Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
Commission for Scientific and Technical Terminology (CSTT)
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कर्माशय
योगशास्त्र में कर्माशय का अर्थ वह पिण्डीभूत संस्कार है जो धर्माधर्म रूप कर्मों से निष्पादित होता है। कर्म चूंकि क्लेश के बिना नहीं होता, अतः कर्माशय को क्लेशमूलक कहा जाता है (योग सू. 2/12)। कर्माशय के अनुसार जाति, आयु और भोग की प्राप्ति होती है। कर्माशय के कारण ही चित्त शरीर में बद्ध रहता है (व्यासभाष्य 3/38)।
कर्माशय दो प्रकार का है। जिस कर्माशय का फल वर्तमान जीवन में अनुभूत होता है वह दृष्टजन्मवेदनीय है; जिसका फल आगामी जीवन में अनुभूत होता है वह अदृष्टजन्मवेदनीय है। दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय एक विपाक (भोग अथवा आयु रूप फल देने वाला) अथवा द्विविपाक (भोग तथा आयु रूप दो फल देने वाला) होता है। जो कर्माशय पूर्णतः फल देता है, वह नियतविपाक कहलाता है; जो कर्माशय अन्य हेतु से नियन्त्रित होने के कारण अपना फल पूर्णतः नहीं दे पाता, वह अनियत विपाक है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
कर्मेन्द्रिय
जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय (=बुद्धीन्द्रिय) का अर्थ है – विषय-ज्ञान की साधनभूत इन्द्रिय, उसी प्रकार कर्मन्द्रिय का अर्थ है – विषय-सम्बन्धी कर्म की साधनभूत इन्द्रिय। कई आचार्यों ने इस कर्म को ‘आहरण’ शब्द से अभिहित किया है (सां. का. 33)। किसी प्रयोजनसिद्धि के लिए बाह्य विषयों को स्वेच्छया चालित करना ही आहरण है – ऐसा प्रतीत होता है। ज्ञानेन्द्रिय के व्यापार के साथ इच्छा का सम्बन्ध नहीं है; इच्छा न रहने पर भी रूपादि -ज्ञान उत्पन्न हो ही सकता है। सांख्य में ज्ञानेन्द्रियों की तरह कर्मेन्द्रियाँ भी अभौतिक हैं तथा अहंकार के सात्त्विक अंश से उद्भूत हैं। संबंधित शारीरिक अवयव इन इन्द्रियों के अधिष्ठानमात्र हैं।
कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं – वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ तथा पायु। वाक् इन्द्रिय का कर्म (=व्यापार) है वचन अर्थात् वर्णादि का उच्चारण करना। तालु आदि शरीरांग इसके अधिष्ठान हैं। पाणि का व्यापार है – आदान, (जो कहीं-कहीं शिल्प भी कहलाता है) अर्थात् बाह्य विषयों का ग्रहण (ग्रहणपूर्वक अभीष्ट देश में स्थापन भी)। हाथ, चंचु (पक्षियों का) आदि इसके अधिष्ठान हैं। पाद का व्यापार है – विहरण = गमन। गमनसाधक सभी शरीरांगों में पाद का अधिष्ठान है। उपस्थ का व्यापार है – प्रजनन (=बीजसेक तथा प्रसव); यह व्यापार आनन्द शब्द से प्रायः अभिहित होता है। यहाँ आनन्द आनन्दन क्रिया अर्थात् मैथुन -क्रिया – ऐसा कोई-कोई कहते हैं। औपस्थिक क्रिया के साथ सुख के बहुल साहचर्य के कारण यह क्रिया आनन्द शब्द से कथित हुई है – ऐसा भी कोई-कोई कहते हैं। पायु का व्यापार है – उत्सर्ग (=निःक्षेप करना) अर्थात् पूर्वगृहीत आहारादि के मलांश का शरीर से बाहर निःक्षेप करना। लोमकूप, गुदा आदि शरीरांग इसके अधिष्ठान हैं (द्र. सां. का. 26 की टीकायें)।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
कलविकरण
