Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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पुष्टिमार्गीय मुक्ति
भगवान् की नित्य लीला में अंतःप्रवेश (समावेश) पुष्टिमार्गीय मुक्ति है (अ.भा.पृ. 1316, 1388)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
पुंस्तत्व
पुरुष तत्त्व, मायीय प्रमाता, शून्य, जीव तत्त्व आदि। छत्तीस तत्त्वों के अवरोहण क्रम में बारहवें स्थान पर आने वाला तत्त्व। शुद्ध एवं परिपूर्ण संवित्स्वरूप परमशिव ही जब अपने स्वातंत्र्य से अपने ही आनंद के लिए माया तत्त्व एवं उससे विकसित पाँच कंचुकों से पूर्णतया आवेष्टित होता हुआ अतीव संकोच को प्राप्त कर जाता है तो उस अवस्था में पहुँचे हुए उसके संवित् को ही पुरुष तत्त्व कहते हैं। इस प्रकार अतीव संकुचित ‘संवित्’ या सीमित ‘अहं’ ही पुरुष तत्त्व कहलाता है। (ई..प्र. 3-1-9, 1-6-4,5)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पूजन (ज्ञानयोग)
शैवी साधना के ज्ञानयोग का वह उपाय, जिसमें साधक पुनः पुनः विमर्शन करता है कि पूजक, पूजन तथा पूज्य, इन तीनों रूपों में वस्तुतः शिव ही व्याप्त होकर ठहरा हुआ है, वह स्वयं शिव से किसी भी अंश में भिन्न नहीं है, अतः भिन्न भिन्न रूपों में सर्वत्र उसी की पूजा होती रहती है। इस प्रकार के भान से वह सदातृप्त होता रहता है। सभी अवस्थाओं में अपना ही रूप देखने के कारण पूजन न होने से न तो उसे खेद ही होता है और न ही पूजन होने से उसे तुष्टि होती है। इस प्रकार के शुद्ध विकल्पों के अंतः परामर्श को पूजन कहते हैं। (शि.दृ. 7-92 से 95)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पूजा
महार्थमजरी (पृ. 106), चिद्गगनचन्द्रिका (73 श्लो.) प्रभृति क्रम दर्शन के ग्रन्थों में पूजा के चार प्रकार बताये गये हैं। वे हैं – चार, राव, चरु और मुद्रा। चार, चरु और मुद्रा शब्दों को यहाँ क्रमशः आचार विशेष, द्रव्यविशेष और शरीर के अवयवों की विशेष प्रकार की स्थिति अथवा विशेष प्रकार के वेश को धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। ये तीनों क्रमशः राव के ही पोषक हैं। राव ही यहाँ प्रधान है। विमर्श अथवा अपनी आत्मशक्ति के साक्षात्कार को यहाँ राव कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि अपने स्वरूप की अपरोक्ष अनुभूति ही परम पूजा है। कुछ आचार्य निजबलनिभालन के नाम से इसका वर्णन करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि साधक के अपने हृदय की स्फुरता ही परमेश्वर या इष्ट देवता है अपने इस स्वरूप की सतत अपरोक्ष (साक्षात्) अनुभूति ही निजबलनिभालन के नाम से अभिहित है। इस आत्मविमर्श का ही नामान्तर जीवन्मुक्ति है।
योगिनीहृदय (2/2-4) में परा, परापरा और अपरा के भेद से पूजा के तीन प्रकार बताये गये हैं। इनमें परा पूजा सर्वोत्तम है। यह बाह्य पत्र, पुष्प आदि से सम्पन्न नहीं होती, किन्तु अपने महिमामय स्वात्मस्वरूप अद्वय धाम में प्रतिष्ठित होना ही परा पूजा है। इस परा पूजा का निरूपण विज्ञान भैरव, संकेत पद्धति प्रभृति ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है।
Darshana : शाक्त दर्शन
पूर्ण (पूर्णता)
देखिए परिपूर्ण।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पूर्णभगवान्
जब सत्त्वगुणात्मक, रजोगुणात्मक या तमोगुणात्मक शरीर विशेष रूप अधिष्ठान की अपेक्षा किए बिना स्वयं अभिगुणात्मक शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तब वे स्वयं पूर्णभगवान हैं। ऐसे शुद्ध साकार ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। यद्यपि वे भी अधिष्ठान रूप में लीला शरीर से युक्त हैं, तथापि उनका वह विग्रह अभिगुणात्मक होने से सर्वथा शुद्ध है (अ. भा. पृ. 886)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
