Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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अध्यवसाय
सांख्य में बुद्धि (महत्तत्त्व) का असाधारण धर्म अध्यवसाय कहा गया है। अध्यवसाय को व्याख्याकारों ने ‘निश्चय रूप’ (‘यह ऐसा है’ अथवा ‘यह कर्तव्य है’ – इस प्रकार का निश्चय) कहा है। अध्यवसाय का उपर्युक्त लक्षण स्थूल है – ऐसा किन्हीं आचार्यों का कहना है। इन्द्रिय द्वारा अधिकृत विषय (=वैषयिक चांचल्य) का अवसाय (=समाप्ति) अर्थात् वैषयिक चांचल्य की ज्ञान रूप से परिणति ही अध्यवसाय (अधि+अवसाय) है – यह उनका मत है। व्यावहारिक आत्मभाव का सूक्ष्मतम रूप ही महत्तत्त्व है; अतः सभी वैषयिक ज्ञानों में अध्यवसाय सूक्ष्मतम है। मन और अहंकार का व्यापार रुद्ध होने पर जो ज्ञान उदित रहता है, वह महत्तत्त्व का अध्यवसाय है – यह योगियों का कहना है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अध्यात्मप्रसाद
निर्विचार समापत्ति में जब कुशलता हो जाती है, तब अध्यात्मप्रसाद उत्पन्न होता है (योगसू. 1/47) प्रायः सभी व्याख्याकार इस अध्यात्मप्रसाद को प्रज्ञालोक की तरह मानते हैं, जो तत्त्व एवं तत्त्वनिर्मित पदार्थों के प्रकृत गुणादि को प्रकट करता है। यह ज्ञान क्रमिक नहीं होता बल्कि युगपत् सर्वार्थग्राही होता है।
कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि समापत्ति का अधिगम होने पर जो करण-प्रसाद (करण=सभी इन्द्रियाँ) होता है, वहीं अध्यात्मप्रसाद है। यह करणों का प्रशान्तभाव है, जो सात्त्विक प्रवाह से होता है। अध्यात्मप्रसाद से युक्त करणशक्ति ही वस्तु के सूक्ष्मतम अंशों को प्रकट करने में समर्थ होती है। कठ उपनिषद् में जो ‘अध्यात्मप्रसाद’ शब्द है (1/2/20) वही ‘धातुप्रसाद’ है, ऐसा कुछ विद्धान समझते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अध्यारोपापवाद न्याय
अन्य में अन्य के तादात्म्य की बुद्धि या अन्य के धर्म की बुद्धि अध्यारोप है। इसे ही भ्रम शब्द से भी कहा जाता है। अधिष्ठान साक्षात्कार के अनन्तर अध्यारोप की निवृत्ति अपवाद है। जैसे, शुक्तित्व या रज्जुत्व का साक्षात्कार हो जाने पर रजतत्त्व या सर्पत्व का भ्रम निवृत्त हो जाता है। उक्त अध्यारोप और अपवाद की पद्धति ही अध्यारोपापवाद न्याय है (अ.भा.पृ. 507)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
अध्यास
जिसमें जो धर्म नहीं है, उसमें उस धर्म का बोध होना अध्यास है। यह आरोप भी कहलाता है। सांख्य में आत्मा-अनात्मा का अध्यास स्वीकृत हुआ है। वहाँ बुद्धि को जड़ और उसमें चेतन पुरुष का प्रतिबिम्बित होना माना गया है जिससे इनमें भेद प्रतीत नहीं होता और एक का धर्म अन्य में आरोपित होता है, अर्थात् जड़बुद्धिगत कर्तृत्व का आरोप अपरिणामी पुरुष में होता है तथा पुरुष की चेतनता का आरोप बुद्धि में होता है। अध्यास का उदाहरण योगसूत्र 3/17 में मिलता है – वह है शब्द, अर्थ और शब्दजन्य ज्ञान (प्रत्यय) का इतरेतराध्यास।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अध्वन्
आणवोपाय के स्थान-कल्पना नामक योग में धारणा के आलंबन बनने वाले कालाध्वा एवं देशाद्धवा नामक बाह्य वस्तु की उपासना के मार्ग। तन्त्र सार , पृ. 47।
अध्वन् (अशुद्ध) – आणवोपाय के भेदात्मक आलंबन जिन पर धारणा की जाती है। अशुद्ध अध्वन् को अशुद्ध सृष्टि भी कहते हैं। माया से लेकर पृथ्वी पर्यंत समस्त सृष्टि को अशुद्ध सृष्टि कहा जाता है, क्योंकि इसमें भेद दृष्टि की प्रधानता रहती है। इस सृष्टि में अभिव्यक्त होने वाले तत्त्व, तत्त्वेश्वर, भुवन, भुवनेश्वर तथा सभी जीव अशुद्ध अध्वा में आते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 75)।