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर को कलविकरण कहा गया है क्योंकि वह क्षेत्रज्ञों (जीवों) को भिन्न-भिन्न कलाओं (कार्याख्या – पृथ्वी आदि तथा कारणाख्या – शब्द आदि) से संपृक्त कर लेता है। अर्थात् जीवों को भिन्न-भिन्न स्थानों से संपृक्त करके उन्हें विविध गुणों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य ऐश्वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य तथा अनैश्वर्य) से युक्त बना देता है। इस तरह से कलाओं का विविधतया करण (निर्माण) करता हुआ वह कलविकरण कहलता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 74)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
कला
परशिवनिष्ठ शक्ति का ही दूसरा रूप कला है। जब परशिव अपने में ही उपास्य-उपासक-लीला की इच्छा करता है, तब स्वयं ही ‘लिंग’ और ‘अंग’ बन जाता है। तब वह शक्ति भी अपने स्वातंत्र्य से ‘कला’ और ‘भक्ति’ का रूप धारण करती है। ‘कला’ लिंग के आश्रित रहती है और ‘भक्ति’ अंग के। इस तरह लिंग-स्थल में आश्रित शक्ति ही कला कहलाती है। (अनु.सू. 2/13, 22,23)।
यह कला ‘निवृत्ति’, ‘प्रतिष्ठा’, ‘विद्या’, ‘शांति’, ‘शांत्यतीत’ और ‘शांत्यतीतोत्तरा’ के नाम से छः प्रकार की है। यह कलाओं का आरोहण-क्रम है। जब अंग (जीव) इन कलाओं के आश्रयभूत लिंगरूपी शिव की उपासना करता है, तब शिव इन कलाओं के द्वारा उस जीव में प्रसुप्त सर्वज्ञत्व आदि शक्तियों को जाग्रत् करके अपने स्वरूप में समरस कर लेता है। इस प्रकार ये कलाएँ उपासक जीव की अमृतत्व की प्राप्ति में सहायक बनती हैं (सि.शि. 1/10, 12 तत्व प्रदीपिका टीका सहित पृ. 4; सू.सं. भाग 2 पृष्ठ 456; त.ज्ञा. पृ. 41)।
क. निवृत्ति कला –
जिस कला की सहायता से साधक का कर्मभोग निवृत्त हो जाता है, उसको निवृत्ति कला कहते हैं। निवृत्ति कला का पर्याय क्रियाशक्ति है, अर्थात् क्रियाशक्ति का ही दूसरा रूप निवृत्ति कला है (अनु. सू. 3/26; सू.सं. बाग 2 पृष्ठ 456; त.ज्ञा. 41)।
ख. प्रतिष्ठा-कला –
जिसके द्वारा अचेतन तत्वों की चेतन तत्व में प्रतिष्ठा होती है, उसको प्रतिष्ठा – कला कहते हैं। यह एक तरफ प्रपंच की स्थिति में सहायक बनती है और दूसरी तरफ साधकों में शिव के प्रति अनुराग की ऐसी भावनाओं को स्थापित करती है, जिनसे साधकों का संसार के प्रति राग निवृत्त हो जाता है। इसी कला का पर्याय ज्ञानशक्ति है (अनु.सू. 3/25; सू.सं भाग 2 पृष्ठ 456;त.ज्ञा. पृष्ठ 42)।
ग. विद्या-कला –
जिसकी सहायता से साधक माया और उसके कार्यभूत इस प्रपंच से विविक्त आत्मतत्व को जानता है, उसको विद्या-कला कहते हैं। इच्छा-शक्ति इस विद्या-कला का पर्याय है (अनु. सू. 3/25; सू. सं. भाग 2 पृ. 457; त ज्ञा. पृ. 42)
घ. शांतिकला –
जिस कला की सहायता से साधक के मल, आणव, मायीय और कर्मरूपी पाश, उपशांत हो जाते हैं, उसको शांतिकला कहते हैं। इस कला का पर्याय ‘आदि शक्ति’ है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग-2 पृष्ठ 457; त. ज्ञा. पृष्ठ 42)।
ड. शांत्यतीत-कला –
पाश-जाल के उपशम के अनंतर अद्वितीय सत्-चित्-आनंदैकरस रूप परशिव का बोध जिस कला से साधक को प्राप्त होता है, उसको शांत्यतीत कला कहते हैं। इसका पर्याय ‘पराशक्ति’ है (अनु.सू. 3/25; सू.सं. भाग 2 पृष्ठ 457; त.ज्ञा. पृष्ठ 42)।
च. शांत्यतीतोत्तरा कला –
