Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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महाप्रलय
देखिए प्रलय (महा)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महाभूत
महाभूत शब्द यद्यपि ‘भूत’ के लिए भी क्वचित् प्रयुक्त होता है, तथापि अनेक स्थानों में इन दोनों का भेदपूर्वक प्रयोग मिलता है। व्यासभाष्य 3/26 में भूतवशी देवों के अतिरिक्त महाभूतवशी देवों का उल्लेख भी मिलता है। महाभूत भूततत्त्व से स्थूल है। 2/28 भाष्य में जो महाभूत शब्द है, उसकी व्याख्या में वाचस्पति ने कहा है कि पृथ्वी आदि महाभूत पाँच हैं, पृथ्वी में गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्द गुण रहते हैं; जल, तेज, आदि भूतों में यथाक्रम एक-एक गुण कम हो जाता है। इन पाँच महाभूतों से जो वस्तुएँ बनती हैं वे भौतिक कहलाती हैं। कोई-कोई भौतिक से महाभूत समझते हैं। कोई-कोई महाभूतों को स्थूलभूत कहते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
महामाया
1. शुद्ध विद्या तत्त्व से नीचे तथा माया तत्त्व से ऊपर विद्या तत्त्व के ही दो अवांतर प्रकार हैं जिन्हें महामाया कहा जाता है। महामाया का पहला प्रकार शुद्ध विद्या के अधिक पास है तथा दूसरा माया तत्त्व के पास। शुद्ध विद्या से कुछ ही नीचे की महामाया के प्राणी मंत्र या विद्येश्वर प्राणी कहलाते हैं। इन प्राणियों को अपने स्वरूप और स्वभाव के विषय में कोई विपर्यास नहीं होता है; परंतु फिर भी संसार के प्रति इनकी भेद दृष्टि बनी ही रहती है। ये अपने आपको शुद्ध और स्वतंत्र संवित् स्वरूप तो समझते हैं परंतु परमेश्वर को अपने से भिन्न मानते रहते हैं तथा अन्य प्राणियों और प्रमेय तत्त्व के प्रति भेदमय दृष्टिकोण रखते हैं। (ई.प्र. 3-1-6, ई.प्र.वि. 2 पृ. 199-200)।
2. अपने आपको क्रियाशक्ति के चमत्कार से रहित केवल शुद्ध प्रकाशभाव ही समझने वाले विज्ञानाकल प्राणियों के दृष्टिकोण या विश्रांति स्थान को भी महामाया कहते हैं। यह माया का ही अपेक्षाकृत अविकसित रूप होता है। (पटलत्रि. वि. पृ. 118-9)।
महामाया परा
परमेश्वर की अतिदुर्घट कार्यों को क्रियान्वित करने वाली पराशक्ति को भी महामाया कहा जाता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महायोग
योगसूत्र तथा प्राचीनतम योगग्रन्थों में महायोग नामक योग विशेष का उल्लेख न रहने पर भी पुराणों, अर्वाचीन उपनिषदों एवं योगग्रन्थों में महायोग का विवरण मिलता है। महायोग चार भागों में विभक्त है – मन्त्र, हठ, लय तथा राजा (राजयोग) (योगबीज 144)। लिङ्गपुराण में क्रमिक उत्कर्षयुक्त पाँच योगों की एक गणना भी मिलती है, जिसमें महायोग अन्तिम है (अन्य चार यथाक्रम हैं – मन्त्र, स्पर्श, भाव और अभाव) (लिङ्गपुराण 2/55 अध्याय)। इस प्रकार महायोग के विषय में दो मत हैं।
‘महायोग’ शब्द पुराणों में कहीं-कहीं प्रयुक्त हुआ है (कूर्मपुराण 1/16/94; भागवत पुराण 12/8/14)। विष्णुपुराण (5/10/10) में भी महायोग उल्लिखित हुआ है। योगसूत्र की संप्रज्ञातसमाधि से इसका सादृश्य है। श्रीधर ने टीका में इसकों संप्रज्ञात योग ही माना है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि महायोग शब्द योगविशेष के लिए रूढ़ है तथा ‘जो योग महान् है’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द संप्रज्ञात या असंप्रज्ञात समाधि को भी लक्ष्य कर सकता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
महालिंग
देखिए ‘लिंग-स्थल’।
Darshana : वीरशैव दर्शन
महालिंग स्थल
देखिए ‘अंग-स्थल’।
Darshana : वीरशैव दर्शन
महाविद्या
परमेश्वर की पराशक्ति का वह रूप जो अपनी स्वातंत्र्य लीला से समस्त विश्व के विविध व्यवहारों को चलाने के लिए विद्या और अविद्या को, या शुद्ध विद्या तथा अशुद्ध विद्या को अभिव्यक्त करता रहता है। पराशक्ति का यही रूप ज्ञान, अज्ञान, बंधन तथा मोक्ष के व्यवहारों को भी समस्त सृष्टि में चलाता रहता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण पराशक्ति को महाविद्या कहा जाता है। इसे महामाया भी कहते हैं। (आ.वि. 4-1)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महाव्याप्ति
