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Braj Bhasha Soor-Kosh (Vol-II)

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कॅंपावात
हिलाता-डुलाता (है), कपित करता (है)।
मुँह सम्हारि तू बोलत नाहीं, कहत बराबरि बात। पावहुगे अपनौ कियौ अबहीं, रिसनि कॅंपावत गात - ५३७।
क्रि. स.
[हिं, कँपना’ का प्रे. कॅंपना]

कंपित
काँपता हुआ, अस्थिर, चलायमान।
छोभित सिंधु, सेष सिर कंपित, पवन भयौ गति पंग - ९ - १५८।
वि.
[सं]

कंपै
काँपता या हिलता डोलता है।
(क) कंपै भुव, बर्षा नहिं होइ - १ - २८६।, (ख) कर कंपै, कंकन नहिं छूटै - ६ - २५। (ग) जसुदा मदन गुपाल सुवावै। देखि सपन - गति त्रिभुवन कंपै, ईस विरंचि भ्रमावै - १० - ६५।
क्रि. स.
[हिं. कॅंपना]

कँप्‍यौ
डरा, भयभीत हुआ।
रिपिन कह्यौ, तुव सतम जज्ञ आरम्भ लखि, इन्द्र कौ राज-हित कॅंप्यौ हीयौ–४ - ११।
क्रि. स.
[सं. कंपन, हिं. काँपना]

कंबर, कंबल
ऊन का बना मोटा कपड़ा जो ओढ़ने-बिछाने के काम आता है।
संज्ञा
[सं. कंबल]

कंबु
शंख।
कंबु- कंठधर, कौस्तुभ- मनि-धर, वनमालाधर, मुक्तमाल-धर - ५७२।
संज्ञा
[सं.]

कंबु
शंख की चूड़ी।
संज्ञा
[सं.]

कंबु
घोंघ।
संज्ञा
[सं.]

कंबुक
शंख,
संज्ञा
[सं.]

कंबुक
शंख की चूड़ी।
संज्ञा
[सं.]


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