सच्चिदानन्दैकरस-रूप परशिव का जो बोध है, उससे भी अतीत अत्यंत सूक्ष्म परमतत्व में साधक जिस कला के द्वारा समरस हो जाता है उसको शान्त्यतीतोत्तरा कला कहते हैं। इसका पर्याय है चिच्छक्ति (अनु.सू. 3/24)।
Darshana : वीरशैव दर्शन
कला
कार्य का एक प्रकार।
कला अचेतन है और चेतन कारण पर ही पूर्णत: निर्भर है। पञ्चभूत, उनमें रहने वाले गुण तथा कर्मेन्द्रियाँ कला कहलाते हैं। कला द्विविध है- कार्याख्याकला तथा कारणाख्याकला। कार्याख्याकला दस प्रकार की कही गई है – पञ्चभूत – पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा उनमें रहने वाले पाँच गुण – गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द। कारणाख्या कला में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक् और श्रोत्र; पाँच कर्मेन्द्रियाँ- हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ तथा तीन अंतःकरण मन, बुद्धि और अहंकार आते हैं। इस तरह से कारणाख्याकला तेरह प्रकार की हुई। (सर्वदर्शन संग्रह, पृ. 168)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
कला (पंचक)
तत्त्वों के सूक्ष्म रूपों को कला कहते हैं। प्रत्येक कला प्रायः कई एक तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरती है। आणव-उपाय की कला-अध्वा की धारणा में जिन पाँच कलाओं का आश्रय लेकर शिवभाव के आणव समावेश का अभ्यास किया जाता है वे इस प्रकार हैं :- निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शांता या शांति तथा शांतातीता या शांत्यातीता कला। इनमें से प्रथम चार कलाओं को क्रमशः पार्थिव, प्राकृत, मायीय और शाक्त अंड भी कहते हैं। (तन्त्र सार पृ. 109, 110)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
कला तत्त्व
परिपूर्ण ऐश्वर्यशाली परमेश्वर की क्रियाशक्ति के संकोचक तत्त्व को कला तत्त्व कहते हैं। इस संकोचक तत्त्व के प्रभाव से पशु प्रमाता में किंचित् कर्तृत्व सामर्थ्य अर्थात् कुछ ही कर सकने की सामर्थ्य रहती है, वह किसी किसी ही क्रिया को कर सकता है, सभी कुछ नहीं कर सकता है। (शि.स.वा., पृ. 43)। यह तत्त्व माया तत्त्व से विकास को प्राप्त हुए पाँच कंचुक तत्त्वों में पहला तत्त्व है। इसे ही जीव की संकुचित क्रिया सामर्थ्य कहा जाता है। (ई.प्र.वि.2, पृ. 208-9)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
कला-अध्वन्
छत्तीस तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरने वाली निवृत्ति, प्रतिष्ठा आदि पाँच कलाओं को क्रम से आलम्बन बनाकर अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त करने का योग मार्ग। तत्त्व के सूक्ष्म रूप को कला कहते हैं। एक एक कला कई एक तत्त्वों को व्याप्त करके ठहरती है। कला अध्वा नामक साधना आणवोपाय की देशाध्वा नामक धारणा में आती है। (तन्त्र सार पृ. 109, 111)। इसे पंचकला विधि या धारणा भी कहते हैं। देखिए पंचकला विधि। एक एक कला में विद्यमान वर्णों को मंत्रों को, पदों को, तत्त्वों को तथा भुवनों को साधक भावना के द्वारा अपने देह के भीतर समा लेने के अभ्यास से अपने विश्वात्मक शिवभाव के समावेश का अनुभव करता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
कलातीत
