत।

थावर, थावरु
वि.
(सं. स्थावर)
जो एक स्थान से दूसरे पर लाया न जा सके, अचल, जंगम का विपरीतार्थक।
उ. — (क) थावर-जंगम, सुर-असुर, रचे सबै मैं आइ - २-३६। (ख) थावर-जंगम मैं मोहिं ज नैं। दयासील, सबसौं हित मानै ३-१३।

थाह
संज्ञा
स्त्री.
(सं. स्था, हिं. थाह)
जलाशयों का तल या थल भाग, गहराई का अंत।
उ.— (क) ममता-घटा, मोह की बूँदैं, सरिता मैन अपारो। बूड़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरु जन ओट अधारौ-१—२०९। (ख) बूड़त स्याम, थाह नहिं पावौं, दुस्साहस-दुख-सिंधु परी—१-२४९।
मुहा.- थाह मिलना (लगना)— (१) गहरे पानी में थल का पता लगना। (२) किसी भेद का पता चलना। डूबते को थाह मिलना— संकट में पड़े हुँ आश्रयहीन व्यक्ति को सहारा मिलना।

थाह
संज्ञा
स्त्री.
(सं. स्था, हिं. थाह)
कम गहरा पानी।


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