Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
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बुद्धिवृत्ति
बुद्धि का व्यापार रूप परिणाम बुद्धिवात्त कहलाता है; विषय के संपर्क से ही बुद्धि से वृत्तियों का आविर्भाव होता है। बुद्धि चूंकि द्रव्य है, इसलिए वृत्ति भी द्रव्य है। वृत्ति को बुद्धि का धर्म कहा जाता है। यह वृत्ति वस्तुतः विषयाकार परिणाम ही है। बुद्धि चूँकि सत्वप्रधान है, अतः वृत्ति ज्ञान रूपा ही होती है; ‘वृत्ति प्रकाशबहुल धर्मरूप है’ ऐसा प्रायः कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि बुद्धि से वृत्तियों के उद्भव में विषय आदि कई पदार्थों की आवश्यकता होती है, पर वह वृत्ति विषय आदि का धर्म न होकर बुद्धि का ही धर्म मानी जाती है, क्योंकि वृत्ति सत्त्वबहुल होती है। सांख्य में जो बुद्धिवृत्ति है, योग में उसको चित्तवृत्ति कहा जाता है (द्र. चित्तवृत्ति शब्द)।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
बुद्धिसर्ग
सांख्यकारिका में जिस प्रत्ययसर्ग का उल्लेख है (का. 46) उसका नामान्तर बुद्धिसर्ग है (‘प्रतीयते अनेन इति प्रत्ययो बुद्धिः’ – तत्त्वकौमुदी, 46)। इस प्रत्ययसर्ग के चार भेद हैं – विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि। द्र. प्रत्ययसर्ग तथा विपर्यय आदि शब्द।
किसी-किसी व्याख्याकार के अनुसार प्रत्ययसर्ग का अर्थ है – प्रत्ययपूर्वक=बुद्धिपूर्वक सर्ग, अर्थात् सृष्टिकारी प्रजापति का अभिध्यानपूर्वक जो सर्ग = सृष्टि है, वह प्रत्ययसर्ग है। यह सर्ग चार प्रकार का है – मुख्य स्रोत, (उद्भिज्जसर्ग, तिर्यक-स्रोत (पश्वादिसर्ग), ऊर्ध्वस्रोत (देवसर्ग) तथा अर्वाक् स्रोत (मानुषसर्ग)। इन चार प्रकारों में ही यथाक्रम विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि रहती हैं और तदनुसार इन चारों के नाम भी विपर्यय होते हैं (द्र. युक्तिदीपिका, 46 कारिका तथा पुराणोक्त सर्ग -विवरणपरक अध्याय)। इस बुद्धिपूर्वक सर्ग के अतिरिक्त एक अबुद्धिपूर्वक सर्ग भी है, जिसका विवरण पुराणों के उपर्युक्त अध्यायों में मिलता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
बृंहक
परब्रह्म, परमेश्वर, परमशिव। परमेश्वर में जो विश्व बीजरूपतया अर्थात् शक्तिरूपतया सदा विद्यमान रहता है उसी को वह दर्पण नगर न्याय से प्रतिबिंब की तरह अपने से भिन्न रूपता में प्रकट करता रहता है। वही विश्व का विकास कहलाता है। ऐसे विकास को बृंहण करते हैं। इस बृंहण को करने वाला विश्वबृंहक या विश्वविकासक स्वयं परमेश्वर ही है। इसी बृंहणसामर्थ्य के कारण उसे शास्त्रों में ब्रह्म कहा गया है। (सा.वि.व. 1-253।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
बौद्ध अज्ञान
माया आदि छः कंचुकों से घिर कर पशुभाव की अवस्था में आने पर अशुद्ध विकल्पों द्वारा संकुचित ज्ञातृता तथा कर्तृता का आत्माभिमान होना तथा अपने पशुभाव का बुद्धि के स्तर पर निश्चय होना बौद्ध अज्ञान कहलाता है। (तं.आ., 1-39, 40)। अपने तात्त्विक स्वभाव का ज्ञान न होने के कारण अनात्म वस्तुओं पर आत्माभिमान का निश्चय होना भी बौद्ध अज्ञान कहलाता है। (तं.सा,पृ. 3)। इस तरह से बौद्ध अज्ञान बुद्धि के स्तर पर होने वाले अयथार्थ और सीमित तथा विकल्पात्मक निश्चय ज्ञान को कहते हैं।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
बौद्ध ज्ञान
