अनुत्तर परमशिव। पर प्रकाश। पर तत्त्व। शिव शक्ति के सामरस्य भाव को द्योतित करने वाला वर्ण। अकुल का अभिव्यंजक वर्ण। पृथ्वी से लेकर शक्ति पर्यंत संपूर्ण कुल को प्रथन करने वाली कौलिकी नामक पराशक्ति से अभिन्न अकुल नामक अनुत्तर तत्त्व को अभिव्यक्त करने वाला वर्ण। शिव से सर्वथा अभिन्न स्वभाव वाली अनुत्तरा एवं कुलस्वरूपा शक्ति से युक्त शरीर वाले परमशिव को अभिव्यक्त करने वाला आद्यवर्ण। परावाणी में परमेश्वर का नाम। मातृका का पहला वर्ण। (तं, सा. पृ . 12, पटलत्रि.वि., पृ. 153)।
काश्मीर शैव दर्शन
अं
अनुत्तरशक्ति से लेकर परिपूर्ण क्रियाशक्ति पर्यंत समस्त अंतः विमर्शन के पूरा होने पर जब अंतः विमर्श में आने वाली भिन्न भिन्न चौदह भूमिकाओं को द्योतित करने वाले अ से लेकर औ पर्यंत चौद्ह वर्ण अभिव्यक्त हो जाते हैं तो उस अवस्था में पहुँचने पर जब अभी बहिः सृष्टि होने वाली ही होती है तो परमेश्वर अपनी इच्छा द्वारा अपने पर आरूढ़ हुई उस समस्त अंतःसृष्टि का स्वरूपस्थतया विमर्शन करता है। उसके इस प्रकार के विमर्श को मातृका का पंद्रहवाँ वर्ण अं द्योतित करता है। परमेश्वर की अत्यंत आनंदाप्लावित अवस्था को अं परामर्श कहते हैं। इस अवस्था को द्योतित करने वाले वर्ण को भी अं कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 14,15; तन्त्रालोक आ. 3-110,111)। साधक योगी को भी अं की उपासना के द्वारा उसी आनंद से आप्लावित स्वस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।
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अः
विसर्ग। विसर्ग का अर्थ होता है सृष्टि। परमेश्वर अपनी परिपूर्ण पारमेश्वरी शक्ति के विमर्शन के द्वारा अपने भीतर स्वात्मतया सतत विद्यमान स्रष्टव्य जगत् को बाहर इदंता के रूप में अर्थात् स्फुट-प्रमेयतया प्रकट करने के प्रति जब पूरी तरह से उन्मुख हो जाता है, तो विश्वसृष्टि के प्रति उसकी इस स्वाभाविक उन्मुखता को अभिव्यक्त करने वाले मातृका वर्ण को विसर्ग कहते हैं। उसी का शुद्ध स्वरूप अः है। सारी बाह्य सृष्टि ह वर्ण पर पूरी हो जाती हैं। उसका आरंभ अः से होता है। अतः अः को ही विसर्ग (सृष्टि) कहते हैं। इसीलिए इसे अर्धहकार भी कहते हैं। उच्चारण भी इन दोनों वर्णो का एक जैसा ही होता है। (तन्त्र सार पृ. 15)।
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अंड
पृथ्वी इत्यादि पाँच भूतों से मंडित शक्ति तत्त्व से नीचे अनंत वैचित्र्य युक्त समस्त प्रपंच को ही अंड कहते हैं। एक एक व्यक्ति को पिंड कहते हैं। वस्तुतः अंड और पिंड में कोई भेद नहीं माना गया है। (महार्थमंजरी परिमल, पृ. 80)। काश्मीर शैव में अंड को भिन्न भिन्न तत्त्वों एवं भुवनों के विभाग का कारण माना गया है। सभी तत्त्वों और भुवनों को चार अंडों में विभक्त किया गया है। इस तरह से चार अंड प्रपंच के चार क्षेत्र हैं। चार अंड इस प्रकार हैं - पार्थिव, प्राकृत, मायीय तथा शाक्त। शक्ति अपने पूर्ण विश्वमय रूप में जब विकसित होती है तो उसका विश्वोत्तीर्ण रूप छिप जाता है। इस प्रकार से चार स्तरों में बँटा हुआ यह प्रपंच पराशक्ति का आवरण है। आवरण रूप होते हुए प्रपंच के चार स्तरों को चार अंड कहते हैं। चार अंडों का समीकरण प्रतिष्ठा आदि चार कलाओं से किया जाता है। ठोस पृथ्वी स्थूलतम अंड है। जल से मूल प्रकृति तक का आवरण सूक्ष्म अंड है। माया और कंचुक सूक्ष्मतर अंड है और सूक्ष्मतम अंड उससे ऊपर सदाशिवांत शुद्ध तत्त्वों वाला अंड है। इसलिए अंड को आवरण भी कहा गया है। (तन्त्र सार, पृ. 110)।
चतुष्टय → पार्थिव अंड, प्राकृत अंड, मायीय अंड तथा शाक्त अंड।
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अंबा
परमशिव की वह स्वभावभूत शक्ति जो सर्वथा पूर्ण अद्वैत पद पर ही आरूढ़ रहती है। समस्त प्रपंच में परमेश्वर की निग्रह तथा अनुग्रह लीलाओं एवं इस प्रपंच को टिकाए रखने की लीला का संचालन करने वाली परमेश्वर की चार शक्तियों में प्रमुख शक्ति। (मा. वि. तं., 3-5; शिवसूत्रवार्तिक (भास्कर), पृ. 7)। अंबा ही निग्रह और अनुग्रह लीलाओं को चलाने के लिए ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक तीन रूपों में प्रकट होती है। ज्येष्ठा अनुग्रह लीला को तथा वामा निग्रह लीला को चलाती है। संसार को टिकाए रखने की लीला को रौद्री चलाती है। (तन्त्रालोक, 6-57)।
