Definitional Dictionary of Indian Philosophy (Hindi) (CSTT)
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अहंकार
सांख्य में यह एक तत्त्व है जो महत्तत्त्व से उद्भूत होता है। इसका लक्षण या धर्म अभिमान (अहन्ता-ममता-रूप) है। युक्तिदीपिका में अभिमान को ‘स्वात्मप्रत्यविमर्श’ कहा गया है (सांख्यका. 24)। आचार्यों ने इसे रजःप्रधान माना है (बुद्धि या महत्तत्त्व सत्त्वप्रधान है)। यह अस्मिता अथवा अस्मितामात्र शब्द से भी अभिहित होता है। यह सात ‘प्रकृति-विकृतियों’ में से एक है (सांख्यका. 3) – इन्द्रियों का उपादान होने के कारण ‘प्रकृति’ और बुद्धि से उद्भूत होने के कारण ‘विकृति’ – ऐसा समझना चाहिए। योगसूत्र में यह अविशेषों में गिना गया है; भाष्यकार ने इसको षष्ठ अविशेष कहा है (2/19)। अहंकार के वैकारिकनामक सात्त्विक भाग से दश इन्द्रियाँ तथा मन और इसके तामस भाग भूतादि से पाँच तन्मात्र उद्भूत होते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अहंकार
संकुचित अहम्। बुद्धि तत्त्व से प्रकट होने वाला दूसरा अंतःकरण। शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण ‘अहं’ का ही अतीव संकुचित रूप। ‘अहंकार’ में ‘कार’ को कृत्रिमता का वाचक मानकर अहंकार को कृत्रिम ‘अहं’ भी कहा जाता है। बुद्धि तत्त्व में प्रतिबिम्बित सभी प्रमेय पदार्थो के प्रति बुद्धि तत्त्व में ही प्रतिबिम्बित पुरुष का निश्चित रूप से संकुचित प्रमातृभाव का अभिमनन करना उसका अहंकार कहलाता है। वह इसी के द्वारा यह समझने लगता है कि ‘मैं यह देह आदि हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं चलता हूँ’ इत्यादि। संरंभ रूप अर्थात् क्रिया रूप होने के कारण अहंकार को प्राण, अपान आदि पाँचों प्राणों को प्रेरित करने वाला भी माना गया है। (तन्त्र सार , पृ. 89-8 ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, 2, पृ. 212)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहमंश विश्रांति
अपनी शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संवित् रूपता पर स्थिति। चैतन्यात्मक शुद्ध प्रकाश रूप अहं पर स्थिति। परिपूर्ण अहमंश में किसी भी प्रकार का द्वैताद्वैत या द्वैत भाव नहीं रहता है। यहाँ सभी प्रमेय पदार्थ शुद्ध प्रकाश रूप में ही चमकते हैं। इदंता का वहाँ आभास तक नहीं होता है। इस प्रकार संपूर्ण सृष्टि को अपनी ही शुद्ध प्रकाशरूपता का विकास समझते हुए उसी परिपूर्ण प्रकाशरूपता पर स्थिति ही अहमंश विश्रांति है। (भास्करी 1, पृ. 176-177)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहमितिपूर्वापरानुसंधान
किसी वस्तु विशेष, भाव या अवश्ता के स्मृति काल के प्रथम क्षण में ही होने वाला वह अतिसूक्ष्म संवेदन या परामर्श जिसमें यह विमर्श होता है कि अमुक वस्तु, भाव या अवस्था के प्रत्यक्ष ज्ञान के समय जो ‘अहम्’ अर्थात् ‘मैं’ था वही ‘अहम्’ उनके स्मृति काल की अवस्था में भी है। इस विमर्श के बिना किसी वस्तु आदि का स्मरण नहीं हो सकता है। यह विमर्श ही अनुभव और स्मृति को परस्पर जोड़ता है। (भास्करी 1, पृ. 136-137)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहमिदम्