निवृत्ति, प्रतिष्ठा आदि सभी पाँचों कलाओं की कलना से भी परे ठहरने वाला परतत्त्व। परतत्त्व पूर्णतया शुद्ध, असीम एवं स्वतंत्र है। इस प्रकार के परतत्त्व के शुद्ध संवित् स्वरूप को ही कलातीत कहा जाता है। शिव तत्त्व से ऊपर सैंतीसवाँ परमशिव तत्त्व कलाओं की कलना से परे ठहरता है, उसे ही कलातीत कहा जाता है। (तन्त्र सार पृ. 110)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
कलितासनम्
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर कार्य से कलित अथवा विभूषित होने के कारण कार्य का आसन है। जैसे आकाश तारों से कलित होताहै ठीक उसी प्रकार ईश्वर तीन प्रकार के कार्य – विद्या, कला तथा पशु से विभूषित होता है क्योंकि इस तीन प्रकार की वही सृष्टि, स्थिति व संहार करता है। ‘आसन’ शब्द से यहाँ पर पद्मासन आदि से तात्पर्य नहीं है अपितु आसन शब्द यहाँ पर ईश्वर की शक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है। ईश्वर कार्य में स्थित है- (आस्ते ട अस्मिन् आसनम् कार्यमनेव वा अध्यास्त इत्यासन मित्यर्थ :- पा. सू. कौ. भा. पृ. 58)। अव्यय या अमृतस्वरूप ईश्वर अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य में स्थित रहता है और वह कार्य उसकी अपनी ही शक्ति में सदा ठहरा रहता है। अतः कार्य सदा कारण में स्थित रहता है। पर सत्तारूप पशुपति व्यापक है, कार्य व्याप्य है। वह अपनी स्वतंत्र इच्छा से समस्त कार्य की बहीः सृष्टि करता है। अतः कलितासनम् कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 58,59,60)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
कादि-हादि-कहादि मत
शक्तिसंगम तन्त्र (1/1/9-10, 2/58/78-79) में बताया गया है कि तन्त्रराज तन्त्र में आठ खण्ड हैं। चार खण्ड पूर्वार्ध में और चार खण्ड उत्तरार्ध में हैं। पूर्वार्ध में कादिमत का और उत्तरार्ध में हादि मत का प्रतिपादन किया गया है। काली के मन्त्र का प्रथम अक्षर ककार है और सुन्दरी के मन्त्र का पहला वर्ण हकार है। अतः काली का सम्प्रदाय कादिमत के नाम से और सुन्दरी का सम्प्रदाय हादिमत के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। ककार ब्रह्मरूप है और हकार शिव स्वरूप। यहीं अन्यत्र (1/2/98-99) बताया गया है कि उक्त उभय मतों का प्रतिपादक होने से ही तन्त्रराज तन्त्र को विराण्मत के नाम से भी जाना जाता है। उक्त दो मतों के अतिरिक्त इस तन्त्र (2/6/35) में कहादि मत का उल्लेख कर उसकी व्याख्या की गई है कि इस मत में तारिणी (तारा) विद्या की आराधना की जाती है। वहीं इसको उत्तराम्नाय विद्या भी कहा गया है। इस विषय की विशेष जानकारी उक्त ग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड के उपोद्धात (पृ. 28-30) से प्राप्त की जा सकती है।
Darshana : शाक्त दर्शन
कापालिक
पाशुपत संन्यासियों का एक संप्रदाय।
कापालिक पाशुपत मत का ही अवान्तर भेद है। कापाली संन्यासी शिव के कपाली रूप को ही अधिकतर पूजते हैं। इसी कारण कापालिक कहलाते हैं। लिंग पुराण के नौवें अध्याय तथा कर्मपुराण के सोलहवें अध्याय में कापालिक मत को वेदबाह्य कहा गया है। कुछ अभिलेखों में कापालिकों को सोमसिद्धांती तथा शिवशासन, इन नामों से अभिहित किया गया है।