अध्वन् (शुद्ध) – आणवोपाय में धारणा के आलंबन बनने वाले भेदा-भेदात्मक तथा अभेदात्मक तत्त्व तत्त्वेश्वर, प्राणी आदि। शुद्ध अध्वा को शुद्ध सृष्टि भी कहा जाता है। शिव तत्त्व से लेकर सुद्ध विद्या तत्त्व तक की सृष्टि को शुद्ध सृष्टि के अंतर्गत माना जाता है। इस सृष्टि के सभी तत्त्व और मंत्र, मंत्रेश्वर, मंत्रमहेश्वर तथा अकल नाम के प्राणी और इनके तत्त्वेश्वर शुद्ध अध्वा में गिने जाते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 75)।
अध्वन् (षट्) – आणवोपाय की बाह्य धारणा में कालाध्वा के वर्ण, मंत्र तथा पद और देशाध्वा के कला, तत्त्व और भुवन – इन छः आलंबनों को षडध्व कहते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 47)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अनच्क कला
सार्धत्रिवलया भुजगाकारा कुलात्मिका कुण्डलिनी मूलाधार में सोई रहती है। जाग्रत होने पर यह सुषुम्णा मार्ग से षट्चक्रों का भेदन कर सहस्रार स्थित अकुलचक्र में विराजमान शिव के साथ सामरस्य लाभ करती है। षट्चक्रों और उनमें विद्यामान वर्णों का पूर्णानन्द के षट्चक्रनिरूपण के षष्ठ प्रकाश में और सौंदर्यलहरी की लक्ष्मीधरा टीका में (श्लो. 36-41) तथा अन्यत्र भी विशद विवेचन मिलता है। नाडीचक्र प्रभृति षट्चक्रों का निरूपण नेत्रतंत्र (7/28-29) में भी है। विज्ञान भैरव में बारह चक्रों या क्रमों की चर्चा आई है। इन चक्रों की मूलाधार या हृदय से लेकर द्वादशांत पर्यन्त भावना की जाती है। मूलाधार में जैसे कुण्डलिनी का निवास है, उसी तरह से हृदय में भी सार्धत्रिवलया प्राणकुण्डलिनी रहती है। मध्य नाडी सुषुम्णा के भीतर चिदाकाश (बोधगमन) रूप शून्य का निवास है। उससे प्राणशक्ति निकलती है। इसी को अनच्क कला भी कहते हैं। इसमें अनच्क (अच्-स्वर से रहित) हकार का निरंतर नदन होता रहता है। यह नादभट्टारक की उन्मेष दशा है, जिससे कि प्राणकुण्डलिनी की गति ऊर्ध्वोन्मुख होती है, जो श्वास-प्रश्वास, प्राण-अपान को गति प्रदान करती है और जहाँ इनकी एकता का अनुसंधान किया जा सकता है। मध्य नाडी स्थित बिना क्रम के स्वाभाविक रूप से उच्चरित होने वाली यह प्राण शक्ति ही अनच्क कला कहलाती है। अजपा जप में इसी का स्फुरण होता है। प्राण और अपान व्यापार से भिन्न, श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से अलग, स्वाभाविक रूप से निरंतर चल रहे प्राण (ह्दय) के स्पन्दन व्यापार (धड़कन) को ही यहाँ अनच्क कला कहा गया है। स्पन्दकारिका में प्रतिपादित स्पंद तत्त्व यही है। वामननाथ ने अद्वय संपत्ति वार्तिक में इसका वर्णन किया है। नेत्रतंत्र (सप्तम अधिकार) में सूक्ष्म उपाय के प्रसंग में प्राण – चार के नाम से इसकी व्याख्या की गई है।
Darshana : शाक्त दर्शन
अनंतनाथ
महामाया की दशा में उतरे हुए ईश्वर भट्टारक के अवतार। अघोरेशा शुद्धविद्या नामक भेदाभेद भूमिका में ठहरे हुए मंत्रप्राणियों / विद्येश्वर प्राणियों के उपास्य देव। माया तत्त्व को प्रक्षुब्ध करते हुए उसमें से कला आदि पाँच कंचुकों से लेकर मूल प्रकृति तत्त्व तक की सृष्टि, स्थिति, संहार आदि की लीला को अनंतनाथ ही चलाते हैं। भोगलोलुप प्राणियों के लिए ही अनंतनाथ मायीय तत्त्वों की सृष्टि करते हैं। (तन्त्र सार , पृ. 76)। इनका शरीर शुद्ध संवित् स्वरूप ही होता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अनन्तसमापत्ति