बुद्धि के स्तर पर अपने तात्त्विक स्वभाव का निश्चयात्मक ज्ञान बौद्ध ज्ञान कहलाता है। (त.सा.पृ.2)। बौद्ध ज्ञान के बिना पौरुष ज्ञान में स्थिति प्राप्त करना अतीव कठिन है, क्योंकि पौरुष ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि बुद्धि के भीतर किसी प्रकार के संशय रह जाएँ तो पौरुष ज्ञान सफल नहीं हो पाता है . अतः पौरुष ज्ञान से पूर्व बौद्ध ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। (तं.आ. 1.48, 49)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
ब्रह्म
ईश्वर का नामांतर।
भगवान पशुपति को ब्रह्म नाम से भी अभिहित किया गया है, क्योंकि वह बृहत् (व्यापक अथवा श्रेष्ठ) है तथा उसमें बृंहण सामर्थ्य है (ग.का.टी.पृ.12)। बृंहण वृद्धि को या विकास को कहते हैं। परमेश्वर से ही समस्त ब्रह्माण्ड का विकास होता है। वे ही इसके विकासक या बृंहक हैं। इसीलिए उन्हें ब्रह्म कहा जाता है। ब्रह्म शब्द का ऐसा अर्थ काश्मीर शैव दर्शन के मालिनी विजय वार्तिक पृ.25 तथा पराजीशिका विवरण पृ.121 में भी दिया गया है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
ब्रह्म
प्रपंच का बृंहण अर्थात् विस्तार करने के कारण तथा स्वयं बृहत् होने के कारण ब्रह्म कहा जाता है। यह ब्रह्म शब्द का योगार्थ है। यहाँ बृंहण करना उपलक्षण मात्र है। वस्तुतः प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण ब्रह्म है। ब्रह्म का यही लक्षण “जन्माद्यस्य यतः” इस सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। उक्त सूत्र में प्रतिपादित यह लक्षण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। सत्चित्त और आनंद (सच्चिदानन्द) यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। नामरूपात्मक प्रपंच के अंतर्गत जैसे रूप प्रपंच के कर्त्ता ब्रह्म हैं वैसे वेद या नाम प्रपंच के भी विस्तार कर्त्ता ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म का कार्य होने से वेद और नाम प्रपंच भी ब्रह्म शब्द से कहा जाता है (अ.भा. 1/1/2)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
ब्रह्म
परतत्त्व। परमशिव तत्त्व। पंचकृत्यों द्वारा विश्वलीला का विकासक परमेश्वर। बृहत् अर्थात् असीम और सर्वव्यापक चैतन्यात्मक प्रकाश, जो संपूर्ण जगत् का बृहंक अर्थात् विकासक है। समस्त प्रपंच का बृंहण अर्थात् विकास करने के कारण ही परमेश्वर को ब्रह्म कहते हैं। (पटलजी.वी.पृ. 221)। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पाँच कारणों को भी पंच ब्रह्म कहा जाता है क्योंकि ये ही इस विश्व विकास के कार्य को स्फुटतया आगे आगे चलाते रहते हैं।
ब्रह्म त्रि
श,ष और स – मातृका के ये तीन वर्ण।
ब्रह्म पंच
1. श, ष, स, ह, क्ष – मातृका के ये पाँच वर्ण।
2. ब्रह्मा आदि पाँच कारण।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
ब्रह्म दृष्टि
“यह सब कुछ आत्मा ही है, यह सब कुछ ब्रह्म ही है”। यह दृष्टि ब्रह्म दृष्टि है। उक्त दृष्टि प्रतीकात्मक (आरोपात्मक) नहीं है, किन्तु श्रवण के अनन्तर होने वाला मनन रूप है क्योंकि सभी वस्तु वास्तव में ब्रह्म ही है (आ.भा.पृ. 1273)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
ब्रह्मचर्य
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