सदाशिव तत्त्व के मंत्रमहेश्वर (देखिए) नामक प्राणियों का अपने शुद्ध अहं के प्रति तथा सृष्ट होने वाले समस्त प्रपंच के प्रति भेदाभेदात्मक दृष्टिकोण। अहमिदम अर्थात् ‘मैं यह प्रमेय तत्त्व हूँ’, मुझ में ही प्रमेयता का आभास स्थित है। इस विमर्श में प्रकाश रूपता की ही प्रधानता रहती है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण में शुद्ध अहं में इदंता अर्थात् प्रम़ेयता का बहुत ही धीमा सा आभास होता है। इसी दृष्टिकोण को उत्कृष्टतर शुद्ध विद्या कहते हैं। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी, 2, पृ. 197-197)। देखिए इदम् अहम्।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहम्
प्रकाश की अपनी ही शुद्ध प्रकाशरूपता में विश्रांति अर्थात् अपनी शुद्ध संविद्रूपता का परामर्श। (अ. प्र. सि., 22)। जब अकारात्मक अनुत्तरतत्त्व ही हकारात्मक अपनी परा विसर्ग शक्तिरूपता में आभासित होता हुआ अपनी ही पर संविद्रूपता में बिंदु (देखिए) रूप से अविभागतया विश्रांति को प्राप्त करता है तो उसे अहं कहते हैं। (तन्त्रालोक 3-201, 202, वही पृ. 194)। अनुत्तरशिव तथा विसर्गात्मक शक्ति का सामरस्य रूप। अ से लेकर ह पर्यांत समस्त परामर्शो का एकरस स्वरूप। (वही, 3-203, 204)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहम्परामर्श / अहम्प्रत्यवमर्श
शुद्ध प्रकाश रूप ‘अहम्’ का अंतःविमर्शन। यह विमर्श पूर्ण स्वातंत्र्ययुक्त होता है। परमशिव में इस परिपूर्ण प्रकाश के विमर्श की अवस्था में किसी भी प्रकार की सृष्टि के प्रति किसी भी प्रकार की उन्मुखता या उमंग अभी उभरी नहीं होती है। इस प्रकार केवल अपने शुद्ध संविद्रूपता के आनंदमय सतत अंतःविमर्श को ही अहम्परामर्श या अहम्प्रत्यवमर्श कहते हैं। (ई, प्र. वि. 1-6-1)। प्रति से अभिप्राय प्रतीय या उल्टे से है। यह विमर्श बाह्य प्रमेय के प्रति न होता हुआ उल्टा अपने आपका ही विमर्शन करता है। यही इसकी प्रतीपता है।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहम्महोरूप
अपने असीम, परिपूर्ण एवं शुद्ध संवित् रूप ‘अहम्’ का एकघन सामरस्यात्मक स्वरूप। छत्तीस तत्त्वों एवं उनमें स्थित सभी सूक्ष्म एवं स्थूल भावों तथा भुवनों का शुद्ध प्रकाश रूप जिसमें सभी कुछ निर्विभागतया शुद्ध प्रकाश के ही रूप में विद्यमान रहता है। सच्चिदानंदकंद एवं सर्वथा स्वतंत्र, परिपूर्ण और शुद्ध अहंता का स्वविलास रूपी विमर्शात्मक प्रकाश। (आ.वि., 3-1)।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहम्महोविलास
परमशिव की पारमेश्वरी लीला। अपने शुद्ध एवं परिपूर्ण चैतन्यात्मक अहम् का सतत विमर्शात्मक स्वरूप। संपूर्ण अंतः सृष्टि जब परमेश्वर के अपने ही आनंद से अपने में ही अपने ही आनंद के लिए बाह्य रूप धारण करने को उद्यत होती है, धारण कर रही होती है या धारण कर चुकी होती है तो इन सभी अवस्थाओं को उसका अहम्महोविलास कहा जाता है। (आत्मविलास, 3-1-, 3 )।
Darshana : काश्मीर शैव दर्शन
अहल्लिक
मिथ्या शरीर अहल्लिक कहा जाता है। “अहनि लीयते” इस व्युत्पत्ति के अनुसार दिन में-प्रकाश में-ज्ञान में जिसका लय हो जाए, वह अहल्लिक है। यह शब्द शाकल्य ब्राह्मण में आया है। “कस्मिन्नु हृदयं प्रतिष्ठितं भवतीति शाकल्यप्रश्ने याज्ञवल्क्यो अहल्लिक इति होवाच”। (द्रष्टव्य. अ. भा. प्रकाश की रश्मि व्याख्या) (अ.भा.पृ. 578)।
Darshana : वल्लभ वेदांत दर्शन
अहिंसा
पंचविध यमों में अहिंसा एक है। अहिंसा का अर्थ है अनाभिद्रोह (=प्राणियों को पीड़ा न देना)। वस्तुतः प्राणियों को पीड़ा देकर सुखी होने की इच्छा का त्याग करना अहिंसा का मानस रूप है, जो प्रकृत अहिंसा है। अस्त्रादि साधनों से पीड़ा न देना अहिंसा का वाह्य रूप है। हिंसा के मूल में द्वेष है, अतः अहिंसा के साथ मैत्री -भावना का अविच्छेद्य संबंध है। यह मैत्री सत्त्वगुणप्रधान है। योगियों की अहिंसा सर्वप्रकार के प्राणियों के प्रति, सदैव, सर्वप्रकार से होती है। शरीर धारण जब तक रहेगा तब तक प्राणी को पीड़ा देना किसी न किसी रूप में अवश्यंभावी है। इस अवश्यंभावी हिंसा से होने वाले पाप का क्षालन प्राणायामादि से हो जाता है। जाति आदि से सीमित न होने पर अहिंसा ‘महाव्रत’-संज्ञक होती है। योगशास्त्र की मान्यता है कि अहिंसा -प्रतिष्ठ योगी के निकट शत्रुभावापन्न प्राणी भी कुछ समय के लिए वैरभाव का त्याग कर देते हैं। पूर्वाचार्यों ने कहा है कि (1) अन्यान्य सभी यमनियमों का आचरण अहिंसा को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए तथा (2) सभी यमनियम वस्तुतः अहिंसा को ही विकसित करते हैं।
Darshana : सांख्य-योग दर्शन
अहिंसा
पाशुपत योग के अनुसार यमों का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म में हिंसा का पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। हिंसा तीन प्रकार की कही गई है – दुःखोत्पादन, अण्डभेद (अण्डे फोड़ देना) तथा प्राणनिर्मोचन। दुःखोत्पत्ति क्रोधपूर्ण शब्दों से, डांटने से, मारने पीटने से तथा भर्त्सना से होती है। अतः पाशुपत साधक के लिए चारों प्रकार के जीवों (जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज) के प्रति दुःखोत्पादन रूपी हिंसा का पूर्ण निषेध किया गया है। अण्डभेद नामक हिंसा का भी पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। पशुपत साधक के लिए अण्डों को ताप, अग्नि तथा धूम के पास लाने का तथा उन्हें जरा भी हिलाने डुलाने का पूर्ण निषेध किया गया है अर्थात् अण्डों को किसी भी कारणवश बिगाड़ना या फोड़ना निषिद्ध है। प्राणनिर्मोचन नामक हिंसा का भी निषेध किया गया है। पाशुपत साधक को खाने पीने के बर्तन, पहनने के कपड़े उचित ढंग से देखने होते हैं ताकि किसी भी सूक्ष्म जीव की प्राणहानि न हो, क्योंकि सूक्ष्म जीव बहुत तीव्रता से मर जाते हैं। अतः अपने प्रयोग की हर वस्तु का ध्यान से परीक्षण करना होता है। यदि सिद्ध साधक के द्वारा ज़रा सी भी हिंसा हो तो उसका उच्च पद से पात होता है; अर्थात् वह फिर से बंधन में पड़ जाता है। अतः पाशुपत साधक को जल छानकर पीना होता है तथा इस प्रकार से हर तरह की हिंसा से सावधान रहना होता है। पाशुपत दर्शन के अनुसार जो साधक अहिंसा का पालन करता है उसको अमरत्व प्राप्ति होती है। इस प्रकार से अहिंसा की बहुत महत्ता बताई गई है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 16-19)।