योग के तृतीय अंग आसन को यथाविधि निष्पन्न करने के लिए जिन दो उपायों की आवश्यकता होती है उनमें अनन्तसमापत्ति एक है (द्र. योगसूत्र 2/47)। इस समापत्ति के बिना आसन विशेषों का अभ्यास करने पर उन आसनों (पद्मासन आदि) में दीर्घकाल तक बैठा नहीं जा सकता; आसनानुकूल शारीरिक स्थैर्य इस समापत्ति का फल है। शरीर में आकाशवद् निरावरण भाव की धारणा करना (अर्थात् शरीर शून्यवत् हो गया है – अमूर्त आकाश की तरह हो गया है – ऐसी भावना) ही अनन्तसमापत्ति है (‘अनन्त’ ‘आकाश’ का पर्याय है)। इस भावना से शरीर में लघुता का बोध होता है। कोई-कोई व्याख्याकार ‘आनन्त्य -समापत्ति’ शब्द का भी प्रयोग करते हैं। (आनन्त्य=अनन्तभाव)।
एक अन्य मतानुसार ‘अनन्त’ अर्थात् शेषनाग की भावना अनन्तसमापत्ति है। अनन्त विष्णु का तामस रूप है; तमोगुण विधारण करने वाला है। अतः अनन्त के ध्यान से स्थैर्य उत्पन्न हो सकता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अनन्याधिपति
पुष्टिमार्ग में भगवान् भक्त से अनन्य होते हुए अधिपति कहे जाते हैं। क्योंकि पुष्टिमार्गीय भक्त भगवान से अनन्य होता है। कारण, पुष्टिमार्गीय भक्तों के हृदय में प्रभु ही साधन रूप में और फल रूप में भी स्थित हैं। अर्थात् भगवान् ही साधन रूप में अनन्य हैं और फल रूप में अधिपति हैं (अ.भा.पृ. 1404)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
अनवस्थितत्व
योगाभ्यास के नौ अंतरायों (विघ्नों) में यह एक है (योगसू. 1/30)। व्यासभाष्य के अनुसार इसका स्वरूप है – योग की भूमिविशेष (मधुमती आदि भूमियों में से किसी भी भूमि) की प्राप्ति होने पर भी उससे विच्युत हो जाना। जब तक समाधिजन्य पूर्ण साक्षात्कार न हो तब तक भूमि पर अवस्थित रहना आवश्यक है। साक्षात्कार से पहले ही यदि भूमि से भ्रंश हो जाय तो समाधिजन्य साक्षात्कार नहीं हो सकता। चित्त की भूमियाँ जब तक सुप्रतिष्ठित नहीं होतीं, तब तक उनसे विच्युति होती रहती है। भूमि से विच्युति होने पर पुनः उस भूमि की प्राप्ति जब नहीं होती तब यह अप्राप्ति ‘अनवस्थितत्व’ है – ऐसा कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अनाख्या चक्र
अनाख्या नामक चतुर्थ चक्र में तेरह शक्तियों के कार्य दिखाई पड़ते हैं। क्रमदर्शन में आख्या शब्द से पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी के स्वभाव का बोध होता है। अतः आख्याहीन अनाख्या चक्र में ये वाक् प्रवृत्तियाँ नहीं रह सकतीं। संहार चक्र में नादरूपा पश्चन्तीवाक्, स्थिति चक्र में बिन्दु रूपा मध्यमा वाक् तथा सृष्टि चक्र में लिपिरूपा स्थूल या वैखरी वाक् कार्य करती है। ये तीनों प्रकार की वाणियाँ ही ऊर्ध्वा स्थित विमर्श अपथा परा वाक् के द्वारा अनुप्राणित तुरीयावस्था में प्रमाण, प्रमाता और प्रेमेय की त्रिपुटी को उपसंहृत करके अनाख्या चक्र में चिद्गिन रूप में पर्यवसित होती हैं। वस्तुतः यह अवस्था महासुषुप्ति के समान प्रतीत होने पर भी चिन्मय मुक्त अवस्था का ही नाम है। अनाख्या चक्र की तेरह कलाओं में से बारह इन्द्रियों का व्यष्टि भाव में और तेरहवीं कला का समष्टिभाव में स्फुरण होता है। सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय – ये चार अवस्थायें हैं। इसी प्रकार स्थिति और संहार में भी चारों अवस्थाएँ रहती हैं। सब मिलाकर ये बारह शक्तियाँ हैं। ये सब शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिसमें लीन होती हैं, उसी को ‘त्रयोदशी’ कहते हैं। वस्तुतः यह त्रयोदशी सबसे अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित आद्या शक्ति ही है (महार्थमंजरी परिमल, पृ. 100-101)।
