Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
Please click here to view the introductory pages of the dictionary
पशुत्वहानि
विशुद्धि का भेद।
पाशुपत साधना का अभ्यास करते-करते युक्त साधक के पशुत्व का पूर्णरूपेण उच्छेद हो जाता है। उसका पशुत्व रूपी बंधन कट जाता है, तथा वह पशुत्वहानि रूप विशुद्धि को प्राप्त कर लेता है, जिसकी प्राप्ति से साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए उत्कृष्ट स्तर की विशुद्धि को प्राप्त करने के प्रति अग्रसर हो जाता है। (ग.का.टी.पृ.7)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पशुपति
भगवान महेश्वर का नामांतर।
पशुओं अर्थात् समस्त जीवात्माओं के ईश्वर, स्वामी व पालक को पाशुपत दर्शन में पशुपति (पशुओं का पति) नाम से अभिहित किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 5)।
पति ही पशुओं के लिए जगत की सृष्टि करता है। उस सृष्टि मे वे कर्मफल भोग को भी प्राप्त करते हैं और पाशुपत योग का अभ्यास भी करते हैं। इस तरह से उनका हित करता हुआ परमेश्वर उनका पालक या पति है।
केवल उसी पशु की योग में प्रवृत्ति हो जाती है जिस पर शिव अनुग्रह करते हैं। इस तरह से अनुग्रह द्वारा जीवों को योग में प्रवृत्त करने वाला और उसके फलस्वरूप उन्हें संसृति के कष्टों से बचाने वाला शिव उन पशुओं का पति कहलाता है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पशुमातरः
पशुओं को अर्थात् बद्ध जीवों को विविध प्रकार की प्रेरणा देने वाली परमेश्वर की शक्तियाँ। ये शक्तियाँ पशु प्रमाता को अर्थात् जीव को अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति अभिमुख करने वाली, उसमें सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न करने वाली तथा उसका अधःपतन करने वाली क्रमशः अघोर, घोर तथा घोरतरी शक्तियों के तीन वर्गों में विभक्त हैं। शक्तियों के ये तीन वर्ग ही एक-एक जीव के साथ ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि आठ मातृकाओं के रूप में लगकर उसके समस्त व्यवहारों में उसे चलाती रहती हैं। परमेश्वर की ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक शक्तियों के अधीन रहकर ये ‘पशुमातरः’ काम करती रहती हैं।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पश्यंती वाच् / वाणी
परावाच् (देखिए) ही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से बाह्यरूपतया अभिव्यक्त होने की अतिसूक्ष्म इच्छा से प्रेरित होकर जिस भेदाभेदात्मक रूप में प्रकट होती है उसे पश्यंती वाच् कहते हैं। इस वाणी में अभी तक वाच्य और वाचक के पार्थक्य के स्फुट उदय के न होने से उनके भेद की भी अभिव्यक्ति स्पष्टतया नहीं हुई होती है। इसमें संविद्रूप परावाक् ही प्रधानतया शुद्धाशुद्ध प्रमातृ रूप में प्रकट होती है। (तं.आ.वि.2 पृ. 225)। परंतु इस वाणी में समस्त वाच्यों और वाचकों का क्रमरहित आभास होता है। यह परा में और इसमें भेद है। आगे मध्यमा में समस्त भेद का क्रमरूपतया स्फुट आभास बुद्धि के क्षेत्र में हो जाता है, जो पश्यंती में नहीं होता। अतः पश्यंती को अविभागा और संहृतक्रमा कहा गया है। इस वाणी की स्पष्ट अभिव्यक्ति मुख्यतया सदाशिव दशा में हुआ करती है। (स्व.वृ., पृ. 149)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पश्यन्ती