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अकल
पूर्ण अभेद की भूमिका पर ठहरने वाले प्राणी। शिव तत्त्व और शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले सर्वथा शुद्ध एवं निर्मल प्राणी। शिव तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शांभव प्राणी तथा शक्ति तत्त्व में ठहरने वाले अकल प्राणी शाक्त प्राणी कहलाते हैं। (तन्त्र सार, पृ. 74,75)। शांभव प्राणियों में प्रकाशरूपता का अधिक चमत्कार रहता है और शाक्त प्राणियों में विमर्शरूपता का। ये दोनों प्रकार के प्राणी अपने आपको शुद्ध, असीम पारमैश्वर्य से युक्त एवं परिपूर्ण संविद्रूप ही समझते हैं जहाँ परिपूर्ण 'अहं' का ही स्फुट आभास होता है तथा 'इदं' अंश 'अहं' में ही सर्वथा विलीन होकर रहता है तथा 'अहं' के ही रूप में रहता है।
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अकल्यकाल
काल का वह अति सूक्ष्म रूप जिसकी कलना का स्फुट आभास नहीं होता है। ऐसा काल जिसमें क्रम होने पर भी तीव्रतर वेग होने के कारण उसकी क्रमरूपता का किसी भी प्रकार से आभास नहीं हो पाता है। सुषुप्ति एवं तुरीया अवस्थाओं में काल की गति तीव्रतर होती है यद्यपि वहाँ भी क्रम रहता ही है परंतु उस क्रमरूपता का स्फुट आभास नहीं होता है। उनमें से तुरीया में स्थित सूक्ष्मतर क्रमरूपता को अकल्यकाल कहते हैं। (तन्त्र सार, पृ. 49, 56)। शास्त्रों में इस काल की गणना शुद्ध विद्या से सदाशिव तत्त्व तक की गई है।
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अकालकलित
परमशिव का परस्वरूप - जहाँ किसी भी प्रकार के काल की स्थिति नहीं होती है। काल के न होने के कारण वहाँ किसी भी प्रकार की क्रमरूपता भी विद्यमान नहीं रहती है, क्योंकि उस संविद्रूप पर प्रकाश में प्रमाता, प्रमाण तथा प्रमेय की त्रिपुटी समरस होकर प्रकाश के ही रूप में विद्यमान रहती है। (त. आत्मविलास, पृ. 134)। काल की कलना वहाँ होती है जहाँ क्रमरूपता का आभास हो। क्रमरूपता द्वैत के ही क्षेत्र में संभव हो सकती है। अकल्यकाल की कलना भी भेदाभेद के क्षेत्र में ही होती है, अभेद के क्षेत्र में नहीं। अतः अभेदमय परमशिव अकालकलित है। देखिए अकल्यकाल।
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अख्याति
ख्याति = ज्ञान। अख्याति = अज्ञान। अज्ञान ज्ञान का अभाव न होकर वह अपूर्ण ज्ञान होता है जहाँ स्वप्रकाश का सर्वथा नाश नहीं होता है, क्योंकि स्वप्रकाश के सर्वथा नाश हो जाने पर तो अज्ञान का भान होना भी संभव नहीं हो सकता है। अपूर्ण ज्ञान को ही सभी भ्रांतियों का मूल कारण माना गया है। अतः भेद का मूल कारण अपने स्वरूप की अख्याति ही है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी 2, पृ. 113)। परम शिव में संवित रूप में स्थित संपूर्ण विश्व का व्यावहारिक दशाओं में जो स्फुट रूप से आभास होता है वह परमेश्वर के स्वरूप गोपन से ही होता है। इस स्वरूप गोपन को ही अख्याति कहते हैं। (प्रत्यभिज्ञाहृदय, पृ. 51)।
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अग्निषोमात्मिका
परमेश्वर की, सृष्टि, स्थिति, संहार आदि करने वाली पराशक्ति। परमेश्वर की वह अभिन्न शक्ति जिसमें सदाशिव, ईश्वर आदि से लेकर पृथ्वीपर्यंत सभी तत्त्वों को अपने में संहृत करने की अपूर्व सामर्थ्य है तथा जो संहार किए हुए सभी तत्त्वों को स्वेच्छा से पुनः सृष्ट करने के सामर्थ्य से युक्त भी है। समस्त प्रपंच को भस्मीभूत करने की तथा भस्मीभूत हुए समस्त प्रपंच को पुनः चित्र विचित्र रूपों में प्रकट करने की अलौकिक सामर्थ्य के ही कारण पराशक्ति को अग्निषोमात्मिका कहा जाता है। (शि.सू.वि., पृ. 19)। इसमें अग्नि संहार का तथा सोम सृष्टि का द्योतक है।