मैत्रायणीय उपनिषद में सोमसिद्धान्तियों का उल्लेख आया है। बृहत् संहिता के 86 वें अध्याय के बाइसवें श्लोक में कापालिकों का ऐसा उल्लेख हुआ है कि वे मानव हड्डियों की मालाएँ पहनते हैं, मानवखोपड़ी में भोजन खाते हैं और ब्राह्मण की खोपड़ी की हड्डी में सुरापान करते हैं तथा अग्नि में मानवमांस की बलि देते हैं। यह कापालिक मत प्राय: समस्त भारत में फैल गया था। भवभूति (आठवीं शती) के नाटक मालतीमाधव में कापालिकों का लंबा चौड़ा वृतांत आया है। जैन राजा महेंद्रवर्मन (छटी शती) के मत्तविलासप्रहसन में कापालिकों के आचार विचार का स्पष्ट वर्णन है। दण्डी के दशकुमार चरित में भी कापलिक संन्यासी का वर्णन है। कथासरित्सागर में कापालिकों संबंधी कई एक आख्यान आए हैं। यमुनाचार्य के आगमप्राभाष्य में भी इनका संक्षिप्त वर्णन आया है। कापालिकों के मत में निम्नलिखित छः मुद्राओं को धारण करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। वे छः मुद्राएँ हैं – कर्णिका, रुचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत। इनके अतिरिक्त कुछ गुप्त क्रियाओं का भी विधान किया जाता था।
इस तरह से पाशुपतों में से ही कोई अत्युग्र साधना में लगे हुए साधु साधक कापालिक कहलाते थे। इन्हें अतिमार्गी भी कहा गया है, क्योंकि इनकी साधना सभी शास्त्रीय मार्गों का अतिक्रमण करती है। इन्हें महाव्रती भी कहा जाता था, क्योंकि ये अतीव उग्र व्रतों का पालन करते रहे। वर्तमान आनन्दमार्गी साधुओं ने भी कापालिक मत के कई एक उग्र अंशों को ग्रहण किया है। महाभारत आदि प्राचीन ग्रंथों में भी कापालिकों का वर्णन आता है। अग्रतर कापालिकों को कालामुख नाम दिया गया है।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
कामकला
अकार रूप प्रकाश के साथ हकाररूप विमर्श का, अर्थात् अग्नि के साथ सोम का साम्य भाव ही काम अथवा रवि के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में जिस अग्नीषोमात्मक बिन्दु का उल्लेख पाया जाता है, वह भी यही है। शिव ही अकार और शक्ति ही हकार है। बिन्दु रूप में यही अहम् अथवा अहन्ता है। साम्य के भंग होने पर यह बिन्दु प्रस्पन्दित होकर शुक्ल और रक्त बिन्दु के रूप में आविर्भूत होता है। इसमें प्रकाश शुक्ल बिन्दु और विमर्श रक्त बिन्दु है। दोनों ही परस्पर अनुप्रवेशात्मक साम्यावस्था मिश्र बिन्दु है। शुक्ल बिन्दु अग्नि का, रक्त बिन्दु सोम का और मिश्र बिन्दु रवि या काम का प्रतिनिधित्व करता है। अग्नीषोमात्मक बिन्दु भी रवि या काम के ही कलाविशेष हैं। अतः कामकला के नाम से उक्त तीनों बिन्दुओं का बोध होता है। इन तीन बिन्दुओं की समष्टि ही भगवती त्रिपुरा का अपना स्वरूप है। इसका ऊर्ध्व बिन्दु (रवि) देवी के मुख के रूप में अग्नि और सोम बिन्दु स्तनद्वय के रूप में तथा हकार की अर्धकला योनि के रूप में ध्येय है। कामकला का यही स्वरूप है। नित्याषोडशिकार्णव (1/185-186), कामकला-विलास (1-6 श्लो.) प्रभृति ग्रन्थों में इसका वर्णन मिलता है। ‘हर’ इस पद का आधा भाग ‘र’ अक्षर है। इसी को अक्षरोवासना के क्रम में हराध कहा गया है। इसका आकार प्राचीनतर लिपि में जैसा है उसी के ऊपर यदि दो बिन्दुओं को और उन दो के ऊपर एक और बिन्दु को लगा दिया जाए तो निष्कला कामकला का अक्षरमय रूप बन जाता है। इसी अक्षररूपिणी कामकला का वर्णन ‘मुखं बिन्दुं कृत्वा’ इत्यादि श्लोक के द्वारा सौन्दर्यलहरी में किया गया है। परन्तु इस रहस्य को और प्राचीन लिपियों को न जानने के कारण चिद्विलास टीका आदि ग्रन्थों में बड़े-बड़े विद्वानों ने भी पाठकों के सामने भ्रान्त धारणाओं को उपस्थित किया है। मातृका-उपासना कश्मीर में बहुत प्रचलित थी। शारदा लिपि में अब भी कामकला भगवती के निष्फल रूप को बिन्दुत्रय युक्त हरार्ध में स्पष्ट देखा जा सकता है। वही सौन्दर्यलहरी में वर्णित मन्मथकला का लिपिमय आकार है। आगे ‘हार्धकला’ शब्द की व्याख्या को भी देखिए।