व्यंजक के प्रयत्न से संस्कृत मूलाधार स्थित पवन जब नाभि तक चला जाता है, तो उस पवन से पश्यत्नी वाक् अभिव्यक्त होती है। यह विमर्शात्मक मन से जुड़ी रहती है और इसमें कार्य बिन्दु का सामान्य स्पन्दन प्रकाशित हो उठता है। पश्यन्ती को नाद की अनाहतहत अवस्था माना जाता है। अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के सहारे परा वाक् अनेक रूप धारण करने को जब उद्यत होती है, तो पहले वर्णाम्बिका का पश्यन्ती रूप अभिव्यक्त होता है। कामकलाविलासकार पुण्यानन्द (23-24 श्लो.) ने पश्यन्ती के ग्यारह अवयव माने हैं। प्रकाशात्मक अकार की वामा, ज्येष्ठा, रौद्री और अम्बिका नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप अकार मिलकर उसके पाँच अवयव होते हैं। इसी तरह विमर्शात्मक हकार की इच्छा, ज्ञान, क्रिया और शान्ता नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप हकार मिलकर भी पाँच अवयव होते हैं। अकार और हकार की सामरस्यावस्था पश्यन्ती का ग्यारहवाँ रूप बनती हैं। योगिनी हृदय (1/37-38) में इसको वामा शक्ति कहा गया है।
Darshana : शाक्त दर्शन
पात
भक्ति मार्ग में भगवद्भाव से च्युत हो जाना पात है। भगवद् भाव से च्युति के कारण ही इन्द्रत्व आदि के प्राप्ति रूप आधिकारिक फल को भी पतन कहा गया है (अ.भा.पृ. 1289)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
पादोदक
देखिए ‘अष्टावरण’।
Darshana : वीरशैव दर्शन
पारमार्थिक सत्ता
व्यावहारिक सत्ता का मूल, शुद्ध एवं स्थिर रूप। संपूर्ण व्यावहारिक सत्ता मूलतः अनुत्तर संवित् में संवित् के ही रूप में रहती है। पारमार्थिक सत्ता परमसिव की शक्तिता का अंतः रूप है। आभासमान समस्त विश्व वस्तुतः सर्वथा असत्य नहीं है, क्योंकि यह अपने पारमार्थिक रूप में सदैव शुद्ध संवित् रूप में तो आभासित होता ही रहता है। वही उसकी पारमार्थिक सत्ता है। पारमार्थिक सत्ता कल्पित व्यावहारिक सत्ता का ही अकल्पित एवं शुद्ध रूप है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पार्थिव अंड
देखिए प्रतिष्ठा कला।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पाश
परमशिव की शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रूपता से भिन्न जो कुछ भी आभासित होता है, वह सभी कुछ बंधन स्वरूप होता हुआ पाश कहलाता है। वस्तुतः संवित् से भिन्न कुछ भी नहीं है, वही परमशिव है। परंतु जब वही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से अपनी परमाद्वैत संविद्रूपता को अपने ही आनंद के लिए छिपाता हुआ और अपने आपको संकुचित रूप में प्रकट करता हुआ अनंत रूपों में अभिव्यक्त होता है तो वे सभी संकुचित रूप तथा सारे का सारा प्रपंच पाश कहलाते हैं। (तं.आ. आ. 8-292)। अपनी परिपूर्ण शुद्ध संविद्रूपता का अज्ञान। (वही 293)। देखिए मल।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
पाशाष्टक
