उ.—तुमहीं करत त्रिगुन बिस्तार। उतपति, थिति, पुनि करत सँहार-७-२१
थिति
संज्ञा
स्त्री.
(सं. स्थिति)
अवस्था, दशा।
थिर
वि.
(सं. स्थिर)
जो चलता हुआ या हिलता-डोलता न हो, ठहरा हुआ।
थिर
वि.
(सं. स्थिर)
शांत, धीर, अचंचल, अविचलित।
थिर
वि.
(सं. स्थिर)
जो एक ही अवस्था में रहे, स्थायी, अविनाशी।
उ.—(क) सूरदास कछु थिर न रहैगौ, जो आयौ सो जातौ—१-३०२। (ख) जीवन जन्म अल्प सपनौ सौ, समुझि देखि मन माहीं। बादर-छाँइ, धूम-घौराहर, जैसैं थिर न रहाहीं—१-३१९। (ग) मरन भूलि, जीवन थिर जान्यौ बहु उद्यम जिय धारयौ—१-३३६। (घ) चेतन जीव सदा थिर मानौ—५-४। (च) नर-सेवा तैं जो सुख होइ; छनभंगुर थिर रहे न सोइ-७-२। (छ) असुर कौ राज थिर नाहिं देखौं— ८-८।