पूर्णानन्द
वल्लभ वेदान्त में पुरुषोत्तम भगवान ही पूर्णानन्द हैं। अक्षरानन्द या ब्रह्मानन्द उसकी तुलना में न्यून हैं। इसीलिए ज्ञानियों के लिए ब्रह्मानंद भले ही अभीष्ट हों, परंतु भक्तों के लिए तो पूर्णानन्द पुरुषोत्तम भगवान ही परम अभिप्रेत हैं (अ.भा.पृ. 1321)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
पूर्णाहंताविमर्श
देखिए अहम्परामर्श।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पूर्ववत्
अनुमान के तीन भेदों में यह एक है (अन्य दो हैं – शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट)। इसकी व्याख्या में मतभेद हैं। एक मत के अनुसार पूर्ववत् = कारण -विषयक ज्ञान, अर्थात् अतीत कारण के आधार पर भविष्यत् कार्य का अनुमान, जैसे मेघ की एक विशेष स्थिति को देखकर होने वाली वृष्टि का ज्ञान। यह देश भविष्यद् वृष्टिमान है, मेघ की अवस्था -विशेष से युक्त होने के कारण, अमुक देश की तरह – यह इस अनुमान का आकार है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपयुक्त लक्षणवाक्य में कारण = कारण का ज्ञान और कार्य = कार्य का ज्ञान – ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि कार्यविशेष और कारण-विशेष के ज्ञान से ही अनुमान होता है। वाचस्पति के अनुसार पूर्ववत् अन्वयव्याप्ति पर आधारित एवं विधायक होता है (तत्त्वको. 5)। अन्वय = तत्सत्वे तत्सत्वम् – किसी के कहने पर किसी (साध्य) का रहना। पूर्ववत् में साध्य के समानजातीय किसी दृष्टान्त के आधार पर व्याप्ति बनती है। उदाहरणार्थ – पर्वत में जिस वह्नि का अनुमान किया जाता है, उस वह्नि के सजातीय वह्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पाकशाला में (धूम के साथ) पहले हो गया होता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
पौरुष अज्ञान
अपने आपको परिपूर्ण शिव न समझकर केवल अल्पज्ञ तथा अल्पकर्तृत्व वाला जीव मात्र ही समझना पौरुष अज्ञान कहलाता है। इसे मलरूप अज्ञान भी कहते हैं क्योंकि इसी के आधार पर प्राणी में आणव, मायीय तथा कार्म नामक तीनों मलों की अभिव्यक्ति हो जाती है। इस प्रकार से पौरुष अज्ञान स्वरूप संकोच को कहते हैं। (तं.आ., 1-237, 38)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पौरुष ज्ञान
चित्तवृत्ति से सर्वथा असम्पृक्त अपने मूल स्वरूप को स्वयं अपने ही चित्प्रकाश से परिपूर्ण परमेश्वर ही समझना। अपने में स्वाभाविकतया परमेश्वरता का अनुभव करना। पौरुष ज्ञान बौद्ध ज्ञान के भी मूल में ठहरा रहता है। इसे अपने शिवभाव की साक्षात् अनुभूति कह सकते हैं। पौरुष ज्ञान में पूर्ण स्थिरता के लिए बौद्ध ज्ञान का होना बहुत आवश्यक माना गया है। (देखिए बौद्ध ज्ञान)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
प्रकाश
जिस शक्ति के द्वारा पाशुपत साधक पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता है, वह शक्ति प्रकाश कहलाती है तथा द्विविध होती है – अपर प्रकाश तथा पर प्रकाश (ग.का.टी.पृ.15) :-
अपर प्रकाश – जिस प्रकाश से साधक योग विधि के साधनों का उचित विवेचन करता है तथा ध्येयतत्व ब्रह्म पर समाहित चित्त को जानता है वह अपर प्रकाश कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