अद्वैतवादी शाक्त दर्शन की त्रिपुरा, क्रम, कौल प्रभृति सभी शाखाओं में पाशाष्टक की चर्चा आई है। कुलार्णव तन्त्र (13/90) में इनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं- घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति। योगिनीहृदयदीपिका (पृ. 81), महार्थमंजरी (पृ. 145) प्रभृति ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि शाक्त साधक घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा प्रभृति मानसिक विकृत भावों से तथा कुल, शील और जाति के संकीर्ण बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेता है। इन पाशों से जब तक साधक बँधा रहता है, तब तक वह जीवन्मुक्त कैसे कहा जा सकता है? इस पाशमुक्त स्थिति का पूर्ण विकास किसी अघोरी बाबा में देखने को मिलता है। सहज अवस्था की प्राप्ति के लिये भी इन पाशों से मुक्त होना आवश्यक है। भारतीय और तिब्बती साहित्य में 84 सिद्धों की चर्चा मिलती है। वे सभी इन पाशों से मुक्त महायोगी माने गये हैं।
Darshana : शाक्त दर्शन
पाशुपत दर्शन
सम्प्रति उपलब्ध पाशुपत साहित्य के ग्रंथों में पाशुपत मत के दार्शनिक सिद्धांतों का विशेष प्रतिपादन नहीं हुआ है। इसमें अधिकतर पाशुपत धर्म तथा पाशुपत योग के बारे में व्याख्या हुई है। पाशुपत मत वास्तव में दर्शन की एक व्यवस्थित पद्धति नहीं थी अपितु योगियों का सम्प्रदाय था। योगियों के समूहों के समूह शिव को आराध्य देव मानकर साधना विशेष का अभ्यास करते – करते समस्त भारत का भ्रमण करे रहते थे। कहीं-कहीं पर उस समय के राजा लोग भी उन संन्यासियों से प्रभावित होकर उन्हें आश्रय दे देते थे तथा शिव की पूजा व भक्ति को अपनाते थे।
वैदिक रूद्र का आदिम निवासियों के शिव के साथ एकीकरण होने पर कालांतर में शिव ने जब प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया तब शैवमत भिन्न – भिन्न स्थानों पर भिन्न – भिन्न धाराओं में समृद्ध होने लगा। दक्षिण में तमिलनाडू में शैव सिद्धांत, कर्नाटक में वीर शैव, काश्मीर में प्रत्यभिज्ञा शैव दर्शन तथा राजपूताना, गुजरात आदि में पाशुपत मत के रूप में शैव दर्शन पनपने लगा। वैसे पाशुपत संन्यासी समस्त भारत में भ्रमण करते रहे हैं, परंतु पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश के गुजरात काठियावाड़ में अवतार लेने के कारण वही स्थान पाशुपत मत का केंद्र माना जाने लगा। इस तरह से पाशुपत मत प्रधानरूप से संन्यासियों में पनपी योगविधि थी दार्शनिक सिद्धांत नहीं। परंतु बाद में पाशुपत मत के जो ग्रंथ बने उनमें पाशुपत सिद्धांतों की थोड़ी बहुत व्याख्या की गई है।
पाशुपतसूत्र तथा उसके कौडिन्यकृत पञ्चार्थीभाष्य में पाँच पदार्थों की व्याख्या की गई। पाशुपत दर्शन के विषयों को पाँच वर्गों में बांटा गया है। वे हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत। गणकारिकाकार ने पाशुपत सिद्धांत को नौ गणों में विभाजित किया है। इनमें से आठ गण पंचक हैं तथा एक गण त्रिक। परंतु पाशुपत मत व दर्शन का मुख्य विषय योगविधि है तथा समस्त योग, धर्म व दर्शन का फल दुःखांत अर्थात् समस्त सांसारिक क्लेशों की पूर्ण निवृत्ति और ऐश्वर्यपूर्ण सिद्धियों की प्राप्ति है। माधवाचार्य तथा हरिभद्र ने भी अपने ग्रंथों में अर्थात् सर्वदर्शन संग्रह तथा षड्दर्शन समुच्चय में पाशुपत सूत्र तथा गणकारिका के आधार पर ही पाशुपत मत का प्रतिपादन किया है।