देखिएघूर्णि।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महाव्रत
पाशुपत शास्त्र में पाशुपत योगविधि का अनुसरण करना महाव्रत अथवा पाशुपत व्रत कहलाता है। पाशुपतसूत्र के चतुर्थ अध्याय में महाव्रत पाशुपत योगी के आचार मार्ग के रूप में प्रतिपादित हुआ है जहाँ साधक को अर्जित विद्या, व्रत, संस्कृत व पवित्र वाणी को गूढ़ (गुप्त) रखना होता है। इसके विपरीत उन्मत्त, अज्ञानी, मूढ़, दुराचारी आदि की तरह आचरण करना होता है, ताकि लोग उसके वास्तविक, पवित्र व सुसंस्कृत रूप से अपरिचित होने के कारण उसके बाह्य आचार को देखकर उसकी निंदा व अपमान करें।
पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि लोगों के द्वारा निन्दित होते रहने से साधक के समस्त पाप, निन्दा करने वाले लोगों को लगेंगे तथा उनके पुण्य साधक को लगेंगे। परंतु इस तरह के निन्द्यमान आचरण का वास्तविक तात्पर्य साधक की त्यागवृत्ति को बढ़ाना है। अर्थात् जब साधक वास्तव में सदाचारी व ज्ञानी होते हुए भी दुराचारी व अज्ञानी मूढ़ की तरह आचरण करेगा तो लोग उसके वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ रहकर अपमान व निन्दा करेंगे। उस अपमान से साधक का चित्त सांसारिक मोह माया से पूर्णतः निवृत्त हो जाएगा और सदा रुद्र में ही संसक्त रहेगा। यदि साधक का वास्तविक सभ्य व पवित्र आचार लोक में प्रकट हो तो लोग उसकी प्रशंसा करेंगें। प्रशंसा से अहंकार बढ़ता है और अहंकार से चित्त मलिन हो जाता है और परिणामतः ईश्वर में चित्त का योग नहीं होता। प्रशंसा को पाशुपत सूत्र कौडिन्यभाष्य में विष की तरह हानिकारक कहा गया है। इस तरह से पाशुपत साधक को महाव्रत का पालन करना होता है। अथर्वशिरस उपनिषद में भी पाशुपत व्रत का उल्लेख हुआ है। परंतु वहाँ मन्दन, क्राथन, श्रृंगारण आदि साधनाओं का कई उल्लेख नहीं आया है। इन सभी विशेष साधनाओं का आधार पाशुपत सूत्र ही है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
महाव्रत
यम के आचरण का उन्नततर रूप महाव्रत कहलाता है (द्र. योगसूत्र 2/31)। यम के आचरण में जब जाति (जन्म से प्राप्य शरीरविशेष); देश (तीर्थ आदि), काल (चतुर्दशी आदि) तथा समय (= कर्त्तव्यता का नियम, सामाजिक -राष्ट्रिक नियम) के अनुसार कोई सीमा या बन्धन नहीं रहता, तब वह आचरण महाव्रत कहलाता है। तीर्थ में ही हिंसा न करूँगा – यह निश्चय देश से अवच्छिन्न अहिंसा है; चतुर्दशी को ही हिंसा न करूँगा – यह काल से अवच्छिन्न अहिंसा है। जाति आदि से सीमित (= अविच्छिन्न) न होने पर अहिंसा आदि सार्वभौम हो जाते हैं। ऐसा सार्वभौम आचरण व्यक्ति विशेष (जैसे संन्यासी) द्वारा ही संभव होता है। अन्य आश्रमवासी यथाशक्ति यम का आचरण कर सकते हैं। टीकाकारों ने यह कहा है कि सार्वभौम न होने पर अहिंसा आदि व्रत कहलाते हैं। 2/31 सूत्रभाष्य में हिंसासम्बन्धी जो विचार मिलता है, उससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि वैध हिंसा (शास्त्र विधि के अनुसार जो हिंसा की जाती है, वह) अवश्य ही पाप का हेतु है। यह लक्षणीय है कि ‘महाव्रत’ संज्ञा यमों की ही होती है, नियमों की नहीं। शैव संप्रदाय में प्रचलित आचार विशेष का नाम भी महाव्रत है; इससे योगशास्त्रीय महाव्रत का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
महाशक्ति
परादेवी, पराशक्ति। देखिए परादेवी।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महाशून्य
अनुत्तर संवित् तत्त्व। अपनी स्वभावभूत पराशक्ति सहित परमशिव का शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण सामरस्यात्मक स्वरूप। वह स्वरूप, जहाँ शिव से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी छत्तीसों ही तत्त्वों, अकल, मंत्र महेश्वर आदि सातों प्रमाताओं, इन तत्त्वों में स्थित सभी एक सौ अट्ठारह भुवनों, इसी प्रकार समस्त भाव जगत् तथा शक्ति चक्र इत्यादि का सूक्ष्मतर भाव भी संविद्रूपता में ही विलीन होकर रहता है। (स्व.तं.खं. 2, पृ. 131)। इसे अनाश्रित शिवदशा कहते हैं।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महासत्ता
