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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-I)

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ओजना
क्रि. स.
[सं. अवरुंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. ओझन]
(भार) ऊपर लेना, सहन करना।

ओजस्विता  
संज्ञा
[सं.]
तेज, कांति, प्रभाव।

ओझ, ओझर  
संज्ञा
[सं. उदर, हिं. ओझर]
पेट।

ओझ, ओझर  
संज्ञा
[सं. उदर, हिं. ओझर]
आँ त।

ओझा  
संज्ञा
[सं. उपाध्याय, प्रा. उवज्झाओ, उवज्झाय]
ब्राह्मणों की एक जाति।

ओझा  
संज्ञा
[सं. उपाध्याय, प्रा. उवज्झाओ, उवज्झाय]
भूत-प्रेत झाड़ने वाला।

ओट
संज्ञा
[सं. उट  -घास फूस]
रोक, आड़, अतर, व्यवधान, ओझल।
(क) ना हरि-हित, ना तु हित, इनमें एकौ तौ न भई। ज्यौं भधु माखी सँचति निरन्तर, बन की ओट लई---१-५०। (ख) बसन ओट करि कोट बिसंभर, परन न दीन्हौं झाँको---१-११३। (ग) ममता-घटा मोह की बूंदै, सरिता मैने अपारी। बूड़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरुजन ओट अधारौ--१.२०९। (घ) पलक भरे की ओट ने सहतौ अब लागे दिन जान-२७४७। (ङ) सगुन सुमेर प्रगट देखि यत तुम तृन की ओट दुरावत-३ ११५ (च) ललना लै लैं उछंग अधिक लोभ लागै। निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं-१०.९०। (छ) सूरदास प्रभु दुरत दुराये डुँगरनि ओट सुमेरु---४५८।

ओट
संज्ञा
[सं. उट  -घास फूस]
शरण, रक्षा।
(क) बड़ी है राम नाम की ओट। सरन गये प्रभु काढ़ि देत नहिं करत कृपा कैं कोट--१-२३२। (ख) भागी जिय अपमान जा न जनु सकुच ने ओट लई---२७९१।

ओटना
क्रि. स.
[सं. आवर्तन, पा. आवटठन ]
कपास के बिनौले अलग करना।

ओटना
क्रि. स.
[सं. आवर्तन, पा. आवटठन ]
अपनी ही बात बार बार कहना।


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