Darshana : शाक्त दर्शन
कामकार
विधिवचन से प्रयुक्त न होकर केवल परानुग्रह की दृष्टि से इच्छा मात्र से करना कामकार है। इसके अनुसार “कामेन इच्छामात्रेण कारः करणम्’ ऐसी कामकार शब्द की व्युत्पत्ति है अथवा ‘कामेन काऐ यस्य स कामकारः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार परानुग्रह के लिए इच्छा मात्र से किया गया कर्म कामकार है। जो ब्रह्मविद् है, उसमें ऐसे कर्म से गुण या दोष का संश्लेष नहीं होता है (अ.भा.वृ. 1282)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
कामराज विद्या
कामराज संतान और लोपामुद्रा सन्तान के नाम से त्रिपुरा सम्प्रदाय के दो मुख्य विभाग हैं। कामराज सन्तान के प्रवर्तक क्लीमानन्द, अर्थात् रति के पति कामदेव हैं। इन्होंने ही सर्वप्रथम लोक में कादि विद्या को प्रवृत्त किया। इसीलिये इस विद्या का नाम कामराज विद्या पड़ा। कादि विद्या का अभिप्राय त्रिपुरा भगवती के उस मन्त्र से है, जिसका आरंभ ककार से होता है। दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ क्रम से यह विद्या आज भी लोक में प्रवृत्त है। प्रपंचसार, सौन्दर्यलहरी नित्याषौडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या का उद्धार और उपासना विधि विस्तार से वर्णित है। ज्ञानार्णव, श्रीविद्यार्णव प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या के अनेक भेदों और उपभेदों का वर्णन मिलता है। भास्कर राय इस विद्या की परम्परा के उज्जवल रत्न हैं। नित्याषोडशिकार्णव की टीका सेतुबन्ध, ललितासहस्त्रनामभाष्य, वरिवस्यारहस्य प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या के गरिमामय दर्शन का उन्होंने बड़ी ही ओजपूर्ण भाषा में प्रतिपादन किया है।
Darshana : शाक्त दर्शन
कामरुपित्व
इच्छानुसार भिन्न-भिन्न रूपों को धारण करने की शक्ति।
कामरुपित्व उद्बुद्ध क्रियाशक्ति का दूसरा प्रकार होता है। सिद्ध साधक का अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को धारण कर पाना उसका कामरुपित्व होता है। ‘काम’ यहाँ पर इच्छा अर्थ में प्रयुक्त हुआ है तथा ‘रुपित्व’ भिन्न-भिन्न रूपों के अर्थ में। सिद्ध साधक का अधिकार सृष्टिकृत्य पर हो जाता है। जैसे गणकारिकाव्याख्या में कहा गया है कि कर्मादि से निरपेक्ष होकर स्वेच्छा से अनन्त रूपों को धारण करना ही कामरुपित्व होता है। (ग. का. टी. पृ. 10)।
Darshana : पाशुपत शैव दर्शन
कामेश्वर-कामेश्वरी
शिव और शक्ति ही त्रिपुरा सिद्धांत में कामेश्वर और कामेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः परम शिव ही प्रकाश और विमर्श के रूप में विभक्त होकर कामेश्वर और कामेश्वरी का रूप धारण करते हैं। श्रृंगाट के मध्य स्थित महाबिन्दु में, जो कि ओड्याण पीठ का प्रतीक है, इनकी उपासना की जाती है। त्रिपुरा विद्या का प्रथम उपदेश भगवान् कामेश्वर भगवती कामेश्वरी को ही करते हैं। ये ही कृतयुग में चर्यानाथ और त्रिपुरसुन्दरी के रूप में अवतीर्ण होते हैं। त्रेता, द्वापर और कलियुग में भी ये विभिन्न नामों से मिथुन भाग में अवतीर्ण होते हैं। इन्का विवरण नित्याषोडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में मिलता है। त्रिकोण के बाहर पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण दिशाओं मे बाण, धनुष, पाश और अंकुश नामक आयुधों की पूजा का विधान है। (नि.