एक शैव सांप्रदायिक उपनिषद् जिसमें त्रिपुण्ड्र धारण और रहस्यमय ढंग से ध्यान करने का विवरण प्राप्त होता है।
कालाष्टमीव्रत
मृगशिरा नक्षत्र युक्त भाद्रपद की अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त यह क्रम चलना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन शिव जी विना नन्दीगण अथवा गणेश के अपने मन्दिर में विराजते हैं। व्रती विभिन्न वस्तुओं से शिवजी को स्नान कराता है, भिन्न-भिन्न पुष्प समर्पित करता है तथा प्रत्येक महीने में पृथक्-पृथक् नामों से पूजन करता है।
कालिका
काले (कृष्ण) वर्णवाली। यह चण्डिका का ही एक रूप है। इसके नामकरण तथा स्वरूप का वर्णन कालिकापुराण (उत्तरतन्त्र, अ० 60) में निम्नांकित प्रकार से पाया जाता है :
[इन्द्र के साथ सभी देवतागण हिमालय में गङ्गावतरण के पास महामाया को प्रसन्न करने लगे। उनके द्वारा स्तुति किये जाने पर देवी ने मातङ्गवनिता की मूर्ति धारण करके देवताओं से पूछा, "तुम अमरों द्वारा किस भाविनी की स्तुति की जा रही है? किस प्रयोजन के लिए तुम लोग मातङ्ग-आश्रम में आये हो?" ऐसा बोलती हुई उस मातङ्गी के शरीर से एक देवी उत्पन्न हुई। उसने कहा, "देवगण मेरी स्तुति कर रहे हैं। शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुर सभी देवताओं को पीड़ित कर रहे हैं। इसलिए उनके वध के लिए समस्त देवताओं द्वारा मेरी स्तुति हो रही है।" मातङ्गी की काया से उसके निकल जाने पर वह घोर काजल सदृश कृष्णा (काली) हो गयी। वही कालिका कहलायी, जो हिमालय के आश्रय में रहने लगी। उसी को ऋषि लोग उग्रतारा कहते हैं। क्योंकि वह उग्र भय से भक्तों का सदा त्राण करती हैं।]
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कालिका उपपुराण
उन्तीस उपपुराणों में से एक। इसमें देवी दुर्गा की महिमा तथा शाक्तमत का प्रतिपादन किया गया है।
कालिकापुराण
कालिकापुराण को ही 'कालिकातन्त्र' भी कहते हैं। यह बंगाल में प्रचलित शाक्तमत का नियामक ग्रन्थ है। इसमें चण्डिका को पशु अथवा मनुष्य की बलि देने का निर्देश भी है। बलिपशुओं की तालिका बहुत बड़ी है। वे हैं--पक्षी, कच्छप, घड़ियाल, मत्स्य, वन्य पशुओं के नौ प्रकार, भैंसा, बकरा, जंगली सूअर, गैंडा, काला हिरन, बारहसिंगा, सिंह एवं व्याघ्र इत्यादि। भक्त अथवा साधक अपने शरीर के रक्त की भी अर्पण कर सकता है। रक्तबलि का प्रचार क्रमशः कम होने से यह पुराण भी आजकल बहुत लोकप्रिय नहीं है।
कालिंजर (कालञ्जर)
बुन्देलखण्ड में स्थित एक प्रसिद्ध शैव तीर्थ। मानिकपुर-झाँसी रेलवे लाइन पर करबी से बीस मील आगे बटौसा स्टेशन है। यहाँ से अठारह मील दूर पहाड़ी पर कालिंजर का दुर्ग है। यहाँ नीलकंठ का मंदिर है। यह पुराना शाक्तपीठ है। महाभारत के वनपर्व्, वायुपुराण (अ० 77) और वामनपुराण (अ० 84) में इसका उल्लेख पाया जाता है। चन्देल राजाओं के समय में उनकी तीन राजधानियों--खर्जूरवाह (खजुराहो), कालञ्जर और महोदधि (महोबा)-में से यह भी एक था। आइने-अकबरी (भाग 2, पृ० 159) में इसको गगनचुम्बी पर्वत पर स्थित प्रस्तरदुर्ग कहा गया है। यहाँ पर कई मन्दिर हैं। एक में प्रसिद्ध कालभैरव की 18 बालिश्त ऊँची मूर्ति है। इसके सम्बन्ध में बहुत सी आश्चर्यजनक कहानियाँ प्रचलित हैं। कई झरने और सरोवर भी बने हुए हैं।
काली
शाक्तों में शक्ति के आठ मातृकारूपों के अतिरिक्त काली की अर्चा का भी निर्देश है। प्राचीन काल में शक्ति का कोई विशेष नाम न लेकर देवी या भवानी के नाम से पूजा होती थी। भवानी से शीतला का भी बोध होता था। धीरे-धीरे विकास होने पर किसी न किसी कार्य का सम्बन्ध किसी विशेष देवता या देवी से स्थापित होने लगा। काली की पूजा भी इसी विकासक्रम में प्रारम्भ हुई। त्रिपुरा एवं चटगाँव के निवासी काला बकरा, चावल, केला तथा दूसरे फल काली को अर्पण करते हैं। उधर काली की प्रतिमा नहीं होती, केवल मिट्टी का एक गोल मुण्डाकार पिण्ड बनाकर स्थापित किया जाता है।
मन्दिर में काली का प्रतिनिधित्व स्त्री-देवी की प्रतिमा से किया जाता है, जिसकी चार भुजाओं में, एक में खड्ग, दूसरी में दानव का सिर, तीसरी वरद मुद्रा में एवं चतुर्थ अभय मुद्रा में फैली हुई रहती है। कानों में दो मृतकों के कुण्डल, गले में मुण्डमाला, जिह्वा ठुड्डी तक बाहर लटकी हुई, कटि में अनेक दानवकरों की करधनी लटकती हुई तथा मुक्त केश एड़ी तक लटकते हुए होते हैं। यह युद्ध में हराये गये दानव का रक्तपान करती हुई दिखायी जाती है। वह एक पैर अपने पति शिव की छाती पर तथा दूसरा जंघा पर रखकर खड़ी होती है।
आजकल काली को कबूतर, बकरों, भैंसों की बलि दी जाती है। पूजा खड्ग की अर्चना से प्रारम्भ होती है। बहुत से स्थानों में काली अब वैष्णवी हो गयी है। दे० 'कालिका'।
कालीघाट
क्ति (काली) के मन्दिरों में दूसरा स्थान कालीघाट (कलकत्ता) के कालीमन्दिर का है, जबकि प्रथम स्थान कामरूप के कामाख्या मन्दिर को प्राप्त हैं। यहाँ नरबलि देने की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसे आधुनिक काल में निषिद्ध कर दिया गया है।
कालीतन्त्र
आगमतत्त्वविलास' में दी गयी तन्त्रों की सूची के क्रम में 'कालीतन्त्र' का सातवाँ स्थान है। इसगें काली के स्वरूप और पूजापद्धति का वर्णन है।
कालीव्रत
कालरात्रि व्रत के ही समान इसका अनुष्ठान होता है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 263, 169।