Darshana : शाक्त दर्शन
अनादि – पिंड
देखिए ‘निरालंब – चित्’
Darshana : वीरशैव दर्शन
अनावेश्यत्व
पाशुपत सिद्धि का एक लक्षण।
पाशपुत साधक जब सर्वव्यापकता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है तब वह अनावेश्यत्व भाव को प्राप्त करता है; अर्थात् ऐसा हो जाने पर उसकी ज्ञानशक्ति को कोई भी अभिभूत नहीं कर सकता है। वह सबसे उत्कृष्ट दशा को प्राप्त कर लेता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 47, 48; ग. का. टी. पृ. 10)। ज्ञानप्राति से पूर्व इंद्र आदि देवता उसके चित्त को तथा उसकी आत्मा को व्याप्त करते हुए उसमें आविष्ट हो सकते थे और वह उनके द्वारा आवेश्य बना रहता था। परंतु ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर वह स्वयं त्रिलोकी का अंतर्यामी बनकर सभी में आविष्ट हो सकता है। उसमें कोई भी आविष्ट नहीं हो सकता। उसकी ऐसी महिमा अनावेश्यत्व कहलाती है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अनाश्रित शिव
शक्ति तत्त्व तथा सदाशिव तत्त्व के बीच की परमेश्वर की वह अवस्था, जहाँ विमर्श की अपेक्षा प्रकाश ही प्रधानतया चमकता है तथा जहाँ बाह्य प्रपंच का तनिक भी आभास न होने के कारण महाशून्य की सी स्थिति बनी रहती है। इस अवस्था में परमशिव अपने स्वातंत्र्य से किसी भी अन्य साधन का आश्रय लिए बिना ही अपने से भिन्न तथा स्रष्टव्य की सृष्टि के प्रति उद्यत होता हुआ केवल अपने शुद्ध प्रकाश रूप में ही प्रकाशित होने के कारण अनाश्रित शिव कहलाता है। (प्रत्यभिज्ञाहृदय पृ. 51; तन्त्रालोकविवेक5, पृ. 262)। सृष्टि के प्रति सफल प्रवृत्ति से पूर्व प्रकट होने वाली शिव की शुद्ध चिन्मयी अवस्था। इस अवस्था में शिव जगत् का स्रष्टव्यतया और अपना स्रष्टतया विमर्शन करता है कि ‘मैं जगत् का निर्माण करूँ।’ इस तरह से स्रष्टव्य जगत् से शून्य शुद्ध संविद्रूपतया ही अपने आपका विमर्शन करता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अनाहत चक्र
मणिपुर चक्र के ऊपर ह्रदय में अनाहत चक्र की स्थिति है। इसका वर्ण बंधुक पुष्प के समान अरूण कांति वाला है। इसका आकार द्वादश दल कमल से बनता है। इन दलों में सिंदूर के समान रक्त वर्ण के ककारादि ठकरान्त 12 वर्णों की स्थिति मानी जाती है। इनके बीज में धूम्र वर्ण षट्कोणात्मक वायुमंडल है। इसके मध्य वायु बीज यं का ध्यान किया जाता है, जिसका कि वर्ण धूम के समान धूसर है। यह बीज भी चतुर्भुज है और इसका वाहन कृष्णसार मृग है। इस वायुबीज के अधिष्ठाता करुणामूर्ति ईश्वर हैं। इनका वर्ण शुक्ल है और अपने दोनों हाथों से ये तीनों लोकों को अभय और वर प्रदान करते हैं। इस चक्र की योगिनी का नाम काकिनी है। इस चक्र की कर्णिका में वायु बीज के नीचे त्रिकोणाकार शक्ति तथा उसके दाहिने भाग में बाण लिंग की स्थिति मानी गई है। इसके मस्तिष्क पर सूक्ष्म छिद्र युक्त मणि के समान एक बिंदु प्रकाशित है। शब्दब्रह्म के विलास अनाहत नाद की यहाँ अनुभूति होती है, अतः इसे अनाहत चक्र कहा जाता है (श्रीतत्त्वचिंतामणि, षट्चक्रनिरूपण, 6)।
Darshana : शाक्त दर्शन
अनाहत नाद