इन सब ग्रंथों के आधार पर पाशुपत दर्शन का मुख्य सार है कि समस्त फल अर्थात् जगत कार्य है। इसका एकमात्र हेतु (कारण) ईश्वर है, जिसको भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया गया है। ईश्वर स्वतंत्र है। वह समस्त कार्य को उत्पन्न करने अथवा संहार करने में पूर्णत: स्वतंत्र है। उसे किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पाशुपत मत में कर्म सिद्धांत या माया अथवा अविद्या का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। ईश्वर शतश: निरपेक्ष रूप से कार्य का कारण बनता है तथा जीवों को मुक्ति दिलाने में उसी का एकान्तिक प्रसाद काम करता है। जिस पर ईशप्रसाद होगा, वही मुक्तिमार्ग में लगेगा। उसकी एकमात्र स्वतंत्र इच्छा से, जीवों को इष्ट, अनिष्ट, स्थान, शरीर, विषय इंद्रियों आदि की प्राप्ति होती है।
पाशुपत मत में योग के साथ – साथ भक्ति पर काफी बल दिया गया है। भक्ति सिद्धि का एक आवश्यक सहायक तत्व है, तथा मोक्ष पारमैश्वर्य प्राप्ति है। परंतु मुक्त जीव ईश्वर के साथ एक नहीं होता है, अपितु उसी की जैसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है जिस स्थिति को रूद्र सायुज्य कहा गया है। पाशुपत दर्शन, योग व धर्म का चरम उद्देश्य सापाक को रुद्रसायुज्य की प्राप्ति करवाना है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पाशुपत धर्म
पाशुपत मत में मुख्य विषय योगविधि है, परंतु योगविधि का अनुसरण करने से पूर्व हर साधक को उस योग से संबंधित धर्मविशेष का अनुसरण करना पड़ता है। पाशुपत धर्म वैदिक धर्म से कई बातों में भिन्नता लिए है। वैसे पाशुपत मत का अनुयायी केवल ब्राह्मण या द्विज ही हो सकता है। शूद्र और स्त्री के साथ बोलना या उन्हें देखना भी साधक के लिए निषिद्ध है। यदि गलती से देख ही ले तो उसे शुद्धि करनी पड़ती है। (पा.सू. 1-12, 13,14,15)।
पाशुपत मत में वैदिक धर्म की कुछ एक बातें अवश्य समाई हैं, वह है ओंङ्कार पर ध्यान लगाना तथा अघोर आदि मंत्रों का जप करना। परंतु और सभी अनुष्ठानों में पाशुपत धर्म भिन्नता लिए हुए हैं। इसमें बलि, हवन आदि को कहीं स्थान नहीं मिला है। बस एकमात्र पूजा और योग साधना को ही प्रमुख स्थान मिला है।
वास्तव में पाशुपत धर्म में भी भिन्न-भिन्न विधियाँ ही हैं। पाशुपत धर्म साधारण गृहस्थ के लिए नहीं प्रतिपादित हुआ है। पाशुपत धर्म के आचार्यों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि साधारण मानवमात्र के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, परंतु पाशुपत साधक के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, उसे साधना करते-करते कहाँ निवास करना चाहिए, कैसे जीविका का निर्वाह करना चाहिए, वस्त्र कैसे पहनने चाहिए? आदि सभी बातों की व्याख्या की गई है। इस प्रकार से पाशुपत धर्म केवल योगियों के लिए ही बना है।
पाशुपत धर्म में अहिंसा पर काफी बल दिया गया है, परंतु साधक मांस का सेवन कर सकता है, यदि वह भिक्षा में मिला हो। परंतु स्वयं पशु को मार कर उसका मांस खाना निषिद्ध है। आहार लाघव नामक यम में भी यही बात कही गई है कि साधक के भोजन की मात्रा नही अपितु उसके भोजन अर्जित करने के ढंग में आहारलाघव होता है। भिक्षा में मिला अन्न या जो कहीं पड़ा हो, केवल उसी अन्न को पाशुपत साधक खाए तो आहारलाघव नामक यम का पालन माना जाएगा। परंतु यदि किसी से बलात्कार से छीना हुआ एक ग्रास भी ले, वह अनुचित है।
पाशुपत धर्म में शिव की मूर्ति की पूजा को पूरे अनुष्ठान से करने को कहा गया है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पाशुपत मत