मनुष्य की त्रयोदश इन्द्रियों (पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि व अहंकार) का संयम विशेषकर जिह्वा तथा उपस्था जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्मचर्य कहलाता है। पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य में जिह्वा और उपस्थ के संयम का विशिष्ट निर्देश दिया गया है। क्योंकि शेष ग्यारह इन्द्रियाँ इन्हीं दो से संबंधित होती हैं। जिह्वा व उपस्थ को मानव का शत्रु माना गया है, क्योंकि इन्हीं दो की प्रवृत्तियों से समस्त देहधारियों का पतन होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्ति से, अर्थात् उनके किसी भी कर्म में प्रवृत्त होने से, दुःख उत्पन्न होता है, तथा उनके संयम में रहने से सुख होता है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ प्रवृत्त नहीं होंगी तो किसी भी परिणाम की जनक नहीं बनेंगी। परिणाम, सुख अथवा दुःखपूर्ण, नहीं होगा तो सुख, दुःख दोनों आपेक्षिक भावों का जन्म नहीं होगा। अतः इन्द्रियों को संयम में रखना अतीव आवश्यक है। पाशुपत योग में ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं, वे दूध, मधु व सोमरस का पान करते हैं और मृत्यु के उपरांत अमरत्व को प्राप्त करते हैं। ब्रह्मचर्य वृत्ति में धैर्य है, तप है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यवृत्ति का पालन करते हैं उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
ब्रह्मचर्य
पंचविध यमों में यह एक है (योगसू. 2/30)। यह मुख्यतः उपस्थसंयम (मैथुनत्याग) है, यद्यपि अन्यान्य इन्द्रियों का संयम भी ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत है। उपस्थसंयम से शरीरवीर्य की अचंचलता अभिप्रेत है। वीर्यधारण से प्राणवृत्ति में सात्त्विक बल बढ़ता है, जो योगाभ्यास के लिए अपरिहार्य है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर योगी शिष्य के हृदय में ज्ञान का आधान करने में समर्थ होता है। व्याख्याकारों ने कहा है कि ब्रह्मचर्य का भंग आठ प्रकारों से होता है, स्मरण या श्रवण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिष्पत्ति। पुरुष के लिए स्त्रीसम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना तथा स्त्री के लिए पुरुष सम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना (रागपूर्वक, जिससे ब्रह्मचर्य की हानि होती है) श्रवण है। कीर्तन आदि को भी इसी प्रकार जानना चाहिए।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
ब्रह्मपुच्छ
“ब्रह्मापुच्छं प्रतिष्ठा” यहाँ पर पुच्छ स्थानीय ब्रह्म आनंदमय का प्रतिष्ठा भूत है क्योंकि “ब्रह्मविदाप्नाति परम्”। इस श्रुति के अनुसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन ब्रह्मज्ञान है एवं साधनभूत ब्रह्मज्ञान के प्रति ज्ञेय रूप में (विषय रूप में) ब्रह्म शेष (अंग) है। इस प्रकार साधन कोटि के अंतर्गत होने से ब्रह्म उस आनंदमय का प्रतिष्ठाभूत पुच्छ स्थानीय है। अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म पुच्छ स्थानीय ज्ञेय ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। इसीलिए ज्ञेय ब्रह्म आनंद का पुच्छ रूप है (अ.भा.पृ. 207)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
ब्रह्मानंद
उच्चार योग की प्राण धारणा में भिन्न भिन्न स्तरों पर अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छः भूमिकाओं में से चौथी भूमिका। अपान द्वारा प्राण में अनंत प्रमेयों को विलीन कर देने की स्थिति में सहज स्थिरता आ जाने पर साधक प्राण योग में समान प्राण पर विश्रांति का अभ्यास करता है। इस अभ्यास में वह कोई भी आकांक्षा न रखते हुए सभी प्रमेय पदार्थों को भावना द्वारा समरसतया संघट्ट रूप में देखता है। इसके लिए वह समान नामक प्राण वृत्ति को ही आलंबन बनाता है। इस प्रकार समान प्राण पर विश्रांति के सतत अभ्यास से जो आनंद की भूमिका अभिव्यक्त होती है, उसे ब्रह्मानंद कहते हैं। (त.सा.पृ. 38, तन्त्रालोक 5-46, 47)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
ब्राह्म शरीर