पर प्रकाश – जिस प्रकाश के द्वारा साधक समस्त तत्वों को उनके धर्मों तथा गुणों के सहित समझकर उनके सम्यक् रूपों का विवेचन करता है वह पर प्रकाश होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
प्रकाश
चेतना का सतत – चमकता हुआ ज्ञानात्मक स्वरूप। चेतना का अपना स्वाभाविक अवभास। ज्ञान। शुद्ध संविद्रूपतत्त्व। शुद्ध अहं रूप चेतना या आत्मा का अनुत्तर स्वरूप। जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति तथा सुख, दुःख आदि भिन्न भिन्न अवस्थाओं एवं भावों में अनुस्यूत रूप से विद्यमान रहते हुए भी इन सभी अवस्थाओं एवं भावों से उत्तीर्ण तुर्या में स्फुटतया चमकने वाला शुद्ध ज्ञान स्वरूप संवित्। (स्पंदकारिकाका. 3,4,5)। शिव का नैसर्गिक स्वरूप। (ई.प्र. 1-32, 33, 34)। प्रकाश वह तत्त्व है जो स्वयं अपने ही स्वभाव से चमकता हुआ अन्य सभी वस्तुओं को, शरीरों को, अंतःकरणों को, इंद्रियों को, विषयों को, भुवनों को, भावों को अर्थात् समस्त संसार को ज्ञान रूप प्रकाश से चमका देता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
प्रकाश-विमर्श
शैव और शाक्त अद्वैतवादी दार्शनिक प्रकाश शब्द को शिव का तथा विमर्श पद को शक्ति का वाचक मानते हैं। इन दोनों शब्दों का विवेचन सभी शैव और शाक्त ग्रन्थों में मिलता है। शब्द और अर्थ की तरह, पार्वती और परमेश्वर की तरह प्रकाश और विमर्श की भी स्थिति यामल भाव में ही रहती है। ये सदा साथ रहते हैं। वस्तुतः शब्द-अर्थ, पार्वती-परमेश्वर और प्रकाश-विमर्श शब्द पर्यायवाची हैं। अर्धनारीश्वर रूप में भगवान् शिव जैसे सतत यामल भाव में रहते हैं, वैसे ही प्रारम्भ में प्रकाश और विमर्श की स्थिति सामरस्य अवस्था में रहती है। इसी को समावेश दशा भी कहते हैं। समावेश दशा में जीव में परिमित प्रमाता का भाव गौण हो जाता है और वह अपने को स्वतन्त्र, बोधस्वरूप समझने लगता है, किन्तु शिव और शक्ति का यह समावेश (सामरस्य) प्रपंच के उन्मेष के लिए होता है। जीव जिस तरह शिव भाव में समाविष्ट होता है, उसी तरह से शिव और शक्ति का यह यामल भाव भी प्रपंच के रूप में समाविष्ट हो जाता है, प्रपंच के रूप में दिखाई देने लगता है। प्रकाश ज्ञान है और विमर्श क्रिया है। इस पारमेश्वरी क्रिया से सतत आविष्ट परम तत्त्व सदैव सृष्टि, संहार आदि लीलाओं के प्रति उन्मुख बना रहता है और वैसे बना रहना ही उसकी परमेश्वरता है। अन्यथा वह शून्य गगन की तरह जड़ होता।
Darshana : शाक्त दर्शन
प्रकाशविश्रांति
अपनी शुद्ध प्रकाशरूपता का ही आश्रय लेकर उसी से सर्वथा कृतकृत्य हो जाना। प्रकाश विश्रांति का अभ्यास करने वाले योगी को उस अभ्यास में सतत गति से अपने असीम, शुद्ध और परिपूर्ण चिद्रूपता का अपरोक्ष साक्षात्कार होता रहता है। उसे प्रकाश के स्वभावभूत ऐश्वर्य की भी साक्षात् अनुभूति होती रहती है। उसे अपने से भिन्न किसी उपास्य देव का ध्यान नहीं रहता है और न ही किसी सुख, दुःख आदि आभ्यंतर विषय का तथा न ही किसी नील, पीत आदि बाह्य विषय का आभास ही शेष रहता है। न ही उसे अपने संकुचित जीव भाव का ही कोई संवेदन शेष रहता है। वह इन सब से ऊपर चला जाता है। इस अभ्यास से साधक में शिवभाव का समावेश हो जाता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
प्रकाशावरण
योगसूत्र (2/52) में कहा गया है कि प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाशावरण का क्षय होता है। व्यास के अनुसार यह प्रकाशावरण विवेकज्ञान को ढकने वाला कर्म (कर्मसंस्कार) है, जो संसरण का हेतु है। यह कर्म संस्कार अधर्मप्रधान है – ऐसा कुछ व्याख्याकार कहते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
प्रकृति