षो. 1/179-180)। योगिनी-हृदय (1/54) में आश्रय और आश्रयी (कामेश्वर और कामेश्वरी) के भेद से इनकी संख्या आठ बताई गई है। इसका तात्पर्य यह है कि साधक स्त्री को साध्य मान कर यदि प्रयोग करना चाहे तो उक्त चार आयुधों से संवलित कामेश्वरी का द्यान करे। त्रिपुरा सम्प्रदाय में कामेश्वरी पद का प्रयोग षोडश नित्याओं में से द्वितीय नित्या, वशिनी प्रभृति आठ आवरण देवताओं में द्वितीय देवता तथा कामरूप पीठ की अधिष्ठात्री के लिये भी होता है। किन्तु इनमें से किसी का भी संबंध कामेश्वर के साथ नहीं है, अर्थात् सदाशिवाय बैन्दव चक्र में बैन्दवासन पर तो कोमश्वरांक निलया कामेश्वरी की ही उपासना होती है, जो कि कामेश्वर के साथ वहाँ नित्या समरसभाव में अवस्थित रहती हैं।
Darshana : शाक्त दर्शन
कायक
सत्य और पवित्र भाव से जीविकोपार्जन करना अनिवार्य है। इस प्रकार की जीविका के लिए किये गये उद्योग को ‘कायक’ कहते हैं। इस उद्योग को करने का प्रधान उद्देश्य व्यक्तिगत उपभोग और भोगविलास न होकर गुरु, लिंग, जंगम आदि अतिथियों का सत्कार करना है। इस अतिथि-सत्कार को ‘दासोടहं’ भाव से करना चाहिए, अर्थात् ‘मैं सब सत्पुरुषों का तथा शिव का दास हूँ’, इस पवित्र भाव को मन में रखकर करना चाहिए। इस तरह की अतिथि-सेवा से अवशिष्ट अन्न को प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। अतिथि-सत्कार रूप इस महान् उद्देश्य को सामने रखकर किया जाने वाला शरीरिक या बौद्धिक परिश्रम ‘कायक’ कहलाता है और इसे ‘कर्मयोग’ भी कहते हैं।
प्रतिदिन संपादिंत द्रव्य उसी दिन इस महान् उद्देश्य के लिए लगाना चाहिए और इसके लिए दूसरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। इस तरह कायक-तत्व में ‘असंग्रह’ और ‘अपरिग्रह’ ये दो महत्वपूर्ण अंश हैं। इसमें अतिथि-सत्कार और स्वावलंबन का समन्वय है।
12 वीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने ‘कायक’ तत्व पर ज्यादा जोर दिया। कायक को उपासना का एक अंग माना, क्योंकि अहंकार-रहित भाव से किये गये सब कार्य-कलाप भगवान की तरफ से जाने में सहायक होते हैं। ‘कायक’ का यह संदेश है कि उद्योग के बिना जीने, रहने तथा पूजा करने का अधिकार नहीं है। कायक के बिना पूजाविधि पूरी नहीं होती, अतः यह पूजा का ही एक अंग है। समाज और व्यक्ति इन दोनों के उद्धार की कल्पना इस कायक-तत्व में निगूढ है। (व.वी.धर्म पृष्ठ 150, 158, 185; शू.सं.प. पृष्ठ 674-711)।)
Darshana : वीरशैव दर्शन
कायव्यूहज्ञान
यह एक विभूति है। योगसूत्र (3/29) में कहा गया है कि नाभिचक्र में संयम करने पर यह ज्ञान उदित होता है। काय=शरीर; व्यूह=अवयवों या उपादानों का संनिवेश जो शरीर के रूप में निष्पन्न होता है। व्याख्याकारों ने इस प्रसंग में शरीर के तीन दोषों (वात -पित्त -कफ) रक्त आदि सात धातुओं (शरीर के उपादान) का उल्लेख किया है।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
कायसपंद्