(प्रागैतिहासिक)
पाशुपत शैव मत के बीज प्रागैतिहासिक काल में भी विद्यमान थे। क्योंकि सिन्धु घाटी के कुल निवासियों के धर्म के बारे में कई प्रमाणों से अनुमान लगाया जाता है कि उन निवासियों में पाशुपत शैव धर्म का प्रचलन था। सिन्धु घाटी में उस समय के प्रचलित धर्म को निश्चित करने के लिए कई प्रमाण उपलब्ध होते हैं जैसे मोहजोंदड़ों की खुदाई में मिले अवशेषों में पुरुष देवता का खुदा हुआ पक्की मिट्टी का एक चित्र मिला है, जिसके दायीं तरफ एक हाथी और एक शेर तथा बायीं तरफ एक गेंडा और एक भैंसा चित्रित है तथा सिंहासन के नीचे दो हिरण दिखाए गए हैं। पुरुष देवता के चहुँ ओर इतने पशुओं को अंकित करने का शायद यही अर्थ रहा हो कि पशुओं के रक्षक यह पुरुष देवता माने जाते रहे हों तथा इस संदर्भ में भी उसे पशुपति माना जाता हो। वैसे तो पाशुपत मत में पशु का अर्थ जानवरमात्र न लेकर जीवमात्र लिया गया है। परंतु ऋग्वेद में रूद्र से एक स्थान पर प्रार्थना की गई है कि वह द्विपादों (जीवों) तथा चतुष्पादों (जानवरों) की रक्षा करे। (ऋग्वेद 1-114 -1)। वैदिक रूद्र ने समय के बहाव के साथ-साथ शिव का रूप धारण किया। अतः बहुत संभव है कि वेदों में सिंधुघाटी के जिस देवता को शिश्नदेव कहा गया है, वह यही पुरुष देवता ही हो। तथा पशुमात्र (चाहे जानवर हो या जीव) का रक्षक होने के कारण पशुपति कहा जाने लगा हो। इस पुरुष देवता की विशेष मुद्रा, जिस मुद्रा में वह बैठा है, उस प्रागैतिहासिक काल में शैव योग के प्रचलन का एक और प्रमाण उपस्थित करती हैं। इस तरह की मुद्रा शैव मत के शांभव योग में आती है।
इस मुद्रा के अतिरिक्त लिंग और योनि के आकार के कई पत्थर मिले हैं, जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता में लिंगोपासना का पता चलता है। इस तरह से सिन्धु घाटी के लोग किसी पुरुष देवता को तथा उसके लिंग को प्रतीक के रूप में पूजते थे। ऊपर चर्चित मुद्रा में आसन विशेष अंकित होने से तथा एक नासाग्रदृष्टि वाले योगी की प्रस्तर मूर्ति से यह भी पता चलता है कि योग का भी प्रचलन रह होगा तथा कई इतिहासवेत्ताओं के मतानुसार सिन्धुघाटी में पाशुपत शैवमत प्रचलित था। बाद में वैदिक आर्यों के देवताओं ने धीर-धीरे सिन्धु घाटी में प्रचलित उस प्रागैतिहासिक शैव धर्म को आत्मसात् कर लिया। क्योंकि वैदिक साहित्य का ध्यान पूर्वक अनुशीलन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वैदिक रूद्र का रूप धीरे-धीरे बदलता गया और वह सिन्धुघाटी के शिव का रूप धारण करता गया। यजुर्वेद के समय तक शैव धर्म वैदिक आर्यों के धर्म का मुख्य अंग बन गया और यहाँ तक कि वैदिक धर्म में लिंगोपासना का समावेश भी हो गया चाहे उसका रूप काफी बदल गया। बाद में श्वेताश्वतर उपनिषद्, नारायणीय उपनिषद्, अथर्वशिरस् उपनिषद, पुराणों, महाभारत तथा रामायण में पाशुपत धर्म ने प्रमुख धर्म के रूप में तथा शिव ने परम देवता के रूप में एक निश्चित व महत्वपूर्ण स्थान ले लिया। इस तरह से पाशुपत मत भारत का अतिप्राचीन धर्म है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पाशुपत योग
पाशुपत मत का मुख्य विषय योग साधना है तथा पाशुपत मत के ग्रंथ प्रमुखत: पाशुपत योग का ही प्रतिपादन करते हैं। पाशुपतों ने योग शब्द की व्याख्या की है कि जीवात्मा का परमात्मा से संयोग ही योग कहलाता है (आत्मेश्वर संयोगों योग: पा. सू. कौ. भा. पृ. 41)। यह योग दो प्रकार का कहा गया है – क्रियात्मक योग तथा क्रियोपरम योग।