सत्व-रजः-तमः की समष्टि प्रकृति है। ‘प्रकृति से सत्त्वादि उत्पन्न या आविर्भूत हुए’, ऐसे शास्त्रीय वाक्य गौणार्थक होते हैं। सत्त्वादिगुणत्रय के अतिरिक्त प्रकृति नहीं है; द्र. गुणशब्द।
‘प्रकृति’ का अर्थ है – उपादानकारण। सांख्य में मूलप्रकृति और प्रकृतिविकृति शब्द प्रायः व्यवहृत होते हैं। बुद्धि से शुरू कर सभी तत्वों का उपादान मूल प्रकृति है और बुद्धि-अहंकार-पंचतन्मात्र ‘प्रकृति-विकृति’ कहलाते हैं, क्योंकि वे स्वयं किसी तत्त्व का उपादान होते हुए तत्त्व के विकार भी हैं। चूंकि ये आठ पदार्थ प्रकृति हैं, अतः ‘अष्टो प्रकृतयः’ यह तत्त्वसमाससूत्र (2) में कहा गया है।
सांख्यीय दृष्टि से मूल प्रकृति के विकार असंख्य हैं (यथा महत्तत्त्व संख्या में असंख्य हैं), पर मूल प्रकृति एक है। कोई भी विकार प्रकृति से पृथक् नही है। सत्त्वादिगुण भी परस्पर मिलित ही रहते हैं।
प्रकृति की दो अवस्थाएँ हैं – साम्यावस्था एवं वैषम्यावस्था। साम्यावस्था में त्रिगुण का सदृशपरिणाम होता है और वैषम्य-अवस्था में विसदृश परिणाम। वैषम्यावस्था कार्य-अवस्था है, यह ‘व्यक्त’ नाम से अभिहित होती है। व्यक्त प्रकृति महत् आदि तत्त्वों के क्रम में है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
प्रकृति तत्त्व
मूल प्रकृति। प्रधान तत्त्व। छत्तीस तत्त्वों के क्रम में तेरहवाँ तत्त्व। परमेश्वर की स्वतंत्र इच्छा ही संकोच की अवस्था में माया तत्त्व के रूप को धारण करती है। भगवान अनंतनाथ इस माया तत्त्व को प्रक्षुब्ध करके पाँच कंचुक तत्त्वों को प्रकट करते हैं। उनके संकोच के भीतर घिरा हुआ चिद्रूप प्रमाता पुरुष तत्त्व के रूप में प्रकट होता है और उसका सामान्याकार प्रमेय तत्त्व सामान्यतः ‘इदं’ इस रूप में प्रकट होता हुआ प्रकृति तत्त्व या मूल प्रकृति या प्रधान तत्त्व कहलाता है। इस सामान्याकार ‘इदं’ में आगे सृष्ट होने वाले सभी तेईस तत्त्व समरस रूप में स्थित रहते हैं। सत्त्व आदि तीन गुण भी इस अवस्था में साम्य रूप से ही स्थित रहते हैं। इसे गुण साम्य की अवस्था भी कहते हैं। (तं.सा.पृ. 83)। देखिए गुण तत्त्व।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
प्रकृतिक्षोभ
साम्यावस्था में स्थित गुणत्रय (प्रकृति) का जो वैषम्य होता है, उसका हेतु है – पुरुष का उपदर्शन; पुरुष द्वारा उपदृष्ट होने पर ही गुणवैषम्य होता है। गुणों का यह वैषम्यभाव प्रकृतिक्षोभ कहलाता है। इस क्षोभ के कारण ही प्रकृति से महत् का आविर्भाव होता है जो अहंकार आदि रूप से परिणत होता रहता है। यह ज्ञातव्य है कि यह क्षोभ (साम्यावस्था से प्रच्युति) किसी काल में नहीं होता – यह अनादि है, अर्थात् महत्तत्त्व अनादि है। अनादि होने पर भी उसके दो कारण (पुरुष के रूप में निमित्त-कारण एवं गुणत्रय के रूप में उपादानकारण) माने गए हैं।
ब्रह्माण्ड-विशेष की सृष्टि के प्रसंग में भी ‘प्रकृतिक्षोभ’ का प्रसंग आता है। भूतादिनामक तामस अहंकार ब्रह्माण्ड का उपादान है। यह अहंकार एक प्रकृति है जो अणिमादि-सिद्धिशाली सृष्टिकर्त्ता प्रजापति हिरण्यगर्भ में आश्रित है। प्रजापति के सृष्टिसंकल्प से यह अहंकार-रूप प्रकृति क्षुब्ध होकर तन्मात्र-भूतभौतिक रूप से परिणत होता है और ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त होता है। क्षुब्ध होने से पहले यह अहंकार रुद्धप्राय सुप्तवत् अवस्था में रहता है, अतः पुराणों में प्रायः अव्यक्त प्रकृति के क्षुब्ध होने का उल्लेख (ब्रह्माण्डसृष्टि -प्रसंग में) मिलता है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
प्रकृतिलय