चित्त के स्थैर्य की उच्च अवस्था में यह नाद योगी को सुनाई पड़ता है। यह नाद शरीर के अंदर ही उत्पन्न होता है। यह चूंकि आहत (आघात से उत्पन्न) नहीं है, अतः अनाहत कहलाता है। यह नाद कई प्रकार का है, वंशीनाद, घण्टानाद, मेघनाद, शङ्खनाद आदि। योगी को पहले पहले दक्षिण कर्ण में ये नाद सुनाई पड़ते हैं। अनाहत नाद का आविर्भाव होने पर चित्त में कोई भी बाह्य विक्षेप नहीं उठता। योगियों का कहना है कि इस अनाहत नाद के अन्तर्गत सूक्ष्म-सूक्ष्मतर ध्वनि में समाहित होने पर मन वृत्तिशून्य हो जाता है। अनाहतनाद में भी क्रमिक उत्कर्ष है। इसकी आरम्भ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति रूप चार क्रमिक उत्कर्षयुक्त अवस्थाओं का विवरण हठयोग के ग्रन्थों में मिलता है। अनाहत नादों के साथ चक्रों का निकट सम्बन्ध माना जाता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अनिन्दितकर्मा
प्रशंसा पूर्ण कर्मों का कर्ता।
पाशुपत साधक जब मन्दन, स्पन्दन, क्राथन आदि निन्दनीय कार्य करते हुए लोक में घूमता है तो हर कोई उसकी अवमानना करता है, निन्दा करता है। लोगों के द्वारा इस तरह से अपमानित होते रहने से वह अनिन्दितकर्मा बन जाता है अर्थात् निन्दित होते रहने से उसके दोषों का क्षय हो जाता है तथा गुणों का वर्धन होता है क्योंकि पाशुपत मत में जितने भी निन्द्यमान कर्म करने को कहा गया है, वे साधक को मुख्य वृत्ति से नहीं करने होते हैं अपितु उसे निन्द्यमान आचरण का अभिनय मात्र करना होता है ताकि लोगों के द्वारा निन्दित होता रहे; परंतु तत्वत: गुप्त रूप से सत् आचरण करते – करते अनिन्दितकर्मा बना रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ 104)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
अनियतपदार्थवाद
जब यह कहा जाता है कि अमुक के मत में प्रमेय पदार्थों की संख्या निश्चित नहीं है, तब वह ‘अनियत-पदार्थवाद’ कहलाता है। इस मत का प्रसंग सांख्यसूत्र 1/26 में है जिसमें कहा गया है कि पदार्थ संख्या का निश्चय न हो यह तो कर्थंचित् माना जा सकता है, पर यह नहीं माना जा सकता है कि उसको युक्ति विरूद्ध पदार्थ (युक्ति से जिसकी सिद्धि न होती है, वह) मान लिया जाए। यह ‘अनियतपदार्थवाद’ किस शास्त्र का है, यह स्पष्ट नहीं है। कोई-कोई सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहते हैं, पर यह भ्रान्तदृष्टि है, क्योंकि ‘पंचविंशति-तत्वज्ञान सांख्य हैं’, यह मत सभी प्राचीन आचार्यों ने एक स्वर से कहा है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अनुग्रह
नित्यमुक्त एवं परमगुरू ईश्वर के विषय में योगियों की एक मान्यता यह है कि उनका कुछ प्रयोजन न रहने पर भी (अपने लिए कुछ प्राप्तव्य न रहने पर भी) भूतों के प्रति उनका अनुग्रह होता है, जिसके कारण वे कुछ विशेष कालों में (जैसे कल्पप्रलय और महाप्रलय में) निर्माणचित्त का आश्रय करके ज्ञानधर्म अर्थात् मोक्षविद्या का उपदेश करते हैं (व्यासभाष्य 1/25)। योगियों का कहना है कि यह अनुग्रह प्राणियों के अधिकार के अनुसार ही होता है (ईश्वर से प्रापणीय विवेकज्ञान उस ज्ञान के अधिकारी को ही मिलता है); सभी प्रक्रर के प्राणियों के प्रति विवेकज्ञान का उपदेश समानरूप से नहीं किया जाता। नित्यमुक्त ईश्वर से विवेकज्ञान के अतिरिक्त कुछ प्राप्तव्य भी नहीं है। चित्त के स्वभाव के अनुसार ही इस अनुग्रह का स्वरूप जानना चाहिए।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अनुग्रहकृत्य