क्रियात्मक योग में जप, ध्यान समाधि आदि का अभ्यास करना होता है, परंतु क्रियोपरम योग में क्रिया की पूर्ण निवृत्ति होती है तथा शुद्ध संवित् ही शेष रहती है। पाशुपत मत में यम, नियमों आदि पर भी काफी बल दिया गया है। पातञ्जल योग में चितवृत्तियों का विरोध योग होता है। परंतु पाशुपत मत में चित्तवृत्तियों के सांसारिक विषयों से पूर्णत: निवृत्त होने पर तथा संपूर्णत: ईश्वर में ही लगे रहने को योग कहते हैं। इस योग को प्राप्त करने के लिए जप, तप, रूद्रस्मरण और पाशुपत मत की विधि का पालन आवश्यक है जो इस योग के मुख्य अंग हैं। यह विधि एक विचित्र साधना है जो साधक को आलोचना और निन्दा का पात्र बना देती है तथा जो काफी विस्तृत है। इसमें आने वाले सभी पारिभाषिक शब्द यथा स्थान परिभाषित किए गए हैं। पाशुपत साधना का अपना विशेष अङ्ग यह विधि ही है जो अन्य साधना मार्गों में कही भी नहीं मिलती है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पाशुपत लकुलीश
प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित पाशुपत शैव धर्म को वैदिक आर्यों के धर्म के साथ एकीकरण हो जाने के उपरांत तथा रामायण महाभारत के समय तक पूर्णरूपेण एक लोकधर्म बनने के उपरांत कालांतर में पाशुपत मत का एक अभिनव आविर्भाव हुआ तथा इस युग में इस मत के ऐतिहासिक संस्थापक का नाम लकुलीश अथवा लगुलीश है जिसके आविर्भाव का काल दूसरी शती का आरंभ माना जाता है। पुराण साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि लकुलिन् अथवा नकुलिन् ने लोगों में पाशुपत अथवा माहेश्वर योग का प्रचार किया। (वायुपुराण 23-217-21; लिङ्गपुराण 2-24)। इस नकुलिन् को भगवान शिव का अवतार माना गया है। (लिङ्गपुराम 124-32)। परंतु इस लकुलीश का समय पूरी तरह निश्चित नहीं है कि कब हुआ था? कुछ विद्वानों ने इसको पतंजलि के समय 200 ई.पू. में रखा है तथा कई विद्वानों ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर ईसा की दूसरी शती में रखा है। राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़ उड़ीसा आदि कई स्थानों में मिले कई शिलालेखों में नकुलीश की मूर्ति खुदी हुई मिली है। तेरहवीं शती के श्रृंगारदेव चित्र प्रशस्ति में भी लकुलिन् का पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में तथा उसके चार पुत्रों अथवा चार शिष्यों का उल्लेख हुआ है। चीनी यात्री ह्यूनसांग को हिन्दुकुश से दक्षिणभारत तक पाशुपत संन्यासी मिलते रहे। बादरायण, शंकर आदि ने भी उनके अनुयायियों का उल्लेख किया है। रामानुज (12वीं शती) ने भी पाशुपत शैवों के आचार का उल्लेख किया है। लकुलीश की जो पूर्ण या अर्धखंडित मूर्तियाँ मिली हैं, उन सबमें उसका मस्तक केशों से ढ़का हुआ है। दाएं हाथ में बीजपूर का फल तथा बाएं हाथ में लगुड (दण्ड) रहता है। लकुलीश के अवतार लेने के बारे में वायुपुराण, लिंगपुराण तथा कायावरोहण माहात्म्य में सामग्री मिलती है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
पिंगला नाडी