1. व्यावहारिक सत्ता एवं व्यावहारिक असत्ता दोनों का एकघन रूप। ये दोनों भाव महासत्ता की ही दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं। व्यावहारिक सत्ता उसकी बाह्य अभिव्यक्ति है तथा पारमार्थिक सत्ता इसी अभिव्यक्ति का अंतःस्थिर एवं शुद्ध रूप है। इस प्रकार छत्तीस तत्त्व महासत्ता में समरस बनकर संविद्रूपता में ही ठहरते हैं।
2. परमशिव का नैसर्गिक स्वभाव। उसकी पराशक्ति। स्फुरत्ता। देखिए महास्फुरत्ता।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महास्फुरत्ता
परस्पंद। अचल परमशिव में एक विशेष प्रकार की हलचल तथा उसकी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी उभयाकर फड़कन या सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतिशीलता। यही उसकी परमेश्वरता का मूलभूत कारण है। इसी के माध्यम से वह अपने परिपूर्ण एवं शुद्ध स्वरूप को अपने अभिमुख लाता हुआ स्वात्मानंद से ओतप्रोत बना रहता है। (ई.प्र.वि. 1:6-14)। देखिए स्पंद। शुद्ध चेतना की एक प्रकार की टिमटिमाने की सी क्रिया।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महाहृद
चिदात्मा। परमशिव। शुद्ध प्रकाश एवं विमर्श के संघट्टात्मक शुद्ध तथा समरस रूप को ही परमशिव या परतत्त्व कहते हैं। समस्त शक्ति समूहों का मूल स्रोत होने के कारण उसे ही शक्तिमान् कहा जाता है। समस्त विश्व उसी की अनंत शक्तियों का बहिः प्रसार है। अतः सभी प्रकार के सूक्ष्म एवं स्थूल भावों तथा पदार्थों का मूल वही है। वह देश एवं काल की कल्पना से परे है। इस प्रकार सागर के समान अनवगाह्य स्वभाव वाला होने के कारण परमशिव को ही महाहृद कहा जाता है। (शि.सू.वा.पृ. 26)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
महिम
भगवान् भक्त को जब स्वीय के रूप में वरण कर लेते हैं, तब उस भक्त में सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता का उदय हो जाता है। इस प्रकार उदय को प्राप्त सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता ही महिम है। विप्रयोग भाव का उदय होने पर भक्त में यह महिमा स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है (अ.भा. 1141)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
महिमा
यह अष्टसिद्धियों में एक है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। अपने शरीर को व्यापी (= अत्यन्त विशाल) बनाने की शक्ति (जैसे, शरीर को आकाशव्यापी बनाना) महीमा-सिद्धि का मुख्य स्वरूप है। बाह्य द्रव्यों को अत्यन्त विशाल बनाना भी इस सिद्धि में आता है। भूत का जो स्थूल रूप है, उसमें संयम करने पर यह सिद्धि प्राप्त होती है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
महेश्वर
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत मत में ईश्वर को महेश्वर नाम से ही अभिहित किया गया है। ईश्वर महान् ऐश्वर्यशाली होता है अतः महेश्वर कहलाता है। ऐश्वर्य उसका स्वाभाविक धर्म है। सभी देवताओं का ऐश्वर्य उसी के ऐश्वर्य पर निर्भर रहता है। देवगण कर्म सिद्धांत के अधीन हैं। परंतु पशुपति स्वतंत्र है वह कर्म सिद्धांत का अतिक्रमण करके एक मलिन पशु को भी तीव्र अनुग्रह द्वारा मुक्ति के उत्कृष्ट सोपान पर चढ़ा सकता है। उसके ऐश्वर्य की तुलना मुक्तजीवों के ऐश्वर्य के साथ नहीं की जा सकती है। वे शिवतुल्य बन तो जाते हैं परंतु एकमात्र शिव ही परमेश्वर बना रहता है। तभी वह महेश्वर कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.128, ग.का.टी.पृ. 11)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
महेश्वर
देखिए ‘अंग-स्थल’।
Darshana : वीरशैव दर्शन
महेश्वर-स्थल