विश्व के मूल में रहनेवाली सत्ता की खोज दर्शन का प्रमुख विषय है। यह सत्ता है अथवा नहीं अर्थात् यह सत् है या असत् भावात्मक है या अभावात्मक, एक है अथवा दो या अनेक ? ये सब प्रश्न दर्शन में उठाये गये हैं। इन समस्याओं के अन्वेषण तथा उत्तर के अनेक मार्ग और मत हैं, जिनसे अनेक दार्शनिक वादों का उदय हुआ है। जो सम्प्रदाय मूल सत्ता को एक मानते हैं उनको एकत्ववादी कहते हैं। जो मूल सत्ता को अनेक मानते हैं वे अनेकत्ववादी, बहुत्ववादी, वैपुल्यवादी आदि नामों से अभिहित हैं। दर्शन का इनसे भिन्न एक सम्प्रदाय है जिसको 'अद्वैतवाद' कहा जाता है। इसके अनुसार 'सत्' न एक है और न अनेक। वह अगम, अगोचर, निर्गुण, अचिन्त्य तथा अनिर्वचनीय है। इसका नाम अद्वैतवाद इसलिए है कि यह एकत्ववाद और द्वैतवाद दोनों का प्रत्याख्यान करता है । इसका सिद्धान्त है कि सत् का निर्वचन संख्या- एक, दो, अनेक- से नहीं हो सकता। इसलिए उपनिषदों में उसे 'नेति नेति' ('ऐसा नहीं', 'ऐसा नहीं') कहा गया है।
वह अद्वैत सत्ता क्या है ? इसके भी विभिन्न उत्तर हैं। माध्यमिक बौद्ध इसे 'शून्य'; विज्ञानवादी बौद्ध, 'विज्ञान'; शब्दाद्वैतवादी वैयाकरण 'स्फोट' अथवा 'शब्द'; शैव 'शैव'; शाक्त 'शक्ति' और अद्वैतवादी वेदान्ती' 'अद्वैत' (आत्मतत्त्व) कहते हैं। इन सभी सम्प्रदायों में सबसे प्रसिद्ध आचार्य शङ्कर का आत्माद्वैत अथवा ब्रह्माद्वैत वाद है। इसके अनुसार 'ब्रह्म' अथवा 'आत्मा' एकमात्र सत्ता है। इसके अतिरिक्त कुछ नहीं (सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।) अविद्या के कारण दृश्य जगत् ब्रह्म में आरोपित है। माया द्वारा वह ब्रह्म से विवर्तित होता है, उसी में स्थित रहता है और पुनः उसी में लीन हो जाता है। शाङ्कर अद्वैतवाद रामानुज के विशिष्टाद्वैत और वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत से भिन्न है।
अद्वैतवाद का उद्गम वेदों में ही प्राप्त होता है। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में सत् और असत् से विलक्षण सत्ता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। उपनिषदों में तो विस्तार से अद्वैतवाद का निरूपण किया गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में केवल आत्मा और ब्रह्म को ही वास्तविक माना गया है और जगत् के समस्त प्रपञ्च को वाचारम्भण (निरर्थक शब्द मात्र) विकार का गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में नानात्व का खण्डन करके (नेति नेति) केवल एकमात्र आत्मा को ही सत्य सिद्ध किया गया है। माण्डूक्य उपनिषद् में भी आत्म-ब्रह्मद्वैत प्रतिपादित किया गया है। उपनिषदों के पश्चात् बादरायण के 'ब्रह्मसूत्र में प्रथम वार अद्वैतवाद का क्रमबद्ध एवं शास्त्रीय प्रतिपादन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् कृष्ण ने आत्मानुभूति के आधार पर अद्वैत का सारगर्भित विवेचन किया है। उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता ये ही तीन अद्वैतवाद के प्रस्थान हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य शङ्कर के दादागुरु गौडपादाचार्य ने अपने माण्डूक्योपनिषद् के भाष्य में अद्वैतमत का समर्थन किया है। स्वयं शङ्कराचार्य ने तीनों प्रस्थानों-उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्य लिखा। ब्रह्मसूत्र पर शङ्कर का 'शारीरक भाष्य' अद्वैतवाद का सर्वप्रसिद्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है। अद्वैत वाद का जो निखरा हुआ रूप है, वास्तव में उसके प्रवर्तक शङ्कराचार्य ही हैं। दे. 'शङ्कराचार्य'।
अद्वैतविद्यामुकुर
रङ्गराजाध्वरी लिखित 'अद्वैतविद्यामुकुर' न्याय-वैशेषिक एवं सांख्यादि मतों का खण्डन करके अद्वैतमत की स्थापना करता है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शती है।
अद्वैतविद्याविजय
दोद्दयाचार्य द्वारा, जिनका पूरा नाम दोद्दयमहाचार्य रामानुजदास है, यह ग्रन्थ सोलहवीं शताब्दी में रचा गया था।
अद्वैतविद्याविलास
सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित एक ग्रन्थ।
अद्वैतसिद्धि
मधुसूदन सरस्वती-विरचित सत्रहवीं शताब्दी का एक अत्यन्त उच्च कोटि का दार्शनिक ग्रन्थ। इसमें दस परिच्छेद हैं। ब्रह्मानन्द सरस्वती ने इसके ऊपर 'लघु चन्द्रिका' नाम की व्याख्या लिखी है। डॉ. गङ्गानाथ झा द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। यह ग्रन्थ अद्वैत सम्प्रदाय का अमूल्य रत्न है।
अद्वैताचार्य
श्री चैतन्य देव के सहयोगी एक वैष्णव विद्वान्। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता किन्तु आदर के साथ इनका कतिपय रचनाओं में उल्लेख हुआ है। इससे लगता है कि ये अद्वैत तत्त्व के प्रमुख प्रवक्ता थे।
अद्वैतानन्द
ब्रह्माविद्याभरण'-कार स्वामी अद्वैतानन्द का उल्लेख सदाशिव ब्रह्मेन्द्र रचित 'गुरुरत्ममालिका' नामक ग्रन्थ में हुआ है। स्वामी अद्वैतानन्द काञ्चीपीठ के शंकराचार्यपदासीन अधीश्वर थे।
अधर्म
धर्म का अभाव' अथवा धर्मविरोधी तत्त्व। भागवत पुराण के अनुसार यह ब्रह्मा के पृष्ठ से उत्पन्न हुआ है। वेद और पुराण के विरुद्ध आचार को अधर्म कहते हैं। इससे कुछ समय तक उन्नति होती हैं, परन्तु अन्त में अधर्मी नष्ट हो जाता है :
[हे राजन् ! मनुष्य अधर्म से बढ़ता है तब सम्पत्ति को पाता है। पश्चात् शत्रुओं को जीतता है। अन्त में समूल नष्ट हो जाता है।]
अधार्मिक
अधर्मी, अधर्मात्मा अथवा पापी :
यस्तु पञ्चमहायज्ञविहीनः स निराकृतः। अधार्मिकः स्याद् वृषलः अवकीर्णी क्षतव्रती।।
[जो पञ्च महायज्ञ नहीं करता वह पतित हो जाता है; अधार्मिक, वृषल, निन्दित और व्रत से क्षीण हो जाता है।] स्मृतियों के अनुसार अधार्मिक ग्राम में नहीं रहना चाहिए।
अधिमास
दो रविसंक्रान्तियों के मध्य में होने वाला चन्द्रमास। रविसंक्रान्ति से शून्य, शुक्ल प्रतिपदा से लेकर महीने की पूर्णिमा तक इसकी अवधि है। इसके पर्याय हैं अधिकमास, असंक्रान्तिमास, मलमास, मलिम्लुच और विनामक (मलमासतत्त्व)। इसको पुरुषोत्तममास भी कहा जाता है। इसमें कथा, वार्ता, धार्मिक क्रियाएँ की जाती हैं।