नाडी शब्द के विवरण में बताया गया है कि शरीर स्थित अनन्त नाडियों में से तीन नाडियँ मुख्य हैं – इडा, पिंगला और सुषुम्णा। इनमें से पिंगला नाडी शरीर के दक्षिण भाग में स्थित है, जो कि सूर्यात्मक माना जाता है। पिंगला नाडी दक्षिण मुष्क से उठकर धनुष की तरह तिरछे आकार में दाहिने गुर्दे और हंसुली में से होती हुई दक्षिण नासिका तक गतिशील रहती है। पिंगला नाडी खितरक्त वर्ण की है। इसमें सूर्य का संचार होता है। यह ऊर्ध्वगामिनी नाडी है। ज्ञानसंकलिनी तन्त्र (11-12 श्लो.) में पिंगला नाडी को यमुना बताया गया है। सकाम कर्मों का अनुष्ठान करने वाले जीवों को यह नाडी शुक्ल देवयान मार्ग से देवलोक में ले जाती है, जो कि अन्ततः पुनर्जन्म का कारण बनता है। इन नाडियों का शोधन किये बिना साधक कभी भी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। रेचक प्राणायाम करते समय पिंगला नाडी से ही वायु को बाहर निकाला जाता है।
Darshana : शाक्त दर्शन
पिंड
परिशुद्ध अंतःकरण वाले जीव को ‘पिंड’ कहते हैं। वीरशैव दर्शन में ‘आणव’ आदि मल-त्रय से आवृत परशिव का अंश ही जीव कहलाता है। यह अपने कर्मानुसार जन्म-मरण-चक्र में भ्रमण करता हुआ अनेक जन्मों में मन, वाणी तथा शरीर से जन्य पापों के प्रशमनार्थ यदि अनेक मनुष्य-जन्मों में पुण्य कार्य ही करता रहता है, तो उसके प्राक्तन नानाविध पाप ध्वस्त हो जाते हैं और वह पुण्यदेही बन जाता है, तथा उसमें शिवभक्ति का अंकुर उदित हो जाता है।
शुद्ध अंतःकरण वाले इसी जीव को वीरशैव संतों ने ‘आदिपिंड’ कहा है। आदिपिंड कहने का उनका तात्पर्य यह है कि पहली बार इसका अंतःकरण शुद्ध हुआ है और उसमें शिवभक्ति का उदय हुआ है। यह अन्य जीवों से विलक्षण है। इसको ‘चरम-देही’ कहा जाता है, अर्थात् यही इसका चरम अंतिम देह है। अब इसका पुनर्जन्म नहीं होने वाला है। इसी जन्म में यह विवेक और वैराग्य को प्राप्त करके वीरशैवों की उपासना के क्रम से मुक्त हो जाता है – (सि. शि. 5/31-33 तथा 52-54, पृष्ठ 62,63, 72; तो.व.को. पृष्ठ 43)।
Darshana : वीरशैव दर्शन
पिंड-ज्ञानी
आत्मानात्म-विवेक-संपन्न जीव को वीरशैव दर्शन में ‘पिंडज्ञानी’ कहते हैं। शरीर आदि से आत्मा के पार्थक्य का ज्ञान ही ‘पिंडज्ञान’ है, अर्थात् नश्वर शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अनात्मा जानकर उससे भिन्न सनातन और मुख्य अहं-प्रत्यय (मैं इस प्रकार के ज्ञान) के विषयीभूत चैतन्य को ही आत्मा समझना पिंडज्ञान है। इसे ‘आत्मानात्म विवेक’ और ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विज्ञान’ भी कहा गया है। इस विवेक से युक्त शुद्ध अंतःकरण वाला जीव ही ‘पिंड-ज्ञानी’ कहलाता है। यह शरीर आदि से अपने को भिन्न मानता हुआ भी शिव को भी अपने से भिन्न तथा अपना प्रेरक मानता है। इस तरह इसमें अभी भेदबुद्धि बनी रहती है (सि.शि. 5/1-6 पृष्ठ 73-75)।
इस ‘पिंडज्ञानी’ को वीरशैव संतों ने ‘मध्य-पिंड’ कहा है। इसको ‘मध्य-पिंड’ इसलिये कहा जाता है कि अविवेकी-जीव और मुक्त जीव इन दोनों के बीच में इसकी स्थिति रहती है, अर्थात् आत्मानात्मा के विवेक का उदय होने से यह सामान्य संसारी जीवों से श्रेष्ठ है, और इसको अभी परशिव के साथ सामरस्य (एकता) का बोध नहीं हुआ है, अतः उन मुक्तात्माओं से यह कनिष्ठ है। इस प्रकार उन दोनों के मध्य अवस्थित होने से यह ‘मध्य – पिंड’ कहलाता है (तो.व.को. पृ.283)।
Darshana : वीरशैव दर्